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सोशल मीडिया पर अभद्र भाषा, कहां जा रहे हैं बच्चे…

इसमें कोई शक नहीं कि कंप्यूटर ने हमें बहुत मार्डन बना दिया है। हम बहुत आगे भी बढ़ रहे हैं लेकिन कंप्यूटर के सबसे लेटेस्ट वर्जन यानि कि मोबाइल ने हमारी नई पीढ़ी की विशेष रूप से बच्चों की मानसिक ग्रोथ को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है।

इसमें कोई शक नहीं कि कंप्यूटर ने हमें बहुत मार्डन बना दिया है। हम बहुत आगे भी बढ़ रहे हैं लेकिन कंप्यूटर के सबसे लेटेस्ट वर्जन यानि कि मोबाइल ने हमारी नई पीढ़ी की विशेष रूप से बच्चों की मानसिक ग्रोथ को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है। यह गहरी चिंता का विषय है कि सोशल मीडिया के चलते हमारी नई  पीढ़ी का विशेष रूप से बच्चों का भविष्य क्या होगा? जहां तक विदेश की बात है यूरोपिय देश सोशल मीडिया को लेकर, उसकी नैतिकता को लेकर और नये पीढ़ी के भविष्य को लेकर चिंतित जरूर है लेकिन भारत के महज आठ साल तक के बच्चे सोशल मीडिया से उनकी भाषा सीख गए हैं। यह बहुत हैरान कर देने वाली बात है। एक स्कूल टीचर ने आठ साल की बच्ची की डेली डायरी में तुरंत पैरेंट्स को बुलाकर लाने की बात कही। माता-पिता ने डायरी पढ़ी और वह टीचर के पास पहुंच गए। आठ साल की बच्ची टीचर से पूछ रही थी सैक्सी ड्रेस क्या होती है, मैं आइटम बनूंगी और माल क्या होता है? यह वो शब्द थे जो बच्ची टीचर से पूछती थी। टीचर के मुंह से यह बातें सुनकर पैरेंट्स हैरान हो गए। इसके बाद टीचर ने पैरेंट्स को समझाया कि बच्चों को मोबाइल से दूर ही रखें तो अच्छी बात है। बच्चा यह तीनों अभद्र शब्द सोशल मीडिया से ही सीखा था। साथ-साथ उठने-बैठने और बच्चों को संस्कार देने के जमाने चले गए। बच्चे व्हाट्सऐप से कौन सी चीज कहां से पढ़ते हैं और कहां फारवर्ड करते है, कुछ पता नहीं। पिछले दिनों ब्रिटेन में मोबाइल इस्तेमाल करने वाले आठ साल तक के बच्चों की मानसिकता बहुत तेजी से बदलने का उल्लेख एक मेडिकल पत्रिका में किया गया था। 
आज के जमाने में बच्चे सबकुछ मोबाइल और सोशल मीडिया से सीख रहे हैं। स्मार्टफोन, टीवी और तरह-तरह की कार्टून फिल्मों की भाषा और उनका व्यवहार देखकर बच्चे भी यही सबकुछ सीख रहे हैं। यह जरूरी है कि पैरेंट्स जागरूक हो जाएं। स्क्रीन से मेरा मतलब मोबाइल, लेपटॉप, स्मार्टफोन या स्मार्ट टीवी देखने से स्मार्टनेस नहीं आ जाती। कई बच्चे इंग्लिस के अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। जो वीडियो व मोबाइल खबर देख रहे हैं उसका कंटेंट ही इतना अभद्र है कि बच्चे वही सीख रहे हैं। हम मोबाइल या   सोशल मीडिया की रत्ती भर भी बुराई नहीं करना चाहते लेकिन उस पर जो कुछ चल रहा है उसे देखकर हमें न केवल खुद सावधान रहना है बल्कि बच्चों को भी सावधान करना है। ऐसे लगता है कि तीन साल से लेकर दस साल तक के बच्चे मोबाइल के एडिक्ट हो चुके हैं। यह बात अमरीका के साइंस विशेषज्ञों ने घोषित की है। उसी लोहे से हथियार बनता है, उसी लोहे से सब्जी और सूत काटने का इस्तेमाल किया जाता है। इस्तेमाल करने का तरीका अलग-अलग है। मेरा व्यक्तिगत रूप से सरकार से अनुरोध है कि सोशल मीडिया में यूज होने वाले वीडियो कंटेंट और जो डायलॉग लिखे जा रहे हैं उसकी भाषा को लेकर कोई रेगुलेटरी जरूर बनानी होगी। वैसे तो हर अच्छी चीज के दो पहलू होते हैं लेकिन पिछले दिनों मोबाइल के प्रति बच्चों की लत के चलते हत्याएं तक हो चुकी हैं। एक बच्चे ने अपनी मां को चाकू इसलिए मार दिया था कि वह उसे पब्जी खेलने से मना करती थी। एक छोटे बच्चे ने अपनी बहन की हत्या भी इसलिए की। ऐसे एक नहीं दर्जनों कारण हैं जो सु​िर्खयां बनकर उभर रहे हैं। 
भारत जैसे देश में जहां राम-राम, नमस्ते, शतश्रीअकाल जैसे शुभ संस्कारों यानी भाषा प्रचलित थी अब वहां मोबाइल पर जिस तरह माता-पिता से बच्चों का और बच्चों का माता-पिता से जो व्यवहार दिखाया जा रहा है, जो  टपोरी भाषा का इस्तेमाल उनके बीच में किया जा रहा है वह स्क्रीन पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता लेकिन जब वह बच्चे देखेंगे और सुनेंगे तो अच्छे संस्कारों की आशा नहीं की जा सकती। बहुत कम परिवार हैं जहां संस्कारों को सुरक्षित रखा जा रहा है। ज्यादा सुविधाएं और ज्यादा मॉर्डन होने के चक्कर में हम सबकुछ गंवा रहे हैं। विशेष रूप से नई पीढ़ी को नये संस्कार कैसे देने हैं यह समझाना और बताना बहुत जरूरी हो गया है। कई बार डिबेट सुनती हूं तो एक्सपर्ट बता रहे होते हैं कि मोबाइल के बिना गुजारा नहीं, छोटे बच्चों को कंट्रोल करना आसान नहीं लेकिन हमारा मानना है अगर सबकुछ यूं ही चलता रहा तो नई पीढ़ी कहां जायेगी? धीरे-धीरे दोहे, चौपाइयां, छंद और सुंदर गीत खत्म हो रहे हैं। उनकी जगह अभद्र भाषा में चुटकुले और अन्य अभद्र वीडियो खूब वायरल हो रहे हैं। बच्चे इसी को देख-देख कर बड़े हो रहे हैं। यह एक चेतावनी भरा समय है। आज हम जिस चांद पर कदम बढ़ा रहे हैं उसी चांद की तुलना हमारे जमाने में मामा के रूप में की जाती थी और उस पर सैकड़ों गीत लिखे गए हैं। चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा… कहने का मतलब एक महत्वपूर्ण बात यह होनी चाहिए कि नई पीढ़ी की वैचारिक ऊर्जा को अगर बढ़ाना है तो उसमें हमारे संस्कारों  और संयुक्त परिवारों की सीख का भी ध्यान रखकर आगे बढ़ना होगा वरना आधुनिकता के चक्कर में सब तरफ फूहड़ता और अभद्रता का बोलबाला ही रहेगा। समय रहते इस विषय में कुछ करना होगा।

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