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भारतीय संघ और राज्य

भारतीय संघ में राज्यों की स्थिति हमारे संविधान निर्माताओं ने इस देश की अविभाज्य किन्तु पृथक सांस्कृतिक खुशबू से भरी विविधता की सामूहिक चेतना को सर्वोपरि रखते हुए एक खूबसूरत ‘गुलदस्ते’ की तरह रखी। दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने इस गुलदस्ते में हर फूल को अपनी महक बिखेरने की स्वतन्त्रता देते हुए तय किया कि भारत का गुलदस्ता ऐसे मजबूत ‘गुलदान’ में सर्वदा सजा रहे जिससे किसी भी फूल को कभी भी अपने अस्तित्व के बोध से वंचित न होना पड़े। इसके लिए संविधान में यह स्पष्ट किया गया कि भारत ‘राज्यों का ऐसा संघ’ होगा जिसमें केन्द्र व राज्यों के अधिकारों की स्पष्टता के साथ इन्हें आपस में बांधने के लिए इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता आपसी सौहार्द व सहयोग पर टिकी रहेगी। संविधान में केन्द्रीय सूची, राज्य सूची व समवर्ती सूची इसी का उदाहरण हैं। प्रत्येक राज्य की पृथक-पृथक भौगोलिक, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुरूप वहां के लोगों के विकास के लिए राज्य सूची का निर्माण किया गया और इन्हें वित्तीय स्वतन्त्रता प्रदान की गई। इसका लक्ष्य एक ही था कि हर हालत में राज्यों के लोगों द्वारा चुनी गई प्रदेश सरकारें उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए केन्द्र पर निर्भर न रहें।
कृषि से लेकर माध्यिमक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों को राज्यों पर छोड़ने का मन्तव्य यही था कि राज्य की जनता के चहुंमुखी विकास का भार राज्य सरकारें स्वयं इस तरह वहन करें कि उन्हें चुनने वाले मतदाताओं के प्रति उनकी जवाबदेही के बीच में केन्द्र को बहाना बना कर पेश न किया जा सके। इसके साथ ही केन्द्र पर यह जिम्मेदारी और जवाबदेही डाली गई कि किसी भी मुसीबत के समय वह राज्यों की मदद के लिए आगे आकर खड़ा हो क्योंकि केन्द्र के कोष में राज्यों से उगाहाया गया धन ही जमा होता है। वैसे तो केन्द्र राज्यों के सम्बन्ध के बारे में कई आयाेगों का गठन किया गया। मगर राजनैतिक समस्याओं के हल के लिए जो सरकारिया आयोग 80 के दशक में स्थापित किया गया था उसने अपनी सिफारिशों में सर्वाधिक जोर इस बात पर दिया कि केन्द्र राज्यपालों की मार्फत प्रदेश सरकारों की स्वायत्तता का अतिक्रमण नहीं कर सकता और राज्य सरकारों को जनता के प्रति अपनी जवाबदेही से विमुख नहीं कर सकता परन्तु सेवा व माल कर (जीएसटी) प्रणाली शुरू होने के बाद इसमें आमूल-चूल परिवर्तन इस प्रकार आया कि राज्यों की वित्तीय स्वतन्त्रता का मसला पहले से लिखित संविधान के दायरे से बाहर होकर संसद की परिधि से भी बाहर हो गया। यह अकारण नहीं है कि मनमोहन सरकार के रहते जीएसटी मुद्दे पर बनी सर्वदलीय संसदीय समिति के अध्यक्ष श्री यशवन्त सिन्हा ने इस प्रणाली के विरोध में बहुत तीखा मत दिया था और इसे राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध तक बताया था। उस समय श्री सिन्हा भारतीय जनता पार्टी में थे और वाजपेयी सरकार के दौर में वित्तमन्त्री भी रह चुके थे परन्तु जीएसटी व्यवस्था के लिए राज्य सरकारें स्वयं ही जिम्मेदार हैं क्योंकि संसद से बाहर केन्द्र के वित्तमन्त्री की सदारत में गठित राज्यों के वित्तमन्त्रियों की ‘जीएसटी परिषद’ ने जो भी फैसले किये वे संसद की परिधि से बाहर ही किये। जीएसटी प्रणाली को संसद में ही संविधान में संशोधन करके इसे संसद के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया। यह कार्य राज्यों की सहमति से ही किया गया।
अब मसला विभिन्न राज्यों द्वारा अपने वित्तीय हकों का जिस तरह उठाया जा रहा है उसमें अपने समुचित हिस्से का न मिलना है। केन्द्र व राज्यों के बीच आय स्रोतों के बंटवारे के लिए वित्त आयोग भी कारगर संस्था है। वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार ही सकल केन्द्रीय राजस्व से राज्यों का हिस्सा आवंटित किया जाता है। जीएसटी प्रणाली के चलते राज्यों की राजस्व उगाही के अधिकार जिस तरह सीमित हुए हैं उससे उनकी निर्भरता इस कर प्रणाली के भीतर केन्द्र द्वारा उगाहे गये कुल धन में से अपने हिस्से के आवंटन की तुरन्त पावती हो गई है। इस आवंटन में केन्द्र यदि देरी करता है तो राज्यों की वित्तीय स्थिति डावांडोल हो जाती है। इसके साथ ही केन्द्र की जो भी लोक कल्याणकारी स्कीमें होती हैं उन्हें लागू करने का काम भी राज्य सरकारें करती हैं। कर्नाटक की कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने हाल ही में दिल्ली में आकर जन्तर-मन्तर पर धरना दिया और मांग की कि केन्द्र उसके हिस्से की धनराशि उसे तुरन्त दे।
सिद्धारमैया के अनुसार कर्नाटक केन्द्रीय कोष में 100 रुपए देता है मगर बदले में उसे केवल 13 रुपए ही मिलते हैं। इससे पहले प. बंगाल की ममता सरकार ने भी एेसा ही किया था और अपने हिस्से का धन केन्द्र से मांगा था। आज तमिलनाडु की सरकार की तरफ से इस राज्य के सांसदों ने भी मांग की कि बाढ़ नियन्त्रण कार्य के लिए राज्य की जनता को राहत देने के लिए केन्द्र उसे आवश्यक धन आवंटित करे। इसके साथ ही केरल के मुख्यमन्त्री पी. विजयन ने भी दिल्ली आकर ही गुहार लगाई कि केन्द्र राज्यों के धन उधारी लेने की सीमा को संविधानतः नियन्त्रित नहीं कर सकता। कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु में जनता द्वारा चुनी गई लोकप्रिय सरकारें हैं बेशक वे भाजपा विरोधी दलों की सरकारें हैं मगर भारतीय संघ के गुलदस्ते के महकते फूल हैं। कर्नाटक के मुख्यमन्त्री सिद्धारमैया तो अपने पूरे मन्त्रिमंडल के साथ जन्तर-मन्तर पर बैठे दिखाई पड़े। अतः मामला फिर से केन्द्र-राज्य सम्बन्ध का ही है जिसे जल्दी से जल्दी सुलझाया जाना चाहिए। यह सवाल उत्तर-दक्षिण का न होकर राजनैतिक विविधता का ज्यादा लगता है जिसे पूरी तरह ‘अराजनैतिक’ नजरिये से सुलझाया जाना चाहिए क्योंकि भारत के चारों दिशाओं के राज्य समेकित रूप से जिस तरह संभालते हैं उसकी ध्वनि हमारी लोक संस्कृति में बसी हुई है जिसे दशहरा पूजते समय उत्तर भारत के लोग इस प्रकार व्यक्त करते हैं,
‘‘पश्चिम का घोड़ा, पूर्व का चीर दक्षिण का वर्धा, उत्तर का नीर।’’

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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