सर्वप्रथम यह समझा जाना बहुत जरूरी है कि प्रत्येक कश्मीरी नागरिक भारत माता का ऐसा राष्ट्रभक्त सपूत है जिसने 1947 में पाकिस्तान के निर्माण का पुरजोर विरोध किया था और उस वर्ष जब यह देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में बुरी तरह झुलस रहा था तो जम्मू-कश्मीर ही ऐसा प्रदेश था जहां कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ था जिसे देख कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘इस गुप अंधेरे में आशा की एक किरण कश्मीर में दिखाई दी है।’’
परन्तु 1990 के आते-आते पाक प्रेरित आतंकवाद ने यहां ऐसा विषाक्त वातावरण बनाया कि कश्मीर वादी से हिन्दू पंडितों को सामूहिक रूप से अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। अतः मूल समस्या पाकिस्तान है। कश्मीरी संस्कृति भारत की ऐसी बहुमूल्य थाती है जिसमें हिन्दू-मुस्लिम समुदाय एकात्मता की खुशबू इसके गोशे-गोशे में समाई हुई है।
यहां ऋषि परंपरा हिन्दू और मुस्लिम दोनों की ही विरासत है, परन्तु यह भी सच है कि इस राज्य की क्षेत्रीय राजनीति ने पाक परस्त तत्वों को परोक्ष समर्थन देकर अपने विशेष दर्जे का लाभ उठाना चाहा। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 371 भी ऐसा प्रावधान है जिसके तहत किसी भी राज्य की विशिष्टता को संरक्षण देने की सम्पूर्ण प्रणाली विद्यमान है। अतः पिछले वर्ष 5 अगस्त को संसद ने इस राज्य में लागू अनुच्छेद 370 समाप्त करके अलगाववादी ताकतों को निचोड़ कर फैंक डाला और राज्य को दो केन्द्र शासित क्षेत्रों में विभक्त कर दिया।
इस पर कुछ सैद्धान्तिक मतभेद हो सकते हैं कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए था मगर लगभग एक वर्ष बीत जाने के बाद अब इस बारे में कोई आशंका नहीं रहनी चाहिए कि इस राज्य के लोगों को अपने मताधिकार की ताकत से अपनी मनपसन्द सरकार का गठन करने का हक मिलना चाहिए।
पिछले दिनों ही यहां के उपराज्यपाल श्री जी.सी. मुर्मू ने इस बाबत सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि राज्य में चुनाव कराने में उन्हें कोई दिक्कत महसूस नहीं हो रही है सिवाय कोरोना महामारी के मगर इसके साथ ही यह भी देखा जाना जरूरी है कि 1952 के पहले के चुनावों से ही राज्य की राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने से वंचित उन नागरिकों के अधिकारों की भी रक्षा की जाये जो राज्य में धारा 35 ( ए) की वजह से स्थायी निवासी होने के बावजूद जम्मू-कश्मीर की नागरिकता से वंचित थे। यह अजीब विरोधाभास था कि ये लोग भारत के नागरिक तो थे मगर जम्मू-कश्मीर के मूल नागरिक नहीं थे।
ये लोकसभा चुनावों में वोट डालने के हकदार थे मगर विधानसभा चुनावों में इनके पास मताधिकार नहीं था। इनमें से बहुसंख्य 1947 व उसके करीब पाकिस्तान से आये हुए शरणार्थी थे। 35 (ए) की वजह से राज्य के मूल निवासी नहीं माने जाते थे। इस कानून के हटने के बाद से अब ऐसे नागरिकों को राज्य का मूल निवासी होने का प्रमाणपत्र मिलना शुरू हो गया है और अभी तक तीन लाख 70 हजार नागरिकों को ये प्रमाणपत्र मिल चुके हैं।
अतः एक मायने में सरकार राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी में लग चुकी है। इनका नाम राज्य विधानसभा चुनाव की सूचि में जोड़ने का कार्य चुनाव आयोग करेगा। इसके साथ ही विगत वर्ष पांच अगस्त को जिस तरह राज्य के राजनीतिक नेताओं को गिरफ्तार व नजरबन्द करने का सिलसिला चला था वह भी अब टूट रहा है और नेताओं को रिहा किया जा रहा है।
राज्य में चार राजनीतिक दल प्रमुख हैं जिनमें नेशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी, कांग्रेस व भाजपा हैं। इनमें से भाजपा को छोड़ कर शेष सभी दलों के क्षेत्रीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। जिनमें तीन पूर्व मुख्यमन्त्री सर्वश्री फारूख अब्दुल्ला, उमर फारुख व श्रीमती महबूबा मुफ्ती भी शामिल थे। इनमें से फारूख अब्दुल्ला व उमर फारूख को पहले ही रिहा किया जा चुका है जबकि श्रीमती महबूबा की गिरफ्तारी और आगे बढ़ा दी गई है।
पहली नजर में यह गैर वाजिब लगता है क्योंकि राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने से पहले महबूबा के नेतृत्व में ही स्वयं भाजपा राज्य की सरकार चला रही थी। राजनीतिक रूप से धुर विरोधी होने के बावजूद यह गठबन्धन चुनावों के बाद बना था और सरकार पर काबिज था। इस सांझा हुकूमत की क्या कारगुजारियां रहीं वे सब प्रदेश की जनता के सामने हैं। अतः श्रीमती महबूबा भी उसी सलूक की हकदार हैं जो फारूख साहब या उमर साहब के साथ किया गया है।
राज्य में अब केन्द्र की हुकूमत है और जो भी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होगी वह सीमित अधिकारों वाली विधानसभा के लिए होगी, अतः यह जिम्मेदारी क्षेत्र के राजनीतिक दलों पर ही छोड़ देनी चाहिए कि वे इसका हिस्सा बनना कबूल फरमायेंगे या नहीं। वैसे राष्ट्रहित में सभी दलों को राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लेना चाहिए। साथ ही कांग्रेस के नेता प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज साहब के बारे में राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में जो गलत बयानी की है उसका दोष किसे दिया जायेगा? सोज साहब की पत्नी अपने खाविन्द की रिहाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय गई थीं जहां सरकार ने कह दिया कि उन्हें बन्दी ही नहीं बनाया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस बयान के आधार पर अपना फैसला दे दिया मगर अगले ही दिन सोज साहब को श्रीनगर में उनके घर के भीतर ही रहने के लिए पुलिस कर्मी दबाव बनाते देखे गये। आम जनता में ऐसी गतिविधियों से सन्देश नकारात्मक ही जाता है। सरकार की तरफ से हर कश्मीरी को राजनीतिक प्रक्रिया में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
पीपुल्स कान्फ्रेंस के नेता सज्जाद लोन को रिहा करने का सन्देश निश्चित रूप से सकारात्मक कहा जायेगा। जरूर यह है कि बेशक चुनावों में अभी बहुत समय शेष हो क्योंकि इस बारे में अन्तिम फैसला चुनाव आयोग ही करेगा परन्तु आम जनता के बीच ऐसा वातावरण जरूर तैयार होना चाहिए जिससे लगे कि राज्य का विशेष दर्जा खत्म होने से उनके अधिकारों पर कोई अन्तर नहीं पड़ा है बल्कि वे समूचे रूप से भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों के हकदार हो चुके हैं।
यह सन्देश तभी नागरिकों में अपनी पैठ बनायेगा जब यहां राजनीतिक प्रक्रिया को अंजाम दिया जायेगा। लोकतन्त्र में जनता ही अपने अधिकारों से राजनीति को संचालित करती है।
-आदित्य नारायण चोपड़ा