कोरोना वायरस के डर से सहमी जिन्दगी अब पटरी पर आनी चाहिए। लगभग सात महीने पहले इस बीमारी ने भारत में दस्तक दी थी। तब से लेकर अब तक जीवन के हर पहलू को इसने इस तरह प्रभावित किया है कि आम इंसान जिन्दगी की उन रौनकों से महरूम हो चुका है जो उसमें नित नई ऊर्जा भरती थीं। जाहिर है यह स्थिति इतने लम्बे समय तक नहीं चल सकती कि आदमी स्वयं को कोरोना का गुलाम समझ कर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे। दिल्ली सरकार का आगामी 7 सितम्बर से मेट्रो चलाने का फैसला साहसिक होने के साथ ही प्रशंसनीय भी है क्योंकि इससे आम आदमी में ही आत्मविश्वास का संचार होगा और उसमें कोरोना का डर भगाने का साहस जागेगा। बेशक ‘जान है तो जहान है’ मगर बिना जहान के जान भी तो ‘बेजान’ हो जाती है। इस सन्तुलन को बनाये रखने के लिए विभिन्न मोर्चों पर कारगर कदम सरकार और स्वयं नागरिकों को ही उठाने होंगे। यह तर्कपूर्ण है कि केन्द्र सरकार ने विभिन्न राज्यों को स्थानीय स्तर पर लाॅकडाऊन घोषित करने से रोकने इंतजाम किया है। सप्ताह में एक या दो दिन का लाॅकडाऊन वैज्ञानिक नजरिये से गैर तार्किक इसलिए है क्योंकि इससे न तो बीमारी भगाने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है और न ही लोगों को अनुशासित करने का बल्कि उल्टा असर यह होता है कि जो जिन्दगी सप्ताह के पांच दिन पटरी पर आने का प्रयास करती है वह दो दिन लाॅकडाऊन होने की वजह से फिर से पुरानी जगह लौट जाती है।
विशेषज्ञों को ऐसे लाॅकडाऊन की सार्थकता के बारे में अध्ययन करना चाहिए और फिर पक्की राय कायम करनी चाहिए। मेट्रो केवल दिल्ली में ही चालू नहीं होगी बल्कि सभी उन शहरों मे चालू होगी, जहां यह सुविधा मौजूद है। इससे यह उम्मीद जगती है कि रेल मन्त्रालय भी जल्दी ही यात्री रेलगाड़ियां चलाने के बारे में सोचेगा और देशवासियों के आवागमन को सुविधाजनक बनायेगा। यात्रा करना व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है इसे हम अनंतकाल तक मुल्तवी कैसे रह सकते हैं। विभिन्न राज्यों ने अन्तर्राज्यीय बस सेवाएं पहले से ही चला रखी हैं तो अब ट्रेनों को चलाने में ज्यादा देर नहीं की जानी चाहिए। रेलगाड़ी गरीब व आम आदमी के लिए सबसे सस्ता व सुगम परिवहन साधन है। यात्रा केवल जरूरी कार्यों के लिए ही नहीं होती बल्कि वह जीवन को सरसता से भरने के लिए भी होती है। यदि जीवन से सरसता को निकाल दिया जाये नीरसता का साम्राज्य इस तरह फैलने लगता है कि व्यक्ति श्रम साध्य कार्यों से जी चुराने लगता है और सब कुछ नियति पर छोड़ देता है जबकि मानव जीवन का मूल श्रम से हिम्मत के साथ आगे बढ़ने का होता है। इसी शक्ति के साथ मनुष्य जीवन में बड़े काम करने के योग्य होता है। अतः जीवन को सरस बनाने के सभी साधनों को हमें पुनः जीवित करते हुए आगे बढ़ना होगा और सामाजिक कृत्यों से लेकर अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के उपाय करने होंगे। अतः गृह मन्त्रालय 21 सितम्बर के बाद धार्मिक व राजनीतिक गतिविधियों पर लगे प्रतिबन्धों पर भी छूट देने जा रहा है।
बेशक मेट्रो से लेकर राजनैतिक गतिविधियों के लिए निर्दिष्ट नियामक होंगे परन्तु भारत जैसे लोकतन्त्र में इनके शुरू होने से जीवन में उत्साह व संघर्ष पूर्ण गतिविधियां पुनः शुरू होंगी। इन सबमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियां हैं क्योंकि कोरोना ने पहले से ही सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को संकट के द्वार पर लाकर पटक दिया है। विगत वित्त वर्ष में सकल विकास वृिद्ध दर ही घट कर 4.2 प्रतिशत रह गई थी जबकि वर्ष 2016 में यह आठ प्रतिशत से ऊपर थी।
कोरोना ने इसमें और इजाफा किया और पहली तिमाही में यह घट कर तीन प्रतिशत ही रह गई। सबसे बड़ा संकट रोजगार के मोर्चे पर आया और दो करोड़ नौकरीपेशा लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठे जबकि 40 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जाने को तैयार बैठे हुए हैं। इस स्थिति से पार पाने के लिए हमें वृहद आधार पर जिन्दगी के उन सभी पहलुओं को छूना होगा जो व्यक्ति को श्रमशील व उत्पादन शील बनाती हैं। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था इस बात से नापी जाती है कि वहां के आम आदमी की औसत उत्पादकता क्या है और उप्पादकता नीरसता के वातावरण में कभी पैदा नहीं सकती। इसीलिए जीवन में सरसता के विभिन्न माध्यम विद्यमान रहते हैं जिससे व्यक्ति अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए उत्पादनशील बना रह सके। सात महीने गुजर जाने के बाद हमें यह गंभीरता से सोचना होगा कि किस तरह जोखिम लेते हुए हम कोरोना के भय को जनता के दिल से दूर करें।
भारत के सन्दर्भ में सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि यहां कोरोना के लक्षण पाये जाने के बाद उनका उपचार भी बहुत तेज गति से हो रहा है और 100 में से लगभग 80 आदमी ठीक हो रहे हैं जबकि मरने वाले दो से भी कम हैं मगर साथ ही यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि कोरोना प्रकोप का लाभ किसी भी तरह हर संकट में मुनाफा कमाने की तरकीब खोजने वाली प्रवृत्ति न ले सके और इसमें खर्च होने वाले धन का दुरुपयोग न कर सके। कोरोना उपचार करने के लिए सरकारी सुविधायें पर्याप्त न होने की वजह से निजी क्षेत्र की इसमें भागीदारी ली गई है जिसका खर्च सरकार ही वहन कर रही है। अतः इस तरफ पैनी नजरें रखने की सख्त जरूरत है क्योंकि इस मोर्चे पर हैरत पैदा करने वाली कुछ खबरें आ रही हैं, लेकिन कोरोना ने एक अवसर स्वास्थ्य क्षेत्र में आमूलचूल संशोधन करने का भी प्रदान किया है। खासतौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में स्वास्थ्य तन्त्र को मजबूत बना कर हम सामान्य और गरीब परिवारों को निर्भय होने का वचन दे सकते हैं।