पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड में तमाम प्रमुख राजनीतिक दलों के एक अप्रत्याशित फैसले से अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं। तय समय यानी 27 फरवरी को चुनाव नहीं होने की स्थिति में राज्य में संवैधानिक संकट पैदा हो सकता है। राज्य विधानसभा की अवधि 13 मार्च को खत्म हो रही है। राज्य के छोटे-बड़े 11 राजनीतिक दलों ने चुनावों के बहिष्कार का फैसला किया है। भाजपा के लिए बड़ी दुविधा पैदा हो गई है क्योंकि इनमें सत्तारूढ़ नागा पीपुल्स पार्टी (एनपीएफ) भी शामिल है। सरकार में सांझीदार भाजपा भी है। चुनाव बहिष्कार का फैसला करने वाले दलों का कहना है कि दशकों पुरानी नागा समस्या का समाधान नहीं होने तक वह चुनावों में शामिल नहीं होंगे। कुछ दिन पहले चुनाव टालने की मांग को लेकर एनपीएफ के 10 विधायकों ने इस्तीफा भी दिया था। विभिन्न नागा संगठन चुनाव से पहले ही सोल्यूशन बिफोर इलैक्शन यानी चुनाव से पहले ही समाधान का नारा दे रहे हैं। इन संगठनों ने पहली फरवरी को राज्यव्यापी बन्द भी आहूत किया है।
केन्द्र सरकार उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (इसाक मुईवा) समेत कई संगठनों के साथ शांति प्रक्रिया में शामिल है। उनके बीच प्रक्रिया मसौदा प्रस्तावों पर समझौता भी हो चुका है। मसौदा प्रस्ताव में क्या-क्या प्रावधान किए गए हैं, यह सब बातें अभी फाइलों में बन्द हैं। चुनाव बहिष्कार करने के घोषणा पत्र पर पूर्व मंत्री और प्रदेश भाजपा कार्यकारिणी के सदस्य खेतो सेमा ने भी हस्ताक्षर किए हैं लेकिन भाजपा हाईकमान का कहना है कि उसने भाजपा के किसी नेता को किसी कागज पर हस्ताक्षर करने के लिए अधिकृत नहीं किया है। नागालैंड के मुख्यमंत्री टी.आर. जेलियांग, उनकी पूरी सरकार और राज्य के कई नागा संगठन शांति प्रक्रिया का हवाला देकर पहले से ही विधानसभा चुनाव टलवाने की जोड़-तोड़ में जुटे थे। नागा संगठनों का कहना है कि विधानसभा चुनावों का मौजूदा शांति प्रक्रिया पर गहरा असर पड़ेगा। नागा संगठन नहीं चाहते कि 5 साल में 10 सरकारें देखें। वे चाहते हैं कि पहले समस्या का हल हो ताकि कानूनी रूप से एक ही सरकार सत्ता में रहे। इस बार सभी नागा संगठनों ने जिस एकजुटता का परिचय देते हुए चुनावों के बायकाट का फैसला किया है उससे तो नागा समस्या के सुलझने की बजाय उलझने के आसार ज्यादा नजर आते हैं। पूर्वोत्तर का नागा समुदाय लम्बे समय से नागा बहुल इलाकों को मिलाकर ग्रेटर नागालिम राज्य बनाने की मांग करता रहा है।
ग्रेटर नागालिम राज्य में मणिपुर, असम आैर अरुणाचल प्रदेश के नागा बहुल इलाकों को मिलाकर राज्य गठन की मांग की जाती रही है। इस मांग को लेकर हिंसा भी की जाती रही है। नागालैंड में कई दशकों से उग्रवादी संगठन समानांतर सरकारें चलाते रहे हैं। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद नागा समाज में सक्रिय नागरिक समूहों के साथ दिल्ली में एक बड़ा समझौता किया था। इस समझौते के तथ्यों को हालांकि गोपनीय रखा गया था लेकिन इस समझौते के मुद्दों के समाधान के लिए एक फ्रेमवर्क की बात कही गई थी। अब नागरिक समूहों का मानना है कि इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है आैर जब चुनाव का ऐलान हो गया तो यह अपनी मांगों के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार पर दबाव बनाने का उनके पास माकूल मौका बन गया है। इस मुद्दे पर केन्द्र की ओर से आर.एन. रवि को वार्ताकार बनाया गया हालांकि मणिपुर में भाजपा की सरकार बनने के बाद इस समस्या के समाधान के हल की उम्मीद प्रबल हो गई थी। नागा समुदाय की मांग पर अगर अमल किया जाए तो मणिपुर का 60 फीसदी हिस्सा ग्रेटर नागालिम में शामिल करना पड़ जाएगा। अब नागालैंड के सभी राजनीतिक दलों के चुनाव बहिष्कार के फैसले से राजनीति की प्याली में तूफान आ गया है। ऐसा लग रहा है कि नागालैंड सियासी भंवर में फंस चुका है।
मोदी सरकार और नागा विद्रोहियों के बीच शांति वार्ताओं से एक आेर 7 दशक बाद शांति समझौते की उम्मीद बंधी थी तो दूसरी ओर पड़ोसी राज्यों में ग्रेटर नागालिम के लिए जमीन खोने की चिन्ता। केन्द्र को उम्मीद थी कि नागा समाज के दबाव में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड का खापलांग गुट भी शांति प्रक्रिया में शामिल होगा लेकिन दूसरी ओर नागालैंड की जमीनी हकीकत जरा भी नहीं बदली। सरकारी खजाने की रकम खापलांग गुट के पास चली गई। राज्य में एनएससीएन खापलांग गुट की समानांतर सरकार चल रही है, जबरन उगाही का सिलसिला जारी है। केन्द्र यह स्पष्ट कर चुका है कि नागालैंड की समस्या का हल नागालैंड की सीमाओं के भीतर ही होगा, पड़ोसी राज्यों की सीमाओं को बदलने का कोई सवाल ही नहीं। सीमाओं को बदलना केन्द्र के लिए भी काफी मुश्किल है क्योंकि असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और अन्य राज्यों को सीमाएं बदलना स्वीकार ही नहीं है। चुनाव कराना एक संवैधानिक प्रक्रिया है और सरकार संविधान के प्रावधानों से बंधी हुई है। देखना है निर्वाचन आयोग कैसे आगे बढ़ता है। 1998 में नागा होहाे और एनएससीएन (ईसाक मुईवा) की अपील पर कांग्रेस को छोड़ तमाम दलों ने चुनाव का बायकाट किया था। नतीजतन कांग्रेस 60 में से 53 सीटें जीत गई थी। अहम सवाल यह है कि क्या भाजपा 1998 का इतिहास दोहराना चाहेगी? नागा समस्या का समाधान इसलिए मुश्किल है क्योंकि वे पूर्वोत्तर के हर राज्य में अपना विस्तार चाहते हैं और उसे बढ़त भी हासिल है, ऐसे में किसी एक पक्ष को तुष्ट करने से दूसरे पक्ष असंतुष्ट हो जाएंगे।