भारत में एकीकृत वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) प्रथा लागू होने के बाद देश के विभिन्न राज्यों में जरूरी चीजों की कीमतों में एकरूपता तो आयी है मगर इससे राज्यों की केन्द्र पर राजस्व निर्भरता भी बढ़ी है जिसकी वजह से कभी-कभी केन्द्र व राज्यों के सम्बन्धों में हमें खटास देखने को भी मिलती रहती है। भारत चूंकी राज्यों का संघ है और इसके संविधान में राज्यों को अपनी वित्त प्रणाली को सुचारू बनाने के लिए व्यापक वित्त अधिकार भी दिये गये थे अतः जीएसटी लागू होने से पहले प्रत्येक राज्य अपनी वित्तीय जरूरतों के लिहाज से अपने ‘राज्य कर’ निर्धारित करने के लिए स्वतन्त्र था परन्तु इस प्रणाली के चलते राज्यों के बीच वित्तीय असमानता भी रहती थी। मसलन जिस राज्य के पास अधिक प्राकृतिक व ढांचागत स्रोत रहते थे वह तेज गति से विकास करता था और जो राज्य इन स्रोतों से वंचित रहता था वह पिछड़ जाता था। इसके साथ ही प्रत्येक राज्य अपने हिसाब से विभिन्न वस्तुओं पर बिक्री कर लगाने के लिए स्वतन्त्र रहता था जिसकी वजह से एक ही वस्तु के दाम अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग रहते थे।
वास्तव में यह विसंगति थी क्योंकि उत्पाद के समान रहने के बावजूद उसके दाम उत्तर प्रदेश में ज्यादा और तमिलनाडु में कम रह सकते थे। इसकी वजह से किसी वस्तु का उत्पादन करने वाले राज्यों व खपत करने वाले राज्यों के वित्तीय राजस्व का अन्तर आ जाता था। मगर इस विसंगति को तभी दूर किया जा सकता था जब संविधान में संशोधन किया जाये और राज्यों के वित्तीय अधिकार किसी ऐसी संस्था के हाथ में दे दिये जायें जिस पर भारत की संसद का अधिकार क्षेत्र भी काम न करे क्योंकि यह संस्था ही राज्यों के साथ मिल कर केन्द्र को वह अधिकार देती जिससे वह सभी राज्यों में किसी वस्तु के एक समान मूल्य निर्धारित करने की क्षमता प्राप्त कर सके। अतः सबसे पहले संविधान में यह संशोधन किया कि राज्य सरकारों के वित्तीय अधिकार अन्यत्र हस्तान्तरित किये जा सकते हैं और उसके बाद जीएसटी का गठन किया गया जिसमें केन्द्र सरकार का एक-तिहाई व राज्य सरकारों का दो-तिहाई स्वामित्व होगा। अर्थात जीएसटी अपने सभी फैसले इस प्रकार लेगी कि केन्द्र व राज्यों में आपस में पूर्ण सहमति हो। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जीएसटी का हर फैसला सर्वसम्मति से ही होना चाहिए।
भारत के सन्दर्भ में निश्चित रूप से यह नया प्रयोग था जो कि 1991 में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद उपजना शुरू हो गया था। हालांकि इसके विरोध में यह प्रबल तर्क भी दिया गया कि ऐसी बड़ी-बड़ी विदेशी कम्पनियों की सहूलियत के लिए किया जा रहा है जिससे भारतीय बाजारों में उनका माल एक राज्य से दूसरे राज्य में बेधड़क तरीके से एक ही मूल्य पर बिक सके और उन्हें हर राज्य सरकार की अपनी कर प्रणाली के झमेले में न पड़ना पड़ा परन्तु जीएसटी का समर्थन भारतीय कम्पनियों ने भी दिल खोल कर किया परन्तु इसका एक दूसरा पहलू भी था जो कि भारत की अर्थव्यवस्था को अधिकतम नियम पालक बनाना था। छोटे व्यापारी से लेकर बड़े कारोबारी तक को जीएसटी के तहत अपना पंजीकरण करना था जिससे उसका जो भी कारोबारी लेन-देन है वह सब ‘पक्के खाते’ में हो सके। इस मार्ग में प्रारम्भिक कठिनाइयां तो आयीं मगर धीरे-धीरे भारत का व्यापार जगत इसका आदी होता गया। क्योंकि माल सप्लाई करने वाले से लेकर उसे बेचने वाले तक का पंजीकरण किया गया और उत्पादन करने वाले से लेकर कच्चा माल सप्लाई करने वाले तक को भी इसका हिस्सा बनाया गया। जीएसटी परिषद ने किसी माल के तैयार होने के विभिन्न चरणों में अलग-अलग शुल्क दरें तय कीं और उपभोक्ता के हाथ में उसके पहुंचने तक एक समान शुल्क दर तय करके इस प्रकार प्राप्त राजस्व का केन्द्र व राज्यों में बंटवारा करने की प्रणाली विकसित की।
परिषद के अध्यक्ष देश के वित्त मन्त्री होते हैं और उपाध्यक्ष किसी भी राज्य का वित्त मन्त्री। अतः परिषद ने अब यह फैसला किया लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था को तीव्र गति देने के साथ राजस्व वसूली बढ़ाने के लिए 143 उत्पादों पर शुल्क दर बढ़ाई जाये। जिन वस्तुओं पर शुल्क बढ़ाने का प्रस्ताव उसने राज्य सरकारों के पास भेजा है उनमें पापड़ व गुड़ भी शामिल हैं क्योंकि इन दोनों वस्तुओं पर अभी तक शून्य शुल्क ही लगता है। प्रस्ताव में इसे पांच शुल्क लगाने की बात कही गई है लेकिन इनके अलावा अन्य 141 वस्तुओं में से प्रायः अमीर लोगों के इस्तेमाल में आने वाली वस्तुओं पर शुल्क दर 28 प्रतिशत करने का सुझाव है जो मध्यम वर्ग के लोगों के लिए शानो-शौकत की चीजें होती हैं इनमें इत्र व खुशबुओं से लेकर रंगीन चश्मे और ‘पावर बैंक’ तक शामिल हैं। यह मानना पड़ेगा कि कोरोना ने दो साल तक पूरी अर्थव्यवस्था को मध्यम गति में रखा जिसकी वजह से राजस्व वसूली में कमी भी आयी मगर इसके बावजूद फरवरी महीने के भीतर ही 145 लाख करोड़ रुपए की जीएसटी उगाही हुई। इसे देखते हुए समझा जा सकता है कि देश में जीएसटी प्रणाली में स्थायित्व आ रहा है। मगर साथ ही सरकारों का खर्चा भी बढ़ रहा है और कर्जों का बोझ भी भारी हो रहा है अतः कोई न कोई तो ऐसा रास्ता निकालना ही होगा जिससे गरीबों पर कम से कम बोझ पड़े।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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