नीतीश की नौंवी बार ताजपोशी - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

नीतीश की नौंवी बार ताजपोशी

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि बिहार में नीतीश बाबू के पाला बदलने का गहरा असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ेगा क्योंकि कल तक नीतीश बाबू बिहार के मुख्यमन्त्री के रूप में विपक्षी ‘इंडिया गठबन्धन’ के झंडाबरदार बने घूम रहे थे। मगर इसके साथ यह भी उतनी ही हकीकत है कि उनके पुनः भाजपा के साथ आने से उनकी व्यक्तिगत छवि पर भी गहरा असर पड़ेगा और वह पल्टू चाचा के नाम से जाने जायेंगे। मगर राजनीति को संभावनाओं का खेल ही माना जाता है और इसे मित्र बनाने की कला भी कहा जाता है अतः कल तक जिस भाजपा को नीतीश बाबू पानी पी-पीकर कोस रहे थे आज उसके साथ गलबहियां करते नजर आ रहे हैं और उसी के साथ मिल कर 9वीं बार राज्य के मुख्यमन्त्री पद की शपथ ले रहे हैं। वह स्वतन्त्रता के बाद बिहार के अभी तक सर्वाधिक बार और सबसे लम्बे समय तक मुख्यमन्त्री रहने वाले नेता भी कहलाएंगे लेकिन इसके लिए उन्हें निजी प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगाना पड़ा है। नीतीश बाबू की यह अन्तिम राजनैतिक पारी मानी जा रही है और वह यह पारी खेल कर उस चक्र को ही पूरा कर रहे हैं जहां से उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन की असली शुरूआत की थी।
1997 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के रहते वह समाजवादी नेता स्व. जार्ज फर्नांडीज के साथ जनता दल से अलग समता पार्टी बना कर एनडीए में शामिल हुए थे। उसके बाद 2013 से लेकर 2024 तक वह चार बार इस गठबन्धन से बाहर और अन्दर हुए। 2000 में केवल एक सप्ताह के लिए ही बिहार का मुख्यमन्त्री रहने के बाद वह केन्द्र की राजनीति में सक्रिय हुए और एनडीए सरकार में कृषि मन्त्री व रेलमन्त्री भी रहे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब 2004 में केन्द्र में एनडीए को कांग्रेस नीत यूपीए ने केन्द्र से अपदस्थ कर दिया था तो 2005 में बिहार के विधानसभा चुनावों में नीतीश बाबू ने अपनी पार्टी जनता दल (यू) को एनडीए का सदस्य रखते हुए उसका परचम बहुत ऊंचा फहराया और राज्य की राजनीति में श्री लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की चौधराहट को उखाड़ फेंका। यह काम उन्होंने भाजपा के साथ ही किया। इसके बाद से 2013 तक वह एनडीए में ही रहे मगर इसी साल उन्होंने भाजपा नेता श्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तिगत विरोध के चलते एनडीए से किनारा किया और 2014 का लोकसभा चुनाव अपने बूते पर लड़ा मगर उनके पल्ले केवल 40 में से दो सीटें ही आयीं। वह एक मायने में ही जुबान के पक्के साबित हुए क्योंकि उन्होंने कहा था कि यदि 2014 में भाजपा सफल रही तो वह मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे देंगे। उन्होंने अपना वचन निभाया और अपनी ही पार्टी के जीतन राम मांझा को मुख्यमन्त्री पद सौंप दिया मगर जब मांझी ही नीतीश बाबू के पर कतरने लगे तो उन्होंने उनका पत्ता साफ करके पुनः मुख्यमन्त्री पद संभाला और 2015 का विधानसभा चुनाव लालू जी की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी व कांग्रेस के साथ गठबन्धन करके लड़ा और शानदार सफलता पाई।
लालू जी ने सहृदयता दिखाई और अपनी पार्टी के अधिक विधायक होने के बावजूद नीतीश बाबू को मुख्यमन्त्री पद पर बैठाया। इसके बाद 2017 में पुनः उनका भाजपा प्रेम जागा और वह लालू जी से सम्बन्ध तोड़ कर फिर उसके साथ हो लिये और मुख्यमन्त्री बने रहे। 2020 का विधानसभा चुनाव उन्होंने पुनः एनडीए के छाते के नीचे भाजपा के साथ मिल कर लड़ा जिसमें भाजपा उनकी पार्टी से बहुत बड़ी पार्टी बन कर उभरी मगर भाजपा ने मुख्यमन्त्री उन्हीं को बनाया। 2022 में नीतीश बाबू को भाजपा फिर से साम्प्रदायिक नजर आने लगी और उन्होंने बीच रास्ते उसका दामन छोड़ कर लालू जी का साथ पकड़ा और उनके सुपुत्र तेजस्वी यादव को उपमुख्यमन्त्री बना दिया। मगर 2020 के चुनावों में बिहार में तेजस्वी यादव का उदय एक प्रतिभावान राजनीतिज्ञ के रूप में हो चुका था क्योंकि एनडीए और लालू जी व कांग्रेस और वामपंथी दलों के गठबन्धन के बीच बहुत कम सीटों का ही अन्तर रहा था। भाजपा के साथ रहते हुए नीतीश बाबू के मुख्यमन्त्री रहते बिहार में सबसे बड़ा एक काम यह भी हुआ कि तेजस्वी के रूप में प्रदेशवासियों को नई पीढ़ी का नेता मिला जिसके हाथ में बेशक लालू जी की विरासत थी मगर उसका नजरिया नया था लेकिन दूसरी तरफ भाजपा के भीतर राज्य में कोई एेसा नेता पैदा नहीं हो सका जिसकी जड़ें जमीन पर हों और जो स्व. ठाकुर प्रसाद या कैलाशपति मिश्रा का स्थान ले सके। एेसा नीतीश बाबू के एनडीए का नेता होने की वजह से ही हुआ। नीतीश बाबू की यह आखिरी पारी मानी जा रही है जिसमें उनकी घर वापसी हो चुकी है और लोकसभा चुनावों में 100 दिन का समय भी शेष नहीं बचा है।
नीतीश बाबू की पार्टी के भाजपा के नेता प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की निजी लोकप्रियता और राष्ट्रीय सुरक्षा का विमर्श खड़ा होने की वजह से 2019 के लोकसभा चुनावों में 40 में से 16 उम्मीदवार जीते थे जबकि भाजपा के 17 और स्व. पासवान की पार्टी के छह कुल 39 प्रत्याशी जीत गये थे। विपक्षी पार्टी कांग्रेस को केवल एक सीट ही मिली थी। क्या यह समझा जाये की आगामी लोकसभा चुनावों में नीतीश बाबू ने भाजपा की मदद करने के लिए पाला बदल किया है अथवा अपनी पार्टी का वजूद बचाने के लिए? इसका उत्तर तो समय ही देगा।

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