भारत लॉकडाउन के बावजूद अनलॉक हो रहा है। बाजार गुलजार होने लगे हैं। सड़कों पर पहले की तरह भारी ट्रैफिक है। गली-मोहल्लों की दुकानें तो पहले ही खुली हुई थीं, अब शापिंग मॉल भी खोलने की अनुमति दे दी गई। अब सबसे चुनौतीपूर्ण काम है कि स्कूल, कालेज और अन्य शिक्षा संस्थान कब और कैसे खुलेंगे।
स्कूल खोले जाने से सम्बन्धित हर खबर अभिभावकों को डराने लगती है। देशभर में दो लाख से अधिक अभिभावकों ने एक याचिका पर हस्ताक्षर कर केन्द्र सरकार से अनुरोध किया है कि जब तक महामारी का प्रकोप कम न हो जाए या फिर कोई वैक्सीन तैयार न हो जाए तब तक स्कूल न खोले जाएं। भारत सहित पूरी दुनिया में कोरोना वायरस से पैदा हुए हालात के चलते बीते फरवरी-मार्च से स्कूल और कालेज बंद हैं।
अभी तो गर्मियों की छुट्टियां मान कर चला जा रहा है लेकिन 15 जून के बाद भी स्कूल खोलना आसान नहीं होगा। यद्यपि स्कूल खोले जाने को लेकर गाइडलाइन्स तैयार की जा रही है लेकिन दुनिया के कई ऐसे देश हैं जहां महामारी के दौरान स्कूलों को खोल दिया गया। यूरोप में कोरोना महामारी के दौरान सबसे पहले डेन्मार्क ने स्कूल खोले। डेन्मार्क में दो चरणों में स्कूल खोले गए। पहले 15 अप्रैल से पहली से पांचवीं कक्षा तक के स्कूल खोले गए, बाद में छठी से नौवीं कक्षा के लिए स्कूल खोले गए।
स्कूलों में सुबह की प्रार्थना सभा पर रोक लगा दी गई। कक्षाओं में एक डेस्क पर एक ही बच्चे को बैठने की अनुमति दी गई। दो डेस्कों के बीच कम से कम दो मीटर की दूरी रखी गई। छात्रों को स्कूल आते अैर जाते वक्त, खाने से पहले और बाद में हाथ धोने के निर्देश दिए गए। नार्वे में भी स्कूल खुल गए हैं। हर बच्चे की दिन में एक बार थर्मल स्क्रीनिंग की जाती है। फ्रांस में भी 11 मई से किंडरगार्टन और पहली तथा पांचवीं कक्षा तक के स्कूल खोले गए हैं।
हालांकि अनेक महापौरों ने स्कूल खोलने का विरोध किया लेकिन फ्रांस के शिक्षा मंत्री ने तर्क दिया है कि अर्थव्यवस्था को शुरू करने के लिए दस साल के बच्चों की भूमिका अहम है, अगर छोटे बच्चों के लिए स्कूल नहीं खोले गए तो लोग आफिस नहीं जा सकेंगे क्योकि उन्हें घरों में बच्चे सम्भालने पड़ेंगे। एक अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि बच्चों के संक्रमित होने का खतरा काफी कम है। यह भी कहा गया है कि घरों में बंद रहने के चलते बड़ों की तरह छोटे बच्चों के भी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा है।
यूरोपीय देशों ने तमाम चुनौतियों का सामना करने का मन बनाया और सावधानी के साथ स्कूल खोले गए। अब सवाल यह है कि क्या भारत में ऐसा सम्भव है जहां लोग गली-मोहल्लों से लेकर सब्जी मंडियों तक सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर रहे, वहां स्कूल खोलने का जोखिम उठाया जा सकता है। लॉकडाउन से पहले के दृश्य याद कीजिए कि सुबह-सुबह एक रिक्शे पर कितने बच्चे बैठा कर स्कूल ले जाए जाते हैं।
एक-एक वैन में 20-20 बच्चे ढोये जाते हैं। स्कूल से छुट्टी मिलते ही सड़कों पर बच्चों के झुंड के झुंड के खड़े होते हैं। गली-मोहल्लों के सस्ते निजी स्कूल हों या सरकारी स्कूल, कक्षाओं में बच्चे ठूंसे हुए होते हैं। महंगे प्राइवेट स्कूल तो गाइडलाइन्स का अनुसरण कर सकते हैं लेकिन सरकारी स्कूलों में गाइड लाइन का पालन कराना कोई आसान काम नहीं। महानगरों में तो आनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई है लेकिन टाट-पट्टी वाले स्कूलों आैर ग्रामीण क्षेेत्रों के बच्चों ने क्या आनलाइन पढ़ाई नहीं की।
क्या शिक्षक स्कूली बच्चों से वायरस से बचाव के लिए सोशल डिस्टेंसिंग, बार-बार हाथ धुलवाने का पालन करवा पाएंगे। जिस देश में स्कूल के मिड-डे-मील में छिपकलियां मिलने, दाल के नाम पर पानी और नमक के साथ रोटी देने की खबरें आती रही हों वहां कक्षाओं से लेकर शौचालय तक को रोजाना सैनेटाइज किए जाने की कोई उम्मीद करना बेमानी है। कालेजों और उच्च शिक्षा संस्थानों के छात्र परिपक्व होते हैं, वे गाइडलाइन्स का अनुसरण करते हैं लेकिन छोटे बच्चों से कठोर अनुशासन का पालन करवाना सहज नहीं होगा।
इसके लिए अभिभावकों को बड़ी भूमिका निभानी होगी, साथ ही शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन को बच्चों को गाइडलाइन का पालन करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा। दूसरी तरफ कुछ शोधकर्ताओं ने वायरस के कम्युनिटी ट्रांसमीशन होने का निष्कर्ष प्रस्तुत कर भय का माहौल पैदा कर दिया है। सवाल यह भी है कि क्या अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार होंगे।
कोरोना संकट का हमें न केवल आर्थिक मूल्य चुकाना होगा बल्कि शिक्षा को हुए नुक्सान की भरपाई करनी होगी। या तो अभिभावक अपने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा घरों में ही देने की व्यवस्था करेंगे लेकिन जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम नहीं उनके सामने कोई विकल्प नहीं होगा। हो सकता है कि हमें कोरोना के साथ ही जीना पड़े तो फिर हमें हर चुनौती का मुकाबला करने के लिए तैयार रहना होगा।
—आदित्य नारायण चोपड़ा