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पाकिस्तान की सियासी फिज़ा

पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री शहबाज शरीफ के अपने पद से इस्तीफा देने के बाद इस देश में कार्यवाहक प्रधानमन्त्री की खोज अभी चालू है मगर पूरी दुनिया जानती है कि यह काम इस देश की सेना की मर्जी के बगैर नहीं हो सकता

पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री शहबाज शरीफ के अपने पद से इस्तीफा देने के बाद इस देश में कार्यवाहक प्रधानमन्त्री की खोज अभी चालू है मगर पूरी दुनिया जानती है कि यह काम इस देश की सेना की मर्जी के बगैर नहीं हो सकता क्योंकि पूरी दुनिया में पाकिस्तान अकेला ऐसा मुल्क है जहां देश की सेना नहीं होती बल्कि ‘सेना का देश’ होता है। शहबाज शरीफ ने इस्तीफा  पाकिस्तान के संविधान के तहत इस वजह से दिया है क्योंकि इसकी राष्ट्रीय एसेम्बली का कार्यकाल खत्म हो रहा है और अगले चुनाव होने तक मुल्क में निष्पक्ष चुनावों के लिए कार्यवाहक सरकार इस दौरान गठित की जाती है। पाकिस्तान में यह व्यवस्था 1985 से चली आ रही है। हालांकि इसका लोकतन्त्र आधा-अधूरा और सेना की तानाशाही के जेरे साया ही माना जाता है। अब सूरतेहाल हाल यह है कि ऐसा हो सकता है कि मुल्क में चुनाव बजाय अक्तूबर महीने में होने के अगले साल फरवरी- मार्च महीने में हो सकें। यदि ऐसा होता है तो उस दौरान भारत में भी लोकसभा चुनावों का समां बन्ध चुका होगा और उस सूरत में नई दिल्ली व इस्लामाबाद के बीच किस तरह का राब्ता बनेगा जिससे दोनों मुल्क एक-दूसरे की राजनीति को प्रभावित करने वाले कोई काम न कर सकें। 
हालांकि पिछले वक्तों में दोनों मुल्कों के बीच यह अलिखित समझौता रहता था कि एक-दूसरे देश की चुनावी प्रक्रिया शुरू होने पर कोई ऐसी हरकत न की जाये जिससे उनकी सियासत पर असर पड़ सके। मगर 2014 के बाद पाकिस्तान ने यह शालीनता दिखानी बन्द कर दी और ऐसी हरकतें एकाधिक बार कीं जिससे हिन्दोस्तान की सियासत मुत्तासिर हो। इसके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। लेकिन पाकिस्तान में पिछले साल मुस्लिम लीग (नून) पार्टी की जो शहबाज शरीफ सरकार बनी थी वह राष्ट्रीय एसेम्बली में तत्कालीन इमरान खान की सरकार को अविश्वास प्रस्ताव की मार्फत गिरा कर बामुश्किल बनी थी क्योंकि तब के वजीरेआजम इमरान खान ने पूरी एसेम्बली को ही अपनी खानदानी जायदाद समझ लिया था और इसके अध्यक्ष को अपना नौकर जैसा समझ कर सारे लोकतान्त्रिक नियमों को जेब में रख लिया था जिसकी वजह से यहां के सुप्रीम कोर्ट ने आधी रात को अपने दरवाजे खोलकर इमरान खान सरकार को बेदखल किया था। तब इमरान खान को पूरे पाकिस्तान मं‘आइन शिकन’ अर्थात कानून तोड़ने वाला  कहा गया था। 
इन्तेहा तो यह हो गई थी कि नये वजीरे आजम शहबाज शरीफ को पद व गोपनीयता की शपथ दिलाने से किसी और ने नहीं बल्कि राष्ट्रपति ने ही इन्कार कर दिया था क्योंकि वह इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ की मदद से इस पद पर पहुंचे थे। खैर ये पाकिस्तान की अधकचरी जमहूरियत के अन्दरूनी मसले हैं मगर अब हकीकत यह है कि पाकिस्तान में चुनाव होने हैं जो शहबाज शरीफ के इस्तीफे के बाद 90 दिनों के भीतर हो जाने चाहिएं मगर इसमे एक पेंच यह फंस गया है कि यहां की सरकार ने नई डिजिटल रायशुमारी करने का हुक्म दे दिया। 
पिछली रायशुमारी 2017 में हुई थी जिसमें पाकिस्तान की जनसंख्या 21 करोड़ थी। नई रायशुमारी में यह जनसंख्या 24 करोड़ आयी है। कानून यह है कि चुनाव नई रायशुमारी के आंकड़ों के साथ होने चाहिए। यह काम चुनाव क्षेत्रों का नया परिसीमन हुए बिना नहीं हो सकता। यह काम पाकिस्तान का चुनाव आयोग करेगा और इसने कह दिया है कि इस काम में कम से कम 120 दिन लगेंगे। इसलिए चुनावों के अगले साल फरवरी-मार्च में होने का अन्दाजा लगाया जा रहा है। मगर इन चुनावों में साबिक या पूर्व वजीरेआजम इमरान खान भाग नहीं ले सकते हैं क्योंकि अदालत ने उन्हें बहुचर्चित तोशाखाना भ्रष्टाचार मामले में पांच साल की सजा सुना दी है और वह आजकल जेल में हैं। हालांकि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय जाने का रास्ता उनके लिए खुला हुआ है। 
पाकिस्तान में हुकूमत में पाकिस्तानी सेना का दखल इस तरह रहता है कि वह अपने वफादार नेताओं को न केवल प्रधानमन्त्री बनवाती है बल्कि उनकी सियासी जमातों के हक में चुनावों में भी धांधली करा देती है। 2018 में इमरान खान हुकूमत में आये थे तो उन्होंने नारा लगाया था कि ‘बल्ला घुमाओ- भारत हराओ’। तब भी आरोप लगे थे कि इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ के पक्ष में बैलेट पेपरों में हेराफेरी सेना ने कराई है। मगर इमरान खान की सरकार ने ही यह कानून बनाने की कोशिश की थी कि चुनाव ईवीएम मशीनों की मार्फत कराये जाये जिसका बहुत प्रबल विरोध पाकिस्तान की अवाम ने ही किया था। इसी से ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता के बारे में अन्दाजा लगाया जा सकता है। मगर शहबाज शरीफ की सरकार ने एक और कानूनी संशोधन यह किया है कि चुनावी दौर के लिए गठित कार्यवाहक सरकार को पूरे अख्तियार होंगे और वह पाकिस्तान की विदेश नीति से लेकर सभी प्रकार के अहम मामलों में दूरगामी फैसले ले सकेगी। इस वजह से पूरे पाकिस्तान में इस बात को लेकर गहमागहमी बढ़ती जा रही है कि कार्यवाहक प्रधानमन्त्री कौन होगा। इसी वजह से यह मुद्दा भी उठ रहा है कि यदि भारत व पाकिस्तान के राष्ट्रीय चुनाव लगभग साथ- साथ होते हैं तो इसका क्या प्रभाव होगा?
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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