जनसंख्या के मामले में भारत ने चीन को पछाड़ दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले देश का खिताब हासिल कर लिया है। इसके लिए मैं देशवासियों को बधाई दूं या फिर इसकी आलोचना करूं। यह एक ज्वलंत प्रश्न है। संयुक्त राष्ट्र की द स्टेट ऑफ वर्ल्ड पापुलेशन रिपोर्ट 2023 में आंकड़े दिए गए हैं कि भारत की जनसंख्या 142 करोड़ 86 लाख है, जबकि चीन की जनसंख्या 142 करोड़ 57 लाख है। हालांकि यह आंकड़े भारत सरकार के नहीं हैं। क्योंकि कोरोना महामारी के चलते इस बार जनगणना नहीं हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत इस समय युवाओं का देश है और युवा आबादी देश की शक्ति है लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत इतनी बड़ी आबादी के बोझ को झेल पाएगा। जनसंख्या विस्फोट की स्थिति किसी भी देश के विकास में बाधक होती है। यह एक इस तरह की वृद्धि है जिस पर विकासशील देशों को गर्व करने की बजाय शर्म आती है। इसके विपरीत दुनिया में जापान, रूस, फ्रांस जैसे विकसित देश भी हैं जहां कि जनसंख्या वृद्धि नाकारात्मक दौर में पहुंच गई है। इन देशों को अपने नागरिकों से आग्रह करना पड़ रहा है कि वह आबादी को बढ़ाएं।
कुछ देशों में सरकारों द्वारा एक से अधिक बच्चे पैदा करने पर पैसा भी दिया जाता है। चीन की आबादी पिछले साल ही अपने चरम पर पहुंच कर गिरने लगी है और चीन की जनसंख्या में गिरावट का सिलसिला आने वाले दिनों में भी जारी रहेगा। जबकि भारत में जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ रही है। चीन की जनसंख्या का घटना एक महत्वपूर्ण संकेत है। उसने जनसंख्या नियंत्रण के लिए बहुत कड़ाई के साथ काम किया है। चीन में काफी पहले से ही एक संतान की नीति लागू कर दी थी जबकि भारत इस मामले में अब तक काफी उदारता बरतता आ रहा है। यदि इतिहास का विश्लेषण किया जाए तो समझा जा सकता है कि भारत की आजादी के समकाल से ही पुनर्निर्माण में जुटे हमारे पड़ोसी मुल्क चीन, जापान आदि प्रगति में हमारे देश से इसलिए भी आगे हो गए हैं क्योंकि उन्होंने अपने देश की जनसंख्या को नियंत्रित रखने का प्रयास किया है। चाहे तो अपने देश के नागरिकों के मानसिक दृष्टिकोण को दुरुस्त करने के प्रयास द्वारा या फिर सीमित बच्चे अपनाने के लिए सरकारी प्रोत्साहन योजनाएं चलाने के द्वारा। आश्चर्य की बात तो यह है कि वर्तमान समय में आर्थिक दुर्व्यवस्था से जूझ रहे पाकिस्तान को भी अब जनसंख्या नियंत्रण की सुधि आने लगी है और वह भी अब यह मानने लगा है कि उनके यहां आर्थिक अव्यवस्था का प्रमुख कारण देश की तेजी से बढ़ रही जनसंख्या ही है।
2011 की जनगणना में पिछले दशक के मुकाबले आबादी की बढ़ौतरी में गिरावट देखी गई थी जिससे आस बंधी थी कि आने वाले वर्षों में जनसंख्या वृद्धि दर को काबू में किया जा सकेगा लेकिन संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। दुनियाभर में इस विषय पर गहनता से चिंतन हो रहा है कि जनसंख्या संसाधन है या समस्या।
भारत के संदर्भ में यह बहुत ही गम्भीर विषय है। भारत में जनसंख्या को धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाता है। मुस्लिम धर्म के अनुयाइयों ने तो जनसंख्या घटाने के प्रयासों को इस्लाम की उस मान्यता के विपरीत माना जिसमें बच्चों को खुदा की देन समझा जाता है। हालांकि बहुसंख्यक हिन्दुओं ने परिवार नियोजन को स्वेच्छा से अपना लिया है लेकिन निरक्षर और कुछ अन्य वर्गों में परिवार नियोजन को लेकर अभी भी जागरूकता नहीं आई है। देश में बढ़ती आबादी के चलते हमारे सीमित संसाधनों पर भार बढ़ने लगा है और सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। बढ़ती आबादी के बोझ के मुकाबले हम रोजगार पैदा करने में विफल रहे हैं जिससे युवाओं में आक्रोश है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध न होने के चलते शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है जिससे शहर बेहद विकृत होते जा रहे हैं। महानगर और शहर स्लम बस्तियों में तब्दील होते जा रहे हैं। बीमारियों का बोझ बढ़ रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने की नौबत आ आ गई है। न तो हम लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं दे पा रहे हैं और न ही रोजगार। जब हम विदेशों की तरफ देखते हैं तो उनका वैज्ञानिक शोध, कृषि उत्पादन, पर्यावरण संरक्षण, शक्तिशाली सैन्य बल, स्वास्थ्य सुविधाएं, व्यवस्थित यातायात, बढि़या पुलिसिंग देखकर प्रभावित होते हैं।
अगर भारत की आबादी इस तरह बढ़ती रही तो देश की सारी प्रगति और समृद्धि अर्थहीन हो जाएगी। बढ़ती आबादी अगर व्यवस्थित नहीं है तो उस देश में संसाधनों की लूट जैसी समस्याएं और खाद्यान्न संकट पैदा हो जाते हैं। अगर परिवार छोटा होगा तो अभिभावक अपने बच्चों को अच्छी तरह से शिक्षित कर सकते हैं। भारत के बेहतर भविष्य के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए इसे कानून के दायरे में लाया जाए। सरकार और देश के नागरिकों को इस दिशा में जागरूक होकर सोचना होगा क्योंकि कोई भी धर्म राष्ट्रधर्म से बड़ा नहीं हो सकता।