चांद पर भारत का प्रज्ञान (रोवर) सैर कर रहा है और लगातार चांद की नई तस्वीरें आ रही हैं। भारत ने अंतरिक्ष में तो धूम मचा दी है और इधर भारत के छोटी उम्र के प्रज्ञानानंदा ने सबसे कम आयु में शतरंज विश्व कप का उपविजेता बनकर धूम मचा दी है। यद्यपि प्रज्ञानानंदा दुनिया के नम्बर वन खिलाड़ी कार्लसन को हरा नहीं पाए लेकिन उन्होंने उसके पसीने छुड़ा दिए। प्रज्ञानानंदा को टाईब्रेकर में ही हार मिली। आज हर कोई कह रहा है वाह उस्ताद वाह। पहले तो 18 साल के प्रज्ञानानंदा का शतरंज विश्व कप के फाइनल में पहुंचना ही बहुत बड़ी उपलब्धि है। कहते हैं हर सफल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है। प्रज्ञानानंदा की सफलता के पीछे उनकी मां और बहन का बड़ा हाथ रहा है। मां नागलक्ष्मी और बहन वैशाली का सारा जोर प्रज्ञानानंदा को विश्व ग्रैंड मास्टर बनाने पर रहा। बहन वैशाली ने ही उसकी कार्टून की लत छुड़वाने के लिए उसे शतरंज खेलना सिखाया था। अब प्रज्ञानानंदा भारतीय शतरंज का भविष्य माना जा रहा है।
प्रज्ञानानंदा की मां ने उन्हें खेलने-कूदने की उम्र में शतरंज की दुनिया का बादशाह बना दिया। मां के सपनों को पूरा करने के लिए वह भी 64 मोहरों वाले इस खेल के चाणक्य बन गए। नागलक्ष्मी हर मैच में बेटे के साथ होती है। वो अपने बेटे के हर मैच में एक कोने पर बैठकर प्रार्थना करती है। फिर चाहे वो मैच अन्तर्राष्ट्रीय लेवल का हो या फिर राष्ट्रीय लेवल का, वो बस बैठकर प्रार्थना करती हैं। एक पुराने इंटरव्यू में नागलक्ष्मी कहती हैं कि, प्रज्ञानानंदा के खेलने वाले अखाड़े इतने शांत होते हैं कि मैं हमेशा डरती हूं कि कहीं लोग मेरी धड़कनों की आवाज सुन ना लें। मैं अपने बेटे से किसी भी गेम के दौरान आंखें नहीं मिलाती, क्योंकि वो नहीं चाहती है कि उनका बेटा जाने कि वह क्या महसूस कर रहा है। हालांकि, नागलक्ष्मी को पता होता है कि उनका बेटा कब परेशान है और कब आत्मविश्वास से भरा हुआ है।
शतरंज विश्व कप में कई युवा खिलाड़ियों के प्रदर्शन से संकेत मिलता है कि उनमें दुनिया के श्रेष्ठ खिलाडि़यों को पराजित करने की क्षमता है। प्रज्ञानानंदा की सफलता की कहानी से यह भी संदेश मिलता है कि अगर परिवार चाहे तो बच्चों को बेहतर ढंग से समझाकर उन्हें प्रतिभाशाली बना सकता है। छोटे बच्चे गीली माटी के समान होते हैं और अभिभावकों को एक कुम्हार की तरह उनका सृजन करना पड़ता है। लॉन टेनिस के प्रतिष्ठित ग्रैंडस्लैम टूर्नामैंट विंबलडन की शैली में आयोजित इस विश्वकप में चार भारतीय अंतिम आठ खिलाड़ियों में स्थान बनाने में कामयाब रहे।
प्रज्ञानानंदा ने अंतिम आठ के दौर में एक जबरदस्त मुकाबले में एक अन्य भारतीय अर्जुन एरिगेसी को पराजित किया था। उधर एक अन्य भारतीय डोम्मराजू गुकेश कार्लसन से हारे तथा विदित गुजराती ने बाहर होने से पहले विश्व के पांचवीं वरीयता वाले खिलाड़ी को परास्त किया। यह प्रदर्शन संयोगवश नहीं हुआ। भारत ने शतरंज के खेल के लिए एक पूरी व्यवस्था बनाई है जिसके अंतर्गत चैंपियन खिलाड़ियों की पहचान की जाती है और उन्हें तैयार किया जाता है। इसके पीछे कई कारकों का मिश्रण उत्तरदायी है। उदाहरण के लिए, भारत में बहुत बड़ी तादाद में नियमित रूप से शतरंज खेलने वाले खिलाड़ी हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। स्थानीय स्तर पर शतरंज की कई प्रतियोगिताएं होती हैं जो उन्हें अपना कौशल सुधारने का मौका देती हैं।
यह बात भी काफी सहायक सिद्ध हुई है कि इस खेल की डिजिटल छाप बहुत शक्तिशाली रही है। कोरोना महामारी के दौरान ऑनलाइन खेल शुरू हुए तो युवाओं ने घर बैठे-बैठे स्मार्ट फोन के जरिये शतरंज का खेल खेला। लॉकडाउन के दौरान छोटे-छोटे शहरों के खिलाड़ियों ने भी शतरंज के माहिर खिलाड़ियों के साथ खेला और उन्हें अच्छे खासे अनुभव प्राप्त हुए। भारत में भी अच्छे शतरंज के कोच हैं। अगर इन प्रतिभाओं को अच्छी कोचिंग मिले तो वह भारत का नाम रोशन कर सकते हैं। अन्य खेल संघों की तरह अखिल भारतीय शतरंज महासंघ भी कानूनी मामलों में उलझता रहा है। दुख की बात यह है क भारतीय कुश्ती महासंघ को यूडब्ल्यूडब्ल्यू ने निलम्बित कर दिया है और भारतीय पहलवान तिरंगे के नीचे नहीं खेल पाएंगे। जरूरी है खेलों के लिए उचित माहौल बनाना और भारतीय प्रज्ञा का सम्मान करना। फिलहाल छोटे उस्तादों की सफलता को सलाम !
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com