चित्ताैड़ की महारानी पद्मावती को लेकर बनी फिल्म पर जो अनावश्यक विवाद पैदा किया जा रहा है उसके पीछे सांस्कृतिक चिन्ता कम और राजनीतिक चिन्ता ज्यादा नजर आ रही है। चित्ताैड़ उन्हीं महाराणा प्रताप की रियासत की राजधानी थी जिन्होंने मुगलों की दासता स्वीकार न करने का प्रण लेकर हल्दी घाटी के मैदान में मुगल बादशाह अकबर की सेनाओं से युद्ध लड़ा था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना का सिपहसालार एक मुसलमान पठान लड़ाका हाकिम खां सूर था। जिन लोगों ने इतिहास पढ़ा है वे अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में विदेशी सुल्तानों के आक्रमण की असली वजह यहां की देशी रियासतों के राजाओं की आपसी लड़ाइयां प्रमुख थी। इस अन्तर्कलह का लाभ ही भारत में सुल्तानी शासन की शुरूआत की वजह बना था। यही वजह थी कि बाबर को भारत में बुलाने का श्रेय भी इसी चित्ताैड़ के राणा सांगा को जाता है जिन्होंने इब्राहिम लोदी का मुकाबला करने के लिए उसे भारत में आमन्त्रित किया था।
अकबर के शासन से भी ढाई सौ वर्ष पहले भारत में खिलजी वंश का सिक्का चला और उसने चित्ताैड़ को अपने आधीन करने के लिए चढ़ाई कर दी थी। यह एेतिहासिक सत्य है कि अलाउद्दीन खिलजी बहुत क्रूर और कामी शासक था। उसने चित्ताैड़ के राणा रतन सिंह की पटरानी पद्मावती की सुन्दरता के बारे में बहुत से किस्से सुने थे। वह छल–बल से चित्ताैड़ रियासत का अधिग्रहण करना चाहता था और रानी पद्मावती को हस्तगत करना चाहता था परन्तु रानी पद्मावती राजपूती आन-बान और शान की धरोहर से बंधी हुई सांस्कारिक महिला थीं। इसके बावजूद वह अपने पति के आग्रह पर दिल्ली के सुल्तान को अपना मुखड़ा एक आइने के जरिये दिखाने पर राजी हो गई थीं। दरअसल यह दो राजाओं के बीच कूटनीतिक युद्ध की शुरूआत थी जिसका अंजाम फौजी युद्ध में हुआ आैर रानी पद्मावती ने खिलजी की फौज के सामने बेबस होने की जगह स्वयं का जौहर करना बेहतर समझा। उनके साथ अन्य 16 हजार राजपूतानियों ने भी जौहर में हिस्सा लिया। यह आत्म सम्मान की रक्षा का सवाल था क्योकि उस दौर में विजयी सेनाएं हारे हुए राजा की रियासत की महिलाओं को अपनी मिल्कियत मानती थीं और उनके साथ दासों जैसा व्यवहार करती थीं मगर इसमें जो लोग साम्प्रदायिक तत्वों को खोज रहे हैं वे एेतिहासिक गलती पर हैं क्योंकि मध्यकाल में भारत में मुसलमान शासकों का धर्म अलग था और वे अपनी हुकूमत का रुआब गालिब करने के लिए जीती हुई रियासत की रियाया के धर्म को निशाना बनाकर अपने हुक्काम होने का सबूत छोड़ते थे।
यह मध्यकाल की सियासी मानसिकता थी मगर मौजूदा सवाल यह है कि जिस पद्मावती फिल्म को सैंसर बोर्ड ने हरी झंडी दे दी है, सर्वोच्च न्यायालय ने भी आज इस फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने से साफ इंकार कर दिया, क्या इसे कुछ लोग सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर केवल इसलिए रोक सकते हैं कि सपने में अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मावती का नृत्य देख रहा है और उस पर मोहित हो रहा हैै। बेशक यह एेेतिहासिक तथ्य नहीं है मगर फिल्म में एेसे दृश्यांकन अक्सर होते हैं। रानी पद्मावती की सुन्दरता के फिल्मी सम्मोहन को पर्दे पर उतारना भी एक पक्ष हो सकता है? जिन्होंने शाहरुख खान अभिनीत ‘अशोक’ फिल्म देखी है उसमें भी भारत के इस महान सम्राट की प्रेम लीला का मनमोहक तरीके से वर्णन किया गया है मगर पद्मावती फिल्म पर कुछ लोग राजनीति करना चाहते हैं और इसे हिन्दू विरोधी बताने तक से गुरेज नहीं कर रहे हैं। यदि उनका तर्क मान लिया जाए तो भारत का इतिहास ही बदल देना चाहिए और लिख देना चाहिए कि इस देश में कभी कोई उथल–पुथल हुई ही नहीं।
हम भूल जाते हैं कि जय और पराजय पाने वालों की मानसिकता में जमीन–आसमान का अन्तर होता है और वह भी मध्यकाल के सामन्ती दौर में जबकि रियासत की प्रजा को राजा या सुल्तान अपनी जागीर मानकर चलते थे। यह विरोधाभास नहीं है कि जब 1740 के करीब भरतपुर के महाराजा सूरजमल ने आगरा और दिल्ली को लूटा था तो उन्होंने ताजमहल में भुस भरवा दिया था और जहांगीर की बेगम नूरजहां की कब्र पर गड़े पत्थर को भी वह उखाड़ कर ले आये थे। नूरजहां का यह संगमरमरी कब्र का सबूत अभी तक राजा सूरजमल की राजधानी रहे ‘डीग’ कस्बे के महल में रखा हुआ है। इसमें साम्प्रदायिकता ढूंढना मूर्खता है क्योंकि महाराजा सूरजमल एक जीती हुई रियासत को बेदम कर देना चाहते थे। ये दलीलें देना कि पद्मावती फिल्म में एक रानी को वह ‘घूमर’ नृत्य करते दिखाया गया है जो केवल महलों की नृत्यांगनाएं ही करती थीं, पूरी तरह उसी 13वीं सदी की सोच है जिस सदी में पद्मावती का अस्तित्व था। आज के दौर में क्या किसी अलाउद्दीन खिलजी की स्वतन्त्र भारत में कल्पना की जा सकती है? एेसे व्यक्ति को किसी गांव की महिला तक कानून के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर सकती है मगर गड़े मुर्दे उखाड़ कर राजनीति करने में क्या जाता है? हकीकत यह है कि इस प्रकार की राजनीति केवल वे लोग ही करते हैं जिनके पास समाज व आम आदमी के कल्याण के लिए कोई कारगर योजना नहीं होती। यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि भारत के साहित्य के सिरमौर कहे जाने वाले ‘मुंशी प्रेम चन्द’ ने कहा था।
इसे पढि़ये और गुनिये- ‘‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है, उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है। इसलिए वह उस गधे की भांति है जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता है।’’ हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहते हैं और मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी–अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं मगर यह भूल गए हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है और न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति, संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग हैं लेकिन वहां भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग–रागनियां दोनों गाते हैं और मुगलकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्यकला पहले मुसलमानों में न रही हो मगर आज इस क्षेत्र में भी हम मुसलमानों को उसी तरह पाते हैं जिस तरह हिन्दुओं को। फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना जोर बांध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड। इन संस्थाओं को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं , उनके पास एेसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें।