जान है तो जहान है, कोरोना वायरस के चलते भारत समेत पूरी दुनिया जिस संकट से गुजर रही है उसमें यह मुहावरा सही भी है। जान से बढ़ कर कोई चीज नहीं। नागरिकों का अच्छा स्वास्थ्य किसी भी राष्ट्र की बुनियाद होता है। हमारे संविधान में स्वास्थ्य के अधिकार को मूलभूत अधिकार करार दिया गया है। कोरोना संकट के चलते यह महसूस किया जा रहा है कि देश के हैल्थ सैक्टर को अधिक महत्व दिया जाता तो हमें खड़े पांव सब कुछ नहीं करना पड़ता। कोरोना संकट के चलते सरकारी अस्पतालों में अव्यवस्था किसी से छिपी नहीं है। कोरोना से मरे लोगों के शव उसी वार्ड में पड़े देखे गए, जहां मरीजों का इलाज हो रहा है। ऐसे वीडियो भी वायरल हो रहे हैं। यह अपने आप में अमानवीय है और सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा को ही दिखाते हैं। भारत उन देशों में से है जो स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का महज 1.3 फीसद खर्च करता है। जबकि इस मद में ब्राजील लगभग 8.2 फीसदी, रूस 7.1 फीसदी और दक्षिण अफ्रीका 8.8 फीसदी खर्च करता है। दक्षेस देशों में अफगानिस्तान 8.2 फीसदी, मालदीव 13.7 फीसदी और नेपाल 5.8 फीसदी खर्च करता है। हैल्थ सैक्टर में कम खर्च के चलते देश में स्वास्थ्य कर्मियों और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर प्रति एक हजार की आबादी पर एक डाक्टर होना चाहिए मगर सात हजार की आबादी पर एक डाक्टर है। देश में लगभग 14-15 लाख डाक्टरों की कमी है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत बहुत बुरी है। देश में जिस ढंग से स्वास्थ्य सेवाओं का बाजारीकरण हुआ है, उससे प्राइवेट अस्पताल तो लूट का अड्डा बन गए हैं।
व्यावसायीकरण के चलते अस्पतालों द्वारा इलाज के लिए मना करने, उपचार में लापरवाही या केवल पैसे ऐंठने के लिए अनावश्यक इलाज के मामले सामने आते रहते हैं। कोरोना महामारी के हमले के दौरान निजी अस्पतालों का व्यवहार नग्न हो चुका है। मरीजों को एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल में धक्के खाने को मजबूर किया जाता है। महामारी के बढ़ते मामलों को देखते हुए दिल्ली सरकार ने प्राइवेट अस्पतालों में 20 फीसदी बैड कोरोना मरीजों के लिए आरक्षित रखने का आदेश जारी किया है। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र को ऐसे प्राइवेट अस्पतालों की पहचान करने को कहा है जहां कोरोना मरीजों का सस्ते में इलाज हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि जिन अस्पतालों को फ्री में या कौड़ियों के दाम जमीन मिली हुई है, उन्हें तो मरीजों का इलाज फ्री में करना चाहिए। याचिकादाता ने कहा है कि जो निजी अस्पताल सरकारी जमीन पर बने हैं या जो चेरिटेबल संस्थान की श्रेणी में आते हैं, सरकार को उनसे कहना चाहिए कि वह फ्री में या बहुत कम रेट पर बिना मुनाफा कमाए इलाज करें।
याचिकादाता के आग्रह पर सुप्रीम कोर्ट ने उचित रवैया अपनाया है। कौड़ियों के दाम जमीन लेने वाली चेरिटेबल संस्थाएं विशुद्ध मुनाफाखोर बन चुकी हैं। प्राइवेट अस्पताल लोगों का आर्थिक शोषण कर रहे हैं।
कोरोना वायरस ने जो हालात पैदा किए हैं, ऐसे मुश्किल भरे हालात तो लोगों ने पहले कभी नहीं देखे। इनमें 1960 के दशक के युद्ध और अकाल, 1980 से 1990 के दशक में साम्प्रदायिक दंगों के बाद के दिन गिने जा सकते हैं। कोरोना संक्रमण के बढ़ते दायरे से देश का सरकारी हैल्थ सैक्टर काफी दबाव में है। सारा जोर कोरोना पर है, इसलिए दूसरे मरीज उपेक्षित हो रहे हैं। राज्य सरकारें नवजात शिशुओं के टीकाकरण में पिछड़ रही हैं। अर्थव्यवस्था की हालत जर्जर हो रही हैै। भारत की काफी आबादी कुपोषण का शिकार है। ऐसी स्थिति में निजी क्षेत्र की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह लोगों का आर्थिक शोषण करने की बजाय लोगों का इलाज कराने में आगे आए। केन्द्र सरकार को भी निजी अस्पतालों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समान नीति बनानी चाहिए। लोगों के लिए ‘राइट टू हैल्थ’ होना ही चाहिए। आने वाला समय चुनौतीपूर्ण है।
इन आशंकाओं से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में कोरोना का दायरा दुनिया के किसी भी देश की तुलना में अधिक हो सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि केन्द्र और राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर काम कर रही हैं, लेकिन भविष्य में हमें हैल्थ सैक्टर को प्राथमिकता देनी होगी ताकि हम किसी भी वायरस से जूझ पाएं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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