भारत के विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा है कि राजद्रोह अपराध से सम्बन्धित भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) को न केवल बरकरार रखा जाना चाहिए बल्कि इसे और सख्त बना दिया जाना चाहिए और सजा का प्रावधान न्यूनतम तीन वर्ष की कैद व अधिकतम उम्रकैद को बढ़ाकर सात साल की सजा व उम्र कैद कर दिया जाना चाहिए। भारत का ताजा इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों ने इस कानून को भारत में अपना राज पुख्ता व चुनौती रहित बनाये रखने की गरज से बनाया था और इसका प्रयोग भारत की आजादी लड़ाई पूर्ण ‘अहिंसक’ तरीके से लड़ने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों के खिलाफ भी मनमाने तरीके से किया था। राजद्रोह की धारा के तहत बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी के खिलाफ भी मुकदमें चले थे। गांधी से लेकर नेहरू व पटेल और न जाने कितने कांग्रेसी नेता केवल अपने-अपने विचारों की अभिव्यक्ति करके 1947 के पहले के भारत के लोगों के दिलों में अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने की अलख जगा रहे थे। स्वतन्त्रता और स्वराज्य की अलख जगाते हुए इन नेताओं ने भारत के लोगों से वादा किया था कि आजाद भारत में प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की न केवल पूर्ण स्वतन्त्रता होगी बल्कि यह उसका मौलिक अधिकार भी होगा। अतः 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए संविधान में अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में शामिल किया गया।
मगर स्वतन्त्र भारत की पूर्ण लोकतान्त्रिक व्यवस्था व प्रणाली विशुद्ध तरीके से अहिंसा मूलक उपायों पर ही निर्भर थी। अतः प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने संविधान निर्माता और अपनी पहली सरकार के कानून मन्त्री डा. भीमराव अम्बेडकर की पूर्ण सहमति से संविधान में पहला संशोधन अनुच्छेद 19 में करते हुए यह नियम बनाया कि भारत में किसी भी व्यक्ति या सामाजिक संगठन या राजनैतिक दल को ‘हिंसक’ विचारों के प्रचार-प्रसार की छूट नहीं होगी। चुनाव प्रणाली से लेकर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों में केवल वे ही व्यक्ति या संगठन भाग ले सकेंगे जो अहिंसा को अपना माध्यम बनायेंगे। नेहरू ने यह संशोधन पहले लोकसभा चुनाव होने से पहले ही कर दिया था और इसके साथ ही उस समय कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लग गया था क्योंकि यह पार्टी सत्ता परिवर्तन के लिए हिंसक उपायों के इस्तेमाल की खुल कर वकालत करती थी।
नेहरू द्वारा किये गये इस पहले संविधान संशोधन की डा. भीमराव अम्बेडकर ने उन्मुक्त प्रशंसा की थी और कहा था कि अभिव्यक्ति या विचारों की स्वतन्त्रता प्रदान करते हुए मैं यह भूल ही गया था कि इसका उपयोग कुछ लोग समाज व देश में विभिन्न वर्गों या समुदायों के बीच हिंसा भड़काने या खून-खराबे के लिए कर सकते हैं अतः श्री नेहरू द्वारा किये गये संशोधन का मैं पूर्ण समर्थन करता हूं। हालांकि उस समय हिन्दू महासभा ने इसका विरोध किया था और इस पार्टी के अध्यक्ष श्री एन.सी. चटर्जी ने पीयूसीएल जैसी नागरिक अधिकार संस्था की मार्फत इस संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। मगर न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया था। इसके बाद से भारत में अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता पर अहिंसक विचारों के प्रतिपादन पर कभी कोई अंकुश नहीं रहा (केवल इमरजेंसी काल को छोड़ कर) परन्तु वर्तमान में विधि आयोग राजद्रोह कानून को लेकर उल्टी चाल चलने की हिदायत दे रहा है और कह रहा है कि इसे और सख्त बना देना चाहिए।
यह संविधान विरोधी राय लगती है क्योंकि लोकतन्त्र में लोग स्वयं ही अपने एक वोट की ताकत से अपने लिए जो सरकार अपने चुने हुए प्रतिनिधियों की मार्फत गठित करते हैं उसके पीछे केवल अहिंसक स्वतन्त्र विचारों की ही ताकत काम करती है। निश्चित रूप से यह काम केवल स्वयं द्वारा स्वयं के लिए गठित सरकारों के कामों की वस्तुगत समालोचना किये बिना नहीं किया जा सकता और किसी भी सरकार को वैकल्पिक विचारों से प्रभावित हुए बिना लोकतन्त्र में नहीं बदला जा सकता। अतः सत्तासीन सरकारों की आलोचना अनुच्छेद 19 के प्रावधानों के तहत खुलकर करने की स्वतन्त्रता प्रत्येक नागरिक को प्राप्त होती है। यह बेमतलब नहीं है कि विगत वर्ष 2022 के मई महीने में सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 124ए को अंसवैधानिक तक की श्रेणी में रखने की राय जाहिर की थी। इस पर केन्द्र सरकार ने कहा था कि वह इस धारा की समीक्षा करने की इच्छा रखती है। इस पर न्यायालय ने राजद्रोह कानून को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। भारतीय दंड संहिता में धारा 153 अपने विभिन्न उपबन्धों के साथ मौजूद है जिसके तहत समाज में बदअमनी व हिंसा फैलाने का प्रयास करने वाले लोगों से आसानी से निपटा जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने तो यह आदेश भी दे रखा है कि राज्य सरकारों की पुलिस एेसा करने वाले लोगों के विरुद्ध संज्ञान लेकर स्वतः कार्रवाई करे परन्तु विधि आयोग के अध्यक्ष ऋतुराज अवस्थी कहते हैं कि राजद्रोह कानून में कोई भी एफआईआर किसी पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा शिकायत की तहकीकात करने के बाद ही दर्ज हो। राजद्रोह तो सत्ता के विरुद्ध होता है और लोकतन्त्र में सत्ता में बदलाव केवल सामान्य मतदाता ही अपने वोट से कर सकता है। जब समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया यह कहा करते थे कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल इंतजार नहीं करती हैं तो क्या वे राजद्रोह के भागी थे ? क्योंकि कायदे से चुनाव तो पांच साल बाद ही होते हैं और लोग अपने वोट से पांच साल के लिए ही सरकारें गठित करती हैं। इसलिए सवाल बहुत बड़ा है जिसका हल इतना साधारण किसी तौर पर नहीं हो सकते।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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