कांग्रेस सांसद शशि थरूर के बयान पर जो हाय-तौबा मच रही है उसका मन्तव्य क्या साम्प्रदायिक आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना है? इस प्रश्न पर गौर करके उसके बाद उनके इस बयान का विश्लेषण करना चाहिए जिसमें उन्होंने यह कहा है कि यदि 2019 के चुनावों में पुनः भाजपा पूर्ण बहुमत में आ गई तो भारत ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बन जाएगा और भारतीय संविधान को बदल कर हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को साकार करने की कोशिश होगी व अल्पसंख्यक नागरिकों का दर्जा बराबरी का नहीं होगा। बेशक यह पूरी तरह से राजनीतिक बयान है जिसका लाभ लेने की भाजपा कोशिश न करे एेसा संभव नहीं है मगर इससे कांग्रेस को कितना लाभ होगा, यह विचारणीय मुद्दा है ? हर भारतवासी जानता है कि भाजपा हिन्दुत्व के मुद्दे को अपनी राजनीति का प्रमुख अंग मानती है और कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता को परन्तु 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी और भाजपा में इस मामले में अन्तर कम हुआ है। इसका उदाहरण गुजरात व कर्नाटक में हुए चुनाव हैं जिनके दौरान श्री राहुल गांधी ने मन्दिरों व अन्य धर्मस्थानों की खूब सैर की। यह कदम सुविचारित था क्योंकि तब दिल्ली में बैठे कांग्रेस के प्रवक्ता ने यह तक कह डाला कि राहुल गांघी तो ‘शिवभक्त जनेऊधारी’ हिन्दू हैं।
यह कथन एेलान कर गया कि कांग्रेस ने भाजपा के राजनीतिक दर्शन के समक्ष आत्मसमर्पण करने का मन बना लिया वरना राहुल गांधी गुजरात में जिस तरह राष्ट्रीय से लेकर सामाजिक व आर्थिक मुद्दे उठाकर मतदाताओं को लुभा रहे थे उसमें मजहब की चाशनी मिलाने की कोई जरूरत नहीं थी। कांग्रेस की पहचान ही यही थी कि वह राजनीति से मजहब को दूर रखने वाली पार्टी है। उसकी आम भारतीय में विश्वसनीयता का यह सबसे बड़ा आधार रहा था। भारतीय राजनीति के इतिहास का हर विद्यार्थी तक यह जानता है कि भाजपा का विस्तार अयोध्या में श्रीराम मन्दिर आन्दोलन की वजह से हुआ है। इस आन्दोलन को चलाकर भाजपा ने धर्मनिरपेक्ष समझे जाने वाले हिन्दू मतदाताओं का भी भावुक समर्थन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। आजाद भारत में यह उस हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रबल वेग था जिसके आधार पर 1951 में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी मगर राम मन्दिर आन्दोलन से पहले तक जनसंघ से भाजपा में बदली इस पार्टी की ताकत कभी इतनी नहीं हो पाई कि वह उत्तर भारत के किसी भी राज्य में अपने बूते पर ही अपनी सरकार बना सके।
1977 में इमरजैंसी के बाद हिमाचल और मध्यप्रदेश में जनता पार्टी के छाते के नीचे जनसंघ के मुख्यमन्त्री जरूर बने मगर उनके साथ जनता पार्टी में विलयित अन्य दलों की ताकत भी थी मगर 1990 के बाद श्रीराम मन्दिर आन्दोलन के उभार के बाद उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में भाजपा की सरकारें अपने बूते पर ही बनने लगी थीं। अतः भाजपा से हिन्दुत्व के मोर्चे पर कांग्रेस द्वारा लोहा लेना स्वयं को जख्मी करने के अलावा और क्या कहा जा सकता है? यह हकीकत है कि दिसम्बर 1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचा ढहाये जाने के बाद इस देश की राजनीति की दिशा बदल गई और हिन्दुत्व का विचार केन्द्र में लगातार आता चला गया जिससे इस समुदाय के मतदाताओं का ध्रुवीकरण तेज होता चला गया और 1998 व 1999 के चुनावों में भाजपा नीत अटल बिहारी वाजपेयी सरकार काबिज हो गई मगर 2004 तक यह सरकार भी हिन्दुत्व की कमाई ही खाती रही।
उस समय गृहमन्त्री लालकृष्ण अडवानी इस हिन्दुत्व का झंडा उठाए हुए थे और संसद से लेकर सड़क तक साधू सम्मेलनों और धर्म संसदों की गूंज होती रहती थी मगर 2004 में कांग्रेस पार्टी ने वाजपेयी सरकार द्वारा आर्थिक मोर्चे पर की गई बद इन्तजामियों को मुद्दा बनाकर भाजपा से थोड़ी सी ही बढ़त प्राप्त कर ली और अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई जिसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में अन्य वामदलों ने बाहर से समर्थन दिया। 2004 से 2009 तक राष्ट्रीय राजनीति का कलेवर बदला और हर गली-चौराहे पर ‘अमेरिका से भारत के परमाणु करार’ की बात होने लगी। इन पांच सालों में आर्थिक व सामाजिक मोर्चे पर उठने वाले विभिन्न मुद्दों की ही चर्चा होती रही और 2009 में कांग्रेस को शानदार सफलता मिली और उसकी दो सौ से ज्यादा सीटें लोकसभा में आ गईं। यही कांग्रेस की असली ताकत थी और उसकी विचारधारा की जीत थी मगर 2014 के आते-आते जिस प्रकार पुनः अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक का मुद्दा उछलना शुरू हुआ और डा. मनमोहन सिंह यह कह बैठे कि राष्ट्रीय स्रोतों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का होता है और दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी के नेता लगातार यह शोर मचाते रहे कि ‘किसान और मुसलमान’ सबसे ज्यादा परेशान हैं, उनके उत्थान के लिए सरकार को नीतियां बनानी चाहिएं तथा भ्रष्टाचार के मामले सरकार विरोधी वातावरण तैयार करने लगे तो भाजपा ने इसे नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी बनाकर सुनहरे अवसर में बदल डाला। देश की जनता ने पूर्ण समर्थन उन्हें दिया जिससे चमत्कारिक चुनाव परिणाम इस तरह आए कि भाजपा के नेताओं की अपेक्षा से भी ऊपर उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया।
सबसे पहले मार्क्सवादी पार्टी के नेता श्री सीताराम येचुरी ने हिन्दू पाकिस्तान का शब्द उछाला था। उन्होंने केन्द्रीय राज्यमन्त्री अन्नत कुमार हेगड़े द्वारा भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए इसका संविधान बदलने के वक्तव्य के बाद इस शब्द का प्रयोग किया था। उस सन्दर्भ में इस शब्द का प्रयोग किया जाना गलत भी नहीं था क्योंकि पाकिस्तान एक मजहबी कानून पर चलने वाला देश है और वहां कट्टरपंथी तत्व तालिबानी हुक्म जारी करके आम लोगों की जीवनशैली को अपने ढंग से बदलने के लिए फतवे जारी करते हैं मगर भारत जैसे देश में जो संगठन एेसा करना चाहते हैं वे भारत को बांटना ही चाहते हैं। उनका लक्ष्य राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना नहीं होता। क्या कभी सोचा जा सकता था कि कोई केन्द्रीय मन्त्री गोमांस रखने के सन्देह में किसी मुस्लिम नागरिक की सरेआम हत्या करने वाले अपराधियों को अपने घर बुलाकर सम्मानित करेगा।
दरअसल भारत में मुसलमानों का सबसे बड़ा संरक्षक हिन्दू समाज स्वयं है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश का कैराना है जहां हिन्दू-मुसलमान फिर से खुद ही गले मिल गए हैं। मजहबी जुनून हिन्दोस्तान की सियासत में असर तो डालता रहा है मगर इसकी तिजारत करने वालों को पहचानने में भी उसे देर नहीं लगती। अतः जरूरी है कि हम नाजायज मुल्क पाकिस्तान की अवाम की उन तकलीफों के बारे में बताएं जो बंटवारे के बाद इसके हुक्मरानों ने उनकी किस्मत में लिख दी हैं। शशि थरूर को सलाह है कि वह पं. नेहरू के उस वक्तव्य को एक बार जरूर पढ़ें जो उन्होंने 17 जुलाई 1945 को पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष मियां इफ्तिखारुद्दीन के घर पर आयोजित प्रेस कांफ्रैंस में दिया था तब तक पाकिस्तान तामीर भी नहीं हुआ था।