जिस देश में रेलवे की 90 हजार नौकरियों के लिए दो करोड़ 37 लाख अभ्यर्थियों के प्रार्थना पत्र आते हों उस देश के आर्थिक विकास के दावों की असलियत को समझने में किसी सामान्य नागरिक को भी ज्यादा दिमाग लड़ाना नहीं पड़ेगा। यह भी समझने में किसी प्रकार की गफलत नहीं होनी चाहिए कि यदि भारत की कुल सम्पत्ति में से 73 प्रतिशत सम्पत्ति पर केवल एक प्रतिशत धनाढ्य समझे जाने वाले लोगों का कब्जा है तो 99 प्रतिशत लोगों के हाथों में केवल 27 प्रतिशत सम्पत्ति का कितना अंश गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के पास होगा? हकीकत यह है कि पिछले 20 वर्षों से रेलवे में खाली पदों पर भर्ती न के बराबर हो रही है और ज्यादा से ज्यादा कोशिश ठेके पर काम देकर खानापूरी करने की हो रही है। रेलवे कोई तिजारती कम्पनी नहीं है कि इसे मुनाफा कमाने की कम्पनी की तरह देखा जाए। यह भारत के उन्हीं 99 प्रतिशत लोगों को देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जोड़ने वाली जीवन रेखा है जिनके पास देश की केवल 27 प्रतिशत सम्पत्ति है। कोई भी सरकार इन लोगों की कीमत पर रेलवे को मुनाफा कमाने की मशीन इस तरह नहीं बना सकती कि इसमें रोजगार के अवसरों को ही कांट-छांट कर दस गुना कम कर दिया जाए।
रेलवे में सबसे अधिक नौकरियां तीसरे व चौथे वर्ग के कर्मचारियों की होती हैं। साधारण परिवारों के छात्र इन्हें पाकर संतोष करते रहते थे। जो गरीब परिवारों के मेहनती व कम पढे़-लिखे बच्चे होते थे वे चतुर्थ श्रेणी वर्ग की नौकरियां पाकर अपने मां-बाप का जीवन सफल बना देते थे और मध्यम परिवारों के मेधावी छात्र तृतीय श्रेणी की नौकरी पाकर सन्तोष कर लेते थे मगर आर्थिक उदारीकरण व निजीकरण के नाम पर रेलवे को अधिकाधिक सुविधाजनक बनाने का मिथ्या विचार पनपा कर इसे मुनाफे में चलाने का जो शगूफा फैलाया गया उससे इसमें रोजगार के अवसरों को लगातार कम करने की साजिश की गई और अब हालत यह है कि कुल दस लाख से भी अधिक रिक्तियों को अधिकाधिक ठेकेदारों के खाते में डाल कर केवल डेढ़ लाख से अधिक रिक्तियों को भरने की रेलवे ने योजना बनाई है उनमें से आधी इस वर्ष भरी जाएंगी जिनके लिए सरकारी विज्ञापन निकाले जा रहे हैं। हमने जब यह समझ लिया कि रेलवे का अलग से बजट समाप्त करके इसे वार्षिक बजट में मिलाने भर से इसका कायाकल्प हो जायेगा तो यह मान लिया कि रेलवे की विशिष्ट भूमिका का नई आर्थिक व्यवस्था में कोई महत्व नहीं है जबकि हकीकत यह है कि रेलवे यातायात का गरीब व सामान्य आदमी के लिए एकमात्र साधन है। इनमें कुछ एेसे भी होते हैं जो बस तक से सफर करने में आर्थिक दिक्कत महसूस करते हैं।
बस के सफर की कीमत सीधे डीजल के मूल्य से बन्धी होती है इसलिए देश की विभिन्न राज्य सरकारें रोडवेज का भी अंधाधुंध निजीकरण करने के रास्ते पर दौड़ रही हैैं। एेसे वातावरण में हम किस आधार पर रेलवे को भी इसी रास्ते पर ले जाकर मुनाफा कमाने की वह शेखी बघार सकते हैं जिसमें गरीब आदमी की चीखें शामिल हों। सरकारें वणिक वृत्ति से नहीं चला करती हैं बल्कि जनता की सेवा करने के भाव से चला करती हैं। उन्हें यह देखना होता है कि उनकी नीतियां एेसी हों जिससे राष्ट्रीय सम्पत्ति का गरीब आदमी के हक में अधिकाधिक बंटवारा हो मगर जब लगातार एक प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति बढ़ती जाएगी और 99 प्रतिशत की घटती जाएगी तो किस प्रकार रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और किस प्रकार आम आदमी की आर्थिक शक्ति में सुधार होगा। 2014 में इन्हीं एक प्रतिशत लोगों के हाथ में सकल राष्ट्रीय सम्पत्ति का केवल 47 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 73 प्रतिशत हो गया है तो इसका मतलब एक ही निकलता है कि निजी क्षेत्र में रोजगार देने के साधन केवल एक प्रतिशत लोगों के हाथ में ही हैं और वे उन क्षेत्रों में पूंजीनिवेश करना पसंद करेंगे जिनमें उच्च टैक्नोलोजी का प्रयोग करके कम से कम लोगों को रोजगार मिले क्योकि इनका उद्देश्य अधिकाधिक मुनाफा कमाना होता है। इसे हम मोटे तौर पर संगठित क्षेत्र भी कह सकते हैं। दूसरी तरफ सरकार लगातार संगठित क्षेत्र की सार्वजनिक कम्पनियों को बेचने की मुहिम पर लगी हुई है और इन्हें खरीदने वाले इन्हीं एक प्रतिशत लोगों में से ही हैं।
अतः अच्छी शिक्षा पाने पर मिलने वाले पारंपरिक रोजगार के अवसर लगातार कम होंगे। इनका स्थानापन्न विदेशी कम्पनियों के भारत में खोले गए सेवा क्षेत्रों के केन्द्र अपनी सीमित क्षमता की वजह से कभी नहीं हो सकते। इनमें भी नौकरी की सुरक्षा ठेके की शर्तों पर निर्भर करती है लेकिन विदेशी कम्पनियों के उपभोक्ता बाजार पर कब्जा करने से लेकर सेवा व सहायक क्षेत्रों में घुसपैठ करने की वजह से असंगठित क्षेत्र में पूंजीनिवेश जिस तरह लगातार कम हो रहा है उससे रोजगार के बढ़ने की संभावना दूर-दूर तक नहीं बन सकती। अतः मुद्रा योजना या इस जैसी अन्य योजनाओं के फलीभूत होने की उम्मीद बेकार है। अतः जब त्रिपुरा का युवा नौसिखिया मुख्यमन्त्री यह कहता है कि किसी स्नातक युवक को गाय पाल कर उसका दूध बेच कर कुछ कमाना चाहिए न कि नौकरी की तलाश करने में समय गंवाना चाहिए, तो वह अंजाने में ही भारत के सत्य को उजागर कर देता है और कह देता है कि सरकार तो खुद नौकरियां कम कर रही है। असलियत यह है कि आज इंजीनियरिंग पास करके आम बीए की डिग्री लिए छात्र भी दस-बारह हजार रुपए की नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। इसलिए यह बेवजह नहीं है कि जब उत्तर प्रदेश में चपरासी की चार सौ नौकरियां निकलती हैं तो डेढ़ लाख में से एक लाख से ज्यादा एम.ए., बी.ए. पास छात्र प्रार्थनापत्र भेजते हैं और राजस्थान में तो एक विधायक का पुत्र ही सचिवालय में चपरासी की नौकरी पाने के लिए घपला किए जाने का आरोपी तक बन जाता है। इस स्थिति की तरफ पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने बहुत ही संजीदगी के साथ अपने अन्तिम कार्यकाल वर्ष में बेंगलुरु विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह को सम्बोधित करते हुए चेताया था।
उन्होंने कहा था कि यदि हमने जनसांख्यिकी लाभ (डैमोग्रेफिक डिवीडेंड) को समय रहते सही दिशा में नहीं लगाया तो यह बहुत बड़ी देनदारी या बोझ (लाइबिलिटी) बन जाएगा। प्रणवदा का आशय यही था कि 65 प्रतिशत युवा जनसंख्या वाले देश की इस पीढ़ी को रोजगार के व्यापक साधन सुलभ कराने की कोशिशें पूरी मुस्तैदी के साथ शुरू की जानी चाहिएं मगर हम तो पकौड़े बेच कर रोजगार पाने के गुर बांट रहे हैं और अपनी पीठ थपथपा रहे हैं और एेसे आंकड़े पेश करने से बाज नहीं आ रहे हैं जो किसी जासूसी उपन्यास का हिस्सा नजर आते हों। बेरोजगारी के इस विस्फोट को रोकने का कोई जादुई तरीका निश्चित रूप से नहीं हो सकता है। एक ही तरीका है कि सबसे पहले सरकारी नौकरियों पर पड़े तालों को खोला जाए। पूरे देश में सभी राज्यों में कम से कम पचास लाख से अधिक नौकरियों को जाम कर दिया गया है। इनमें महाराष्ट्र का नम्बर सबसे ऊपर है। यदि सभी राज्यों का ब्यौरा दिया जाए तो मध्य प्रदेश एेसा दूसरा राज्य है जिसमें पिछले 15 साल में सरकारी नौकरी के नाम पर पूरी युवा पीढ़ी को जमकर दिग्भ्रमित किया गया है। उत्तर प्रदेश में तो रोडवेज से लेकर बिजली के दफ्तरों में भर्ती इस तरह बन्द है जैसे किसी बर्फ की दुकान पर गर्मी पड़ने से वह पानी हो जाती है।