लखनऊ की एनआईए, एटीएस कोर्ट ने दस माह पहले गोरखनाथ मंदिर पर हमले के दोषी आतंकी अहमद मुर्तजा अब्बासी को फांसी की सजा सुनाई है। उसने पिछले वर्ष 4 अप्रैल को मंदिर की सुरक्षा में तैनात पीएसी जवानों पर बांका से हमला किया था। उसने एक जवान की राइफल भी छीनने की कोशिश की थी। पीएसी के जवानों ने साहस का परिचय देते हुए उसे मौके पर ही दबोच लिया था। अदालत ने उसके समक्ष रखे गए साक्ष्यों व गवाहों के आधार पर ही अपने दायित्व का निर्वाह किया है। भारत की न्यायपालिका ने हर स्थिति और कीमत पर इंसाफ का पलड़ा ही झुकाया है। मुर्तजा ने इस्लामिक इस्टेट (आईएस) की विचारधारा से प्रभावित होकर जेहाद की मंशा से भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ देश की एकता और अखंडता को चुनौती देने का काम किया था। अदालत ने सजा में कहा है कि मुर्तजा को तब तक लटकाए रखा जाए जब तक उसकी मौत न हो जाए। मुर्तजा का हमला लोन वुल्फ अटैक शैली का ही माना गया। लोन वुल्फ अटैक आतंकवाद का एक नया चेहरा बनकर उभरा है। दुर्दांत आतंकवादी गिरोह लोन वुल्फ शैली का सहारा लेकर हमले करवाते हैं। मुर्तजा किसी गरीब परिवार का बेटा नहीं है। मुर्तजा गोरखपुर के एक रसूखदार परिवार का इकलौता बेटा है। मुुर्तजा की फैमिली सिविल लाइन्स में रहती है। मुर्तजा ने भी किसी मामूली संस्थान से नहीं, बल्कि आईआईटी मुम्बई से इंजीनियरिंग की है। यहां के स्टूडेंट्स बेहद शॉर्प और होनहार माने जाते हैं। उसके पिता कई बैंकों और मल्टीनेशनल कम्पनियों के लीगल एडवाइजर हैं। चाचा डॉ. के.ए. अब्बासी शहर के एक फेमस डॉक्टर हैं। वह सिविल लाइन पार्क रोड स्थित अब्बासी नर्सिंग होम चलाते हैं। इतना ही नहीं, दादा गोरखपुर के जिला जज भी रह चुके हैं। उसके भाई का नाम शहर के नामी चार्टेड अकाउंटेंट्स में से एक रहा है।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि आईआईटी से इंजीनियरिंग करने वाला मुर्तजा जेहादी कैसे बन गया। उसके आईएस से सम्पर्क कैसे बने। यह धार्मिक कट्टरपंथ ही है जिसने उसे आतंकवादी बना दिया। वह सीरिया जाने की भी फिराक में था। कट्टरपंथी विचारधारा के चलते ही आज युवाओं के दिमाग में जहर भरा जा रहा है। यह लोग जेहाद कर रहे हैं। दूसरे धर्म के लोगों को काफिर बताते हैं। खुद को इस्लाम का पेरोकार बताते हैं। संगीनों की नोक से यह बेगुनाहों के जिस्म पर इस्लाम जिन्दाबाद लिखते हैं। कट्टरपंथी विचारधारा इसलिए बढ़ी क्योंकि लोगों ने धर्मांध होकर इनके खिलाफ आवाज ही नहीं उठाई। लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं। अब समूचा विश्व आतंकवाद का डटकर मुकाबला कर रहा है। कौन नहीं जानता कि कई ऐसे आतंकवादी संगठन हैं जो धर्म के नाम पर बंदूक उठाने के लिए युवाओं को बरगला रहे हैं। अफसोस इस बात का है कि कुछ भारतीय मुस्लिम आतंकवादियों को सजा सुनाए जाने पर इन्हें मजहब के चश्मे से देखते हुए अदालत के फैसलों को साम्प्रदायिक रंग में रंगकर देखने की हिमाकत करते हैं।
सोचने वाली बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष भारत की न्याय प्रणाली भी जब किसी अपराधी को सजा सुनाती है तो वह किसी हिन्दू-मुसलमान को नहीं बल्कि भारत के नागरिक को ही उसकी करनी का फल देती है। न्यायपालिका को देश की राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था से कोई मतलब नहीं होता उसे केवल संविधान और कानून से मतलब होता है। इसकी गिरफ्त में जो भी हिन्दू-मुसलमान फंसता है उसे सजा भुगतनी ही पड़ती है। आतंकवाद का मसला ऐसा है जिस पर भारत की संसद में भी पिछले लगभग दो दशक में कई बार गरमागरम चर्चा और बहस-मुहाबिसे हुए हैं। इससे निपटने के लिए सबसे पहले स्व. नरसिम्हा राव की सरकार में 90 के दशक में ‘टाडा’ कानून आया और बाद में वाजपेयी सरकार के दौरान उनके गृहमंत्री श्री लालकृष्ण अडवानी पोटा कानून लाए। पोटा कानून लाने के लिए श्री अडवानी को बहुत जोर लगाना पड़ा था क्योंकि तब राज्यसभा में भाजपा के पास बहुत कम सांसद थे। अतः उन्होंने संसद का विशेष संयुक्त अधिवेशन (लोकसभा व राज्यसभा) बुलाकर इसे पारित कराया था, परन्तु जब 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में डा. मनमोहन सिंह की सरकार आई तो इस कानून को निरस्त कर दिया गया।
इसके बाद यूएपीए कानून बना। यूएपीए के तहत ही मुर्तजा को सजा सुनाई गई है। अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। इसी तरह आतंकवादी का भी कोई धर्म नहीं होता। हर लोकतांत्रिक देश का धर्म होता है कि वह आतंकवादियों को किसी सूरत में पनपने न दे। इस लिए आतंकवादियों को कड़ी सजा देना जरूरी है। लेकिन असली सवाल उस जहरीली मानसिकता को खत्म करने का है जिसके प्रभाव में पढ़े-लिखे युवा भी आतंकवादी बनते हैं। भारतीय मुस्लिम इस साजिश को समझें और अपने परिवारों को जहरीली मानसिकता से दूर रखने का हर सम्भव प्रयास करें। आतंकवाद के खिलाफ सभी को एकजुट होना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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