उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया है कि इस देश के आम मतदाता में इतनी समझ है कि वह किसी भी राजनैतिक दल के हवाई प्रचार के झांसे में नहीं आता है और अपने मत का इस्तेमाल इस प्रकार करने में सक्षम है कि उसके वोट के बूते पर सत्ता के आसन पर विराजे लोगों को वह आइना दिखा सके। बेशक फूलपुर, गोरखपुर (उ. प्र.) और अररिया (बिहार) के मतदाताओं ने न केवल केन्द्र की भाजपा सरकार के बल्कि इन राज्यों के दोनों मुख्यमन्त्रियों क्रमशः योगी आदित्यनाथ और नीतीश कुमार के हुकूमत के ‘सुरूर’ को भी उतार कर रख दिया है और इस तरह उतारा है कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों की चर्चा से उनका तापमान बढ़ने लगे। ये उपचुनाव साधारण चुनाव नहीं थे क्योंकि गोरखपुर सीट योगी आदित्यनाथ की थी और फूलपुर उपमुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य की।
ये दोनों ही नेता लोकसभा से इस्तीफा देकर राज्य विधान परिषद के सदस्य बने थे। उधर बिहार में ‘अररिया’ सीट पर राष्ट्रीय जनता दल के नेता श्री लालू प्रसाद यादव के निकटतम माने जाने वाले श्री तस्लीमुद्दीन की मृत्यु से यह स्थान रिक्त हुआ था। लालू जी के चारा मामले में जेल चले जाने के बाद उनकी अनुपस्थिति में यह मतदान हुआ और उनके पुत्र तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी की कमान संभाल कर अपने प्रत्याशी सरफराज आलम को यह चुनाव लड़ाया और इस चुनौती के साथ लड़ाया कि उनके पूरे परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाली भाजपा जमीन पर लालू जी की ताकत का नजारा करे।
चुनौती छोटी-मोटी नहीं थी क्योंकि पिछले राज्य विधानसभा चुनावों में लालू जी का कन्धा पकड़ कर मुख्यमन्त्री की गद्दी पर बैठने वाले नीतीश बाबू ने लालू जी का साथ तब छोड़ा जब उनके परिवार के हर बेटा-बेटी व पत्नी तक को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेर कर कानून के शिकंजे में कसने की कोशिश की गई। नीतीश बाबू ने 24 घंटे के भीतर ही पाला बदल कर भाजपा से हाथ मिला कर अपनी मुख्यमन्त्री की कुर्सी पुनः प्राप्त कर ली मगर उपचुनाव परिणाम ने सिद्ध कर दिया कि वह जनता की नजर से गिर गये। जहां तक गोरखपुर सीट हारने का सवाल है तो यह इसी शहर के बाबा राघवदास अस्पताल में आक्सीजन की कमी से मरने वाले नवजात शिशुओं के माता-पिता की ‘आह’ का असर है कि इस सीट पर शुरू से ही गोरखनाथ मठ के महन्त का कब्जा होने के अभिमान का मर्दन हुआ है और इस तरह हुआ है कि योगी आदित्यनाथ सोचें कि उनका मुख्यमन्त्री के रूप में सर्वप्रथम कर्तव्य ‘मुठभेड़ों’ को राजनीतिक कलेवर देने का नहीं है बल्कि आम लोगों के लिए स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाएं मुहैया कराना है। वे खुद माहौल का जायजा अपनी अक्ल से निकाल सकते हैं।
जहां तक केशव प्रसाद मौर्य की सीट फूलपुर का प्रश्न है तो यह 2014 में ‘आंधियों के आम’ की तरह उन्हें मिल गई थी वरना कहां फूलपुर और कहां केशव प्रसाद मौर्य। जिस लोकसभा चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कभी पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे राजनेता ने किया हो वहां राजनीति के रसातल में जाने के दौर में ‘एेरे-गैरे-नत्थू खैरे’ प्रत्याशी चुनाव जीत जाते हों तो भारत की नई पीढि़यों को देने के लिए हमारे पास क्या सरमाया बच सकता है? इस पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है। हकीकत यह है कि पूरा देश आज एेसे अंधे कुएं की तरफ चल रहा है जिसमें पड़े हुए जलचरों के चरित्र के बारे में हमें कोई ज्ञान नहीं है। यह स्थिति राजनीतिज्ञों ने ही पैदा की है, अतः स्वयं जनता ने उन्हें राह दिखाने की ठान ली है।
उपचुनाव परिणामों का यदि कोई सन्देश है तो केवल यही है। यह न तो समाजवादी पार्टी-बसपा गठबन्धन की विजय है और न ही अन्य किसी जातिगत गणित की ( जिसकी व्याख्या करने में राजनीतिक पंडित जूझ रहे हैं) बल्कि यह भारत के गांवों और गरीबों की चेतना की जीत है। उनके सामने जो विकल्प था उन्होंने उसे ही विजयी बना कर एेलान किया है कि इस देश की सियासत बड़े-बड़े उद्योगपतियों के भरोसे नहीं बल्कि गांव के गरीब के भरोसे चलेगी। उनके लिए जीडीपी का असली मतलब उनकी नई पीढि़यों को अभिजात्य कहे जाने वाले लोगों की पीढि़यों के बराबर के मूलभूत हक देने का है।
तीन तलाक हो या मदरसों का आधुनिकीकरण, सभी का सम्बन्ध संविधान द्वारा प्रतिष्ठापित नियमों से है। खेतों की उपज का मुद्दा हो या जमीन के मालिकाना हक का, सभी का लेना-देना खैरात में मिले किसी उपहार से नहीं बल्कि संविधान द्वारा दिये गये अधिकार से है। हम न हिन्दू हैं न मुसलमान, सबसे पहले हिन्दोस्तानी हैं और यह मुल्क सभी का एक बराबर है। राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे सबसे पहले यह पढ़ें कि लोकतन्त्र में सरकार मालिक नहीं होती बल्कि वह लोगों की सम्पत्ति की देखभाल करने वाली नौकर होती है और मजदूरी के तौर पर उसके हर मन्त्री को लोगों से वसूले गये करों से ही हर महीने मेहनताना दिया जाता है।
‘बयान बहादुरों’ की फौज इकट्ठा करके लोकतन्त्र में लोगों की समस्याएं हल नहीं हो सकतीं बल्कि वे जमीन पर उतर कर लोगों की तकलीफें दूर करने की स्कीमें लागू करने से ही दूर हो सकती हैं। इतिहास को बदलने की जिद से मुल्क का मिजाज नहीं बदला करता। इस मुल्क का मिजाज यह है कि अगर सियासदां बदलने को तैयार न हों तो सियासत को बदल दो। लोकतन्त्र का मसीहा गांधी बाबा भारतवासियों को यही तो सीख देकर गया है जिसे सुन और पढ़ कर केवल हिन्दोस्तान ही नहीं बल्कि एशियाभर के मुल्क भी बदले हैं।