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जज की नियुक्ति पर विवाद

एडवोकेट एल.सी. विक्टोरिया गौरी मद्रास हाईकोर्ट की जज बन ही गई।

एडवोकेट एल.सी. विक्टोरिया गौरी मद्रास हाईकोर्ट की जज बन ही गई। केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति और कालेजियम के अधिकारों पर चल रही तनातनी के बीच केन्द्र ने कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के लिए पांच जजों के नाम की सिफारिश मंजूर की थी और बाद में हाईकोर्ट के लिए 13 अतिरिक्त न्यायाधीशों के नामों की मंजूरी दी जिनमें वरिष्ठ वकील विक्टोरिया गौरी का नाम शामिल था। दुर्भाग्यवश उनकी नियुक्ति को लेकर विवाद खड़ा हो गया था। उनकी नियुक्ति को लेकर मद्रास हाईकोर्ट बार के कई सदस्यों ने आपत्ति दर्ज कराते हुए उनकी नियुक्ति का प्रस्ताव वापिस लेने की मांग की थी। उनकी नियुक्ति रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की गई। याचिका में भाजपा से उनके जुड़ाव और मुस्लिम ईसाई समुदाय के खिलाफ दिए गए बयानों का जिक्र किया गया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन तर्कों को नहीं माना और गौरी की नियुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया और कहा कि नियुक्त व्यक्ति के राजनीतिक विचार की वजह से उसके जज बनने की पात्रता को नकारा नहीं जा सकता। विक्टोरिया गौरी तमिलनाडु महिला मोर्चा की संयोजक रही। उन्होंने कई तरह से बयान दिए। इसके बावजूद सितम्बर 2020 में मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै पीठ में भारत सरकार का सहायक महाअधिवक्ता बनाया गया। हालांकि उन्होंने यह पद स्वीकार करने से पहले भाजपा से इस्तीफा दे दिया था। वकील के तौर पर किसी भी व्यक्ति का किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ना गलत नहीं है। अतीत में भी ऐसा होता आया है। सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस बी.आर. गवई ने स्पष्ट कहा कि जज के तौर पर कोर्ट से जुड़ने से पहले उनकी भी राजनीतिक पृष्ठभूमि रही है। लेकिन वह बीस साल से जज हैं और उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि कभी उनके रास्ते में नहीं आई। जस्टिस बी.आर. गवई रिपब्लिकन पार्टी के नेता आर.एस. गवई के परिवार से हैं। जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा कि कई ऐसे मामले हैं जिसमें लोग राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए और उन्हें नियुक्ति मिली और सुप्रीम कोर्ट विक्टोरिया गौरी से संबंधित मामले में फिर से विचार करने के लिए काॅलेजियम को निर्देश नहीं दे सकता।
अतीत को देखें तो जस्टिस बी.आर. कृष्ण अय्यर का उदाहरण हमारे सामने है। वे कम्युनिस्ट थे लेकिन जज बनने के बाद एक विख्यात न्यायाधीश बने। इसी तरह जस्टिस के.एस. हेगड़े और जस्टिस बहारूल इस्लाम को जब हाईकोर्ट का जज बनाया गया था उस वक्त दोनों कांग्रेस के सांसद थे। किसी भी व्यक्ति का उसके अतीत के आधार पर आकलन करना गलत है। जब कोई भी न्यायाधीश की शपथ लेता है तो वह संविधान से बंध जाता है। किसी व्यक्ति के जज बनने की पात्रता एक चुनौती हो सकती है लेकिन यह उनके काम को संतोषजनक ढंग से निभाने की क्षमता पर निर्भर करता है। कई न्यायाधीशों को इसलिए स्थायी नहीं किया क्योंकि उनका काम संतोषजनक नहीं पाया गया था।
भारत के न्यायिक इतिहास में कई फैसले विवादों के घेरे में आए हैं। सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का राजनीतिक झुकाव, राज्यसभा की सदस्यता, उत्पीड़न के गंभीर आरोप ऐसे मुद्दों पर भी विवाद खड़े हुए हैं। लेकिन किसी जज की नियुक्ति के फैसले को रद़द करने की मांग कम ही उठी है। 30 साल पहले ऐसा ही एक मामला सामने आया था, जब के.एन. श्रीवास्तव को गुवाहाटी हाईकोर्ट का जज बनाया गया था और उन्होंने इसकी शपथ भी ले ली थी। लेकिन तब बार के एक वर्ग ने इस नियुक्ति पर इस आधार पर आपत्ति जताई थी कि उन्होंने कभी वकील के रूप में अभ्यास नहीं किया और कभी न्यायिक कार्यालय नहीं संभाला। 
श्रीवास्तव भ्रष्टाचार के आरोपों में भी फंसे थे। तर्क यह था कि के.एन. हाईकोर्ट का जज होने के लिए संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत निर्धारित मूल योग्यता को पूरा नहीं करते। श्रीवास्तव वास्तव में मिजोरम सरकार के कानून और न्यायिक विभाग में सचिव स्तर के अधिकारी थे और उस क्षमता में कुछ न्यायाधिकरणों और आयोगों के सदस्य थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने के.एन. श्रीवास्तव की नियुक्ति गुवाहाटी हाईकोर्ट में जज के रूप में शपथ लेने के बाद भी रद्द कर दी थी। अदालतें तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर फैसले करती हैं। अदालतों में भावनाओं के पोषण की कोई संभावना नहीं होती। न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर उन्हें क्षीर विवेक करने की क्षमता और पारदर्शी न्याय का पैमाना हर समय कायम रखना होता है। यही वजह है कि भारत की न्यायपालिका ने एक नहीं बल्कि अनेक ऐतिहासिक फैसले दिए हैं। न्यायाधीशों के फैसलों में उनके राजनीतिक अतीत की झलक प्रतिबिम्बित नहीं होती। भारत के लोगों में न्यायपालिका की साख बनी हुई है। नए न्यायाधीशों पर अब महत्वपूर्ण जिम्मेदारी यह है कि न्याय को पारदर्शी बनाए रखें और पंच परमेश्वर की तरह न्याय करें। इसलिए विक्टोरिया गौरी की नियुक्ति पर विवाद को अनावश्यक ही कहा जाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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