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निजाम बदलते ही अपराधियों की मौज

क्या गजब की सरकार बनी है बिहार में कानून तोड़ने वाला खुद कानून मंत्री बन गया है। नीतीश कुमार की नई सरकार बने अभी 2 दिन भी नहीं हुए और कानून मंत्री के रूप में एक ऐसे व्यक्ति कार्तिकेय सिंह को मंत्री पद की शपथ दिला दी गई है जिस पर कानून तोड़ने का अपराध है और उसके वारंट जारी किए गए हैं।

क्या गजब की सरकार बनी है बिहार में कानून तोड़ने वाला खुद कानून मंत्री बन गया है। नीतीश कुमार की नई सरकार बने अभी 2 दिन भी नहीं हुए और कानून मंत्री के रूप में एक ऐसे व्यक्ति कार्तिकेय सिंह को मंत्री पद की शपथ दिला दी गई है जिस पर कानून तोड़ने का अपराध है और उसके वारंट जारी किए गए हैं। अदालत के आदेश की इस तरीके से तोहीन करना सिर्फ बिहार में ही संभव हो सकता है क्योंकि इस राज्य में नीतीश बाबू ने भाजापा से संबंध विच्छेद करके जिस पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से हाथ मिला कर नई सरकार का गठन किया है उस पार्टी का पिछला इतिहास आपराधिक तत्वों से हाथ मिलाने का रहा है। बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब पटना उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री कॉल को जंगल राज की संज्ञा दी थी और कहा था कि ऐसा मालूम पड़ता है कि बिहार में जंगलराज कायम है। नीतीश बाबू ने गुस्से में आकर और अपनी पुरानी छवि को ताक पर रखकर राष्ट्रीय जनता दल के साथ दोबारा हाथ तो मिला लिया है मगर अब उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। 
पूर्व में 2015 में जब नीतीश बाबू ने राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस व अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर महागठबंधन के आवरण के नीचे चुनाव लड़ा था तो भाजपा के विरुद्ध इस गठबंधन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था और इसकी सरकार बन गई थी मगर यह सरकार 2 साल तक भी नहीं चल सकी और 2017 में नीतीश बाबू ने लालू जी की पार्टी से हाथ छुड़ाकर भाजपा का हाथ पकड़ा और नई सरकार गठित की। इस सरकार ने चाहे जो कुछ काम किया हो या ना किया हो मगर इतना निश्चित है कि शासन के दौरान बिहार की कानून व्यवस्था सुधरी हुई थी वैसे भी नीतीश बाबू जब 2005 में सत्ता में पहली बार अपने बूते पर आए थे तो उन्हें सुशासन बाबू का नाम दिया गया था हालांकि भाजपा का उन्हें समर्थन प्राप्त था और सरकार ने 2010 तक निर्बाध रूप से अपना कार्यकाल पूरा किया था। इस शासन के दौरान बिहार की स्थिति बदली और इसकी छवि में भी एक राज्य के रूप में परिवर्तन आया परंतु हाल ही में नीतीश बाबू ने जिस प्रकार भाजपा का साथ छोड़ा है वह किसी ठोस वजह से ना होकर उन्हें अपनी पार्टी के भविष्य के प्रति आशंकित भाव जगने से प्रतीत होता है। नीतीश बाबू की आशंका यह थी कि राज्य में भाजपा जिस तरीके से अपने पांव पसार रही है और उनके शासन में सहभागी है उसे देखते हुए उनकी पार्टी जनता दल यू का भविष्य अंधकार में पड़ सकता है इसलिए उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ कर लालू जी की पार्टी का दामन थामा मगर ऐसा करते ही उन्होंने इतना बड़ा खतरा मोल ले लिया कि अब उनकी पार्टी को बिना कुछ करे-धरे ही अपने भविष्य की चिंता हो सकती है। यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बिहार में जिस तरीके से बाहुबली और आपराधिक तत्वों की राजनीति में सांठगांठ रही है उससे इस राज्य की जनता का भविष्य ही अंधकार में होता रहा है। 
बिहार को सबसे ज्यादा जरूरत सुशासन की है क्योंकि अपराध और अपहरण इस राज्य के प्रमुख व्यवसाय में गिना जाता रहा है। बिहार को सबसे ज्यादा इन्हीं  व्याधियों से मुक्ति दिलाने की जरूरत है और राजद के सरकार में रहते यह संभव नहीं दिखता क्योंकि जिस प्रकार हाल ही में एक पूर्व महाबली सांसद आनंद मोहन सिंह ने जेल से बाहर आकर व्यवहार किया है वह राज्य प्रशासन के मुंह पर तमाचा है और दिखाता है की आपराधिक तत्वों को सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का, जैसा माहौल नजर आने लगा है। यह दुखद है कि बिहार जो कि पिछड़ा हुआ राज्य माना जाता है उसमें नई सरकार के आने के बाद ऐसे तत्वों का बोलबाला नजर आने लगा है और उनका साया राज्य की सड़कों पर दिखाई देने लगा है जो अपराधियों को ही प्रमुख व्यवसाय मानते हैं। जरूरत इस बात की है की कानून व्यवस्था में किसी प्रकार की भी ढिलाई न की जाए और राजनैतिक वह आपराधिक तत्वों का गठबंधन बेरहमी से तोड़ा जाए मगर ऐसा होगा इसकी संभावना दिखाई नहीं पड़ती है क्योंकि जातिगत वर्ग गत राजनीति ऐसे तत्वों के भरोसे चलती है और उनका महिमामंडन कराती है।
लोकतंत्र में गठबंधन की राजनीति में कोई बुराई नहीं है मगर यह गठबंधन समान विचारधारा और सिद्धांतों वाले दलों में होना चाहिए तथा समाज के प्रति और शासन के प्रति उनकी सोच भी एक समान होनी चाहिए। राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव जो उपमुख्यमंत्री हैं उनकी सोच और नीतीश बाबू की सोच में जमीन-आसमान का अंतर है। यदि ऐसा ना होता तो 2017 में ही नीतीश बाबू ने तेजस्वी यादव एंड कंपनी के साथ संबंध विच्छेद ना किया होता मगर सत्ता का लाभ उठाने के लालच में नीतीश बाबू फंस गए और महागठबंधन की उलझन में उलझ गए। भाजपा से उन्होंने जिस रंजीत को पाल लिया है उस तरफ का रुख करना अब मुमकिन नहीं है।
        ‘‘छोड़ा न रश्क ने कि तेरे घर का नाम लूं,
       हर इक से पूछता हूं कि जाऊं किधर को मैं।’’

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