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भारत की रगों में बहता लोकतन्त्र

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति श्री जो बाइडेन द्वारा विश्व के लोकतान्त्रिक देशों की बुलाई गई वीडियो बैठक में यह कह कर कि लोकतन्त्र भारतीय मानस में बसा हुआ है

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति श्री जो बाइडेन द्वारा विश्व के लोकतान्त्रिक देशों की बुलाई गई वीडियो बैठक में यह कह कर कि लोकतन्त्र भारतीय मानस में बसा हुआ है स्पष्ट कर दिया है कि यह विचारधारा भारतीय दर्शन का अन्तरंग हिस्सा इस प्रकार रही है कि भारतीय समाज  की संरचना की इसके बिना कल्पना नहीं की जा सकती। यदि हम भारत के प्राचीन सांस्कृतिक-राजनीतिक व सामाजिक इतिहास को उठा  कर देखें तो सबसे बड़ा तथ्य यह निकल कर आता है कि प्रागैतिहासिककाल से लेकर पुष्ट ऐतिहासिक काल केस दौर तक में भारत का समाज विविध मत-मतान्तरों और विचारधाराओं का सहनशील, समावेशी व सहिष्णु  संगम इस प्रकार रहा है कि इसमें अपने कटु वचनों से राजकर्म का उपदेश देने वाले ‘दुर्वासा’  को भी ऋषि का दर्जा दिया गया है। ऐसे ऋषि का सम्मान भी राजा अन्य ऋषियों की तरह ही पूरी राजकीय औपचारिकताएं निभाते हुए करते थे। इसी तरह महान भौतिकवादी भोग की परिकल्पना को व्यवहार में उपयोग करने वाले उन ‘चरक’ को श्री ऋषि कहा गया जिन्होंने शिक्षा दी कि ‘ऋणं कृत्वा घृतम् पीवेत’ अर्थात मनुष्य को कल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए और अपना आज पूरे एशो आराम के साथ बिताना चाहिए। इसके लिए अगर उसे कर्ज भी लेना पड़े तो कोई चिन्ता नहीं। 
ये उदाहरण बताते हैं कि भारत में प्रत्येक  ‘मत’ का ‘प्रतिरोधी मत’ स्थापित मान्यता प्राप्त करता था और उसके प्रचार-प्रसार की उसे छूट थी। यही लोकतन्त्र की आत्मा या रूह होती है जिसके आधार पर किसी भी समाज की सभ्यता की पहचान होती है। लेकिन अगर हम और गहराई में जायें तो हमें भगवान बुद्ध के दर्शन से भी पहले ‘जैन दर्शन’ में लोकतन्त्र अधिस्थापना के प्रमाण मिलते हैं जिसमें ‘स्यातवाद’ का सिद्धान्त सर्व प्रमुख है। जैन दर्शन के मीमांसकों की माने तो लोकतन्त्र का उदगम यही सिद्धान्त है जिसमें ‘कथनचित’ को महत्ता इस प्रकार दी गई है कि किसी भी व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक हिंसा की बात तो छोड़िये बल्कि उसके साथ ‘बौद्धिक हिंसा’ भी न हो सके। हालांकि कुछ विद्वानों का मत है कि बौद्धिक हिंसा जैसी चीज कुछ नहीं होती है क्योंकि मनुष्य की बुद्धि आविष्कारक होती है और वह समय की मांग के अनुसार पुरानी प्रतिस्थापनाओं को नकारते हुए नवीन स्थापनाएं गढ़ता है। परन्तु जैन दर्शन स्यातवाद में कथनचित का महत्व जिस तरह दर्शाता है उसके अनुसार  किसी भी स्रोत या सूत्र से आया हुआ कथन सम्मानयोग्य होता है और उसके विरोध या प्रतिकूल प्रस्तुत किया गया कथन भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए जिससे समाज के हर वर्ग या समुदाय  को अपने विचार उन्मुक्त भाव से रखने में कोई हिचकिचाहट न हो। यहां यह बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि जैन दर्शन हिंसा का पूर्ण रुपेण निषेध करता है अतः हिंसक विचारों की इसमें गुंजाइश नहीं है। अतः हम समझ सकते हैं कि आज की दुनिया में भी जैन मतावलम्बी ‘क्षमा वाणी दिवस’ क्यों मनाते हैं। 
प्रधानमन्त्री ने अपने हस्तक्षेप में यह भी कहा कि भारत में लोग कानून का सम्मान करते हैं व उसके अनुसार अपना जीवन यापन करते हैं। लोकतन्त्र की यह अन्तर्निहित शर्त होती है कि इस व्यवस्था में जनमानस संवैधानिक प्रावधानों को मन से पालन करे । इसकी जड़ भी ​विविधीकृत समाज की एकता में छिपी हुई है। किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में मतभिन्नता व वैचारिक विविधता की संभावना तभी बनी रहती है जब अपने-अपने  देश के संविधान के अनुसार लोग आचरण करते हुए व्यावहारिक स्तर पर अपने-अपने मत का इजहार इस प्रकार करें कि उनके मत का टकराव संवैधानिक प्रावधानों से न हो। और कोई भी देश तभी लोकतान्त्रिक देश कहलाता है जब उसमें स्वतन्त्र विचार अभिव्यक्ति की छूट हो बशर्ते ये विचार समाज में हिंसा या विद्वेष अथवा लोगों के बीच आपसी रंजिश पैदा करने वाले न हों। इस सन्दर्भ में भारत का संविधान जैन दर्शन से अभिप्रेरित रहा है क्योंकि दुनिया के इस सबसे बड़े संविधान में हर मोड़ पर अहिंसक माध्यमों  के द्वारा ही समाज में संशोधनों की वकालत की गई है। इसकी वजह संभवतःयह भी है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर स्वयं जैन दर्शन का खासा प्रभाव था क्योंकि उनकी मां जैन मत की मानने वाली थीं। अतः यह समझ में आने वाली बात है कि क्यों 1936 में ही महात्मा गांधी ने ब्रिटिश भारत में ही संसदीय लोकतन्त्र को अपनाने की शर्त रख दी थी। उस समय ब्रिटेन की संसद के ‘हाऊस आफ लार्ड्स’ में दो अंग्रेज विद्वानों ने राय व्यक्त की थी कि ‘भारत ने एक ऐसे  अंधे कुएं में छलांग लगा दी है जिसमें किसी को नहीं पता कि उसमे  क्या छिपा हुआ है’। परन्तु तब राष्ट्रपिता ने कहा था कि ‘मुझे भारत के लोगों और उनकी बुद्धिमत्ता व सोच पर पूरा विश्वास है’। गांधी का यह विश्वास अकारण नहीं था क्योंकि उन्हें मालूम था कि भारत के इतिहास में लिच्छवी वंश के साम्राज्य के दौरान लोकगणतन्त्र’ हुआ करते थे जिनमें ग्रामीण स्तर पर ही लोग स्वतन्त्र रूप से अपनी समस्याओं का हल किया करते थे। इन गणराज्यों में सभी फैसले सर्वसम्मति से हुआ करते थे। हकीकत यह है कि लोकतन्त्र भारत के लोगों की रगों में लहू के समान शुरू से ही बहता रहा है और असल में पूछा जाये तो इसके ‘भारत’ बनने की वजह भी यही है वरना अंग्रेज तो हमे  567 रियासतों में बांट कर गये थे और साथ ही ‘पाकिस्तान’ भी बना गये थे। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com  

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