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पुतिन की चाल से भूचाल

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पूर्वी यूक्रेन के लुहांस्क और डोनेट्स्क राज्यों को स्वतंत्र देश घोषित कर समूचे विश्व को चौंका दिया है। खुद को वैश्विक शक्ति मानने वाले अमेरिका को ऐसे कदम का आभास तक नहीं हुआ

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पूर्वी यूक्रेन के लुहांस्क और डोनेट्स्क राज्यों को स्वतंत्र देश घोषित कर समूचे विश्व को चौंका दिया है। खुद को वैश्विक शक्ति मानने वाले अमेरिका को ऐसे कदम का आभास तक नहीं हुआ कि पुतिन ऐसा कदम उठा सकते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन समेत नाटो देशों की धमकियों की परवाह न करते हुए रूस ने अमेरिका के सामने चुनौती फैंक दी है। 1991 में जब सोवियत संघ खंडित हुआ तो वह 15 स्वतंत्र देशों में बंट गया। तब रूस वैश्विक परिदृश्य में पिछड़ता गया लेकिन पुतिन के सत्ता में आने के बाद रूस ने पुनः अपनी शक्ति अर्जित की और अब वह अपने परम्परागत दुश्मन अमेरिका को ललकार रहा है। 
पुतिन ने बिना गोली और बम बरसाये जिस चाल से यूक्रेन को तीन हिस्सों में बांट दिया है उससे ऐसा लगता है ​कि व्लादिमीर पुतिन ‘अखंड रूस’ को फिर से बनाने की अपनी योजना पर आगे बढ़ रहे हैं। डोनेट्स्क और लुहांस्क दोनों राज्यों पर रूस समर्पित विद्रोहियों का कब्जा है। रूस पूर्वी क्षेत्र को अपना स्वाभाविक क्षेत्र मानता है और यहां रहने वाले लोग भी रूसी हैं और रूसी भाषा बोलते हैं। यूक्रेन संकट पर जो हालात बन रहे हैं, वह भारत के ​लिए बहुत परेशानी वाले हैं। ऐतिहासिक रूप से भारत यूक्रेन के मामले पर रूस के साथ रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में सभी देशों के उचित सुरक्षा हितों को रेखांकित किया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति ने कहा है कि सभी पक्ष इस मामले में संयम बरतें। इस मुद्दे का समाधान सिर्फ कूटनीतिक बातचीत से ही हो सकता है, तनाव कम करने के लिए रचनात्मक कूटनीति की जरूरत है। तिरुमूर्ति ने यूक्रेन में रह रहे और पढ़ाई कर रहे 20 हजार से अधिक भारतीय नागरिकों और छात्रों का उल्लेख किया और कहा कि भारत का ध्यान उनकी बेहतरी पर भी है। मार्च 2014 में जब रूस ने क्रीमिया को अपने में मिला लिया था तब भारत की तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे शिवशंकर मेनन ने कहा था कि रूस के हित क्रीमिया में हैं। इस तरह भारत ने क्रीमिया को​ मिलाने के मुद्दे पर रूस का विरोध नहीं किया। जब इस मामले पर संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव आया तो भारत वो​टिंग से बाहर रहा था। इस बार भी जब यूक्रेन और रूस के मुद्दे पर प्रस्ताव आया तो भारत फिर वोटिंग से बाहर रहा। इस तरह भारत ने रूस का विरोध नहीं ​किया या फिर इसे इस तरह से भी पढ़ा जा सकता है कि भारत इस मामले में अमेरिकी रुख का समर्थन नहीं करता। 
रूस हमारा परखा हुआ मित्र है। युद्ध हो या शांतिकाल रूस हमेशा भारत के साथ खड़ा रहा है। जबकि पाकिस्तान से हुए तीन-तीन युद्धों में अमेरिका पाकिस्तान के साथ खड़ा था। 9/11 हमले के पहले और बाद तक अमेरिका अपने डालरों से पाकिस्तान को पालता रहा है। जार्ज डब्ल्यू बुश ने अपनी सनक के चलते अफगानिस्तान की धरती से आतंकवाद को जड़ से खत्म करने के लिए जिसे अपना साथी बनाया वह कोई और नहीं बल्कि आतंकवाद की खेती करने वाला पाकिस्तान ही रहा। अफगानिस्तान अमेरिका और उसके मित्र देश की सेनाओं की हार का कारण पाकिस्तान ही रहा। एक तरफ पाकिस्तान के तत्कालीन हुकुमरान मुशर्रफ अमेरिकी डालरों पर मौज करते रहे तो दूसरी तरफ आतंकवाद को सींचते रहे। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का शासन आने के बाद अमेरिका की आंखें खुलीं। तब जाकर पाकिस्तान की फंडिंग रोकी गई। 
अब सबसे अहम सवाल यह है कि इस समय जबकि पूरी दुनिया खौफ में है तो अमेरिका और उसके मित्र देश क्या कदम उठाएंगे। अमेरिका और ब्रिटेन ने और साथ ही उनके दुमछल्ले देशों ने रूस पर सीमित प्रतिबंध लगाने का ऐलान कर दिया। हालांकि अभी रूस पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाए गए हैं। अगर रूस यूक्रेन में आगे बढ़ा तो प्रतिबंधों को विस्तार दिया जा सकता है। रूस पर जो वित्तीय प्रतिबंध लगाए जाने हैं उनमें से एक है उसे स्विफ्ट सिस्टम से अलग करना है। स्विफ्ट सिस्टम एक ग्लोबल मैसेजिंग सर्विस है। 200 देशों में हजारों वित्तीय संस्थाएं इसका इस्तेमाल करती हैं। इससे रूसी बैंकों के लिए विदेशों में कारोबार करना मुश्किल हो जाएगा। वित्तीय प्रतिबंध अमेरिका का एक जाना पहचाना हथियार है। इसे उसने ईरान के खिलाफ भी इस्तेमाल किया था लेकिन इस वित्तीय प्रतिबंध का नुक्सान अमेरिका और जर्मनी को भी होगा। क्योंकि वहां के बैंक रूसी ​वित्तीय संस्थाओं से मजबूती से जुड़े हैं। अमेरिका रूस को डालर में कारोबार करने से रोक सकता है। इससे रूस प्रभावित होगा क्योंकि उसका तेल और गैस का व्यापार डालर से होता है। पश्चिमी देश अन्तर्राष्ट्रीय ऋण बाजार में रूस की पहुंच रोक सकते हैं और अपनी कम्पनियों को रूस में सामान बेचने से रोक सकते हैं। पश्चिमी देश रूसी उद्योगपतियों का अपने यहां निवेश रोक सकते हैं लेकिन मुश्किल यह है कि इससे पश्चिमी देशों को भी दिक्कत आएगी और उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। कई देश आर्थिक प्रतिबंध लगाने के​ खिलाफ हैं। कुल मिलाकर अमेरिका और उसके मित्र देशों के पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है। अगर अमेरिका रूस से युद्ध में उलझता है तो आर्थिक प्रतिबंधों से निपटने के लिए चीन रूस का साथ देगा और दोनों देशों का गठजोड़ बहुत मजबूती हासिल कर लेगा। जो अमेरिका और यूरोपीय ताकतों के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द होगा। फिलहाल पुतिन ने अपनी चाल से अमेरिका और नाटो का ललकारा है और इस समय दुनिया की नजरें यूक्रेन पर लगी हुई हैं। सब खौफ में हैं कि अगर युद्ध होता है तो बहुत नुक्सान होगा।

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