रूस-यूक्रेन युद्ध को चलते पचास दिन बीत चुके हैं और इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। रूस और यूक्रेन को गेहूं का कटोरा माना जाता है। दोनों देश बड़े पैमाने पर गेहूं का निर्यात करते हैं। युद्ध के कारण सप्लाई चेन प्रभावित हुई है। ज्यादातर देशों में गैस और तेल की कीमतों में तेजी आ रही है और भारत भी इससे अछूता नहीं। कहीं तो युद्ध का नाकारात्मक तो कहीं पर सकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। गेहूं निर्यात की सप्लाई बाधित होने से दोनों देशों से गेहूं खरीदने वाले देश नए विकल्प तलाश कर रहे हैं और भारत उनके लिए एक बेहतर पसंद बनकर उभरा है। भारत के लिए युद्ध आपदा के दौरान एक अवसर की तरह है। कहा जा रहा है कि युद्ध के कारण उत्पन्न हुई स्थिति के चलते भारत गेहूं निर्यात में नया रिकार्ड बना सकता है। युद्ध शुरू होने से पहले के गेहूं निर्यात के आंकड़े काफी बेहतर हैं। निर्यातकों का मानना है कि इस वित्त वर्ष के अंत तक भारत का गेहूं का निर्यात 75 से 80 लाख मीट्रिक टन पहुंच सकता है जो अब तक का उच्चतम स्तर है। भारतीय गेहूं की मांग लगातार बढ़ रही है। भारत में मार्च के अंत में और अप्रैल में गेहूं की कटाई होती है। जब भी नई पैदावार बाजार में आती है तो दाम गिर जाते हैं लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। गेहूं की कीमतों में तेजी से बढ़ौतरी हो रही है। दुनिया में गेहूं के निर्यात में रूस और यूक्रेन का हिस्सा 28.3 प्रतिशत है। इसी तरह मक्की, जौ और सूरजमुखी तेल में यह हिस्सा 19.5, 30.8, 78.3 प्रतिशत है। पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसानों को निर्यात की बढ़ती मांग के कारण एमएसपी से अधिक कीमत मिल रही है। पंजाब और अन्य गेहूं उत्पादक राज्यों के किसान फसल की अच्छी कीमत मिलने पर काफी खुश हैं। भारत में प्राइवेट कम्पनियां और निजी खरीदार गेहूं की जमकर खरीद कर रहे हैं। निर्यात की सम्भावनाओं को देखते हुए प्राइवेट खिलाड़ी मैदान में हैं। गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2000 रुपए प्रति क्विंटल है लेकिन प्राइवेट खिलाड़ी 2050 से 2150 रुपए तक का भाव दे रहे हैं। वहीं मक्के की ऊंची कीमतों का सबसे ज्यादा फायदा बिहार के किसानों को हो रहा है। मक्का उत्पादन में बिहार का हिस्सा 25 प्रतिशत के आसपास है लेकिन गेहूं उत्पादक किसानों को इस बार बढ़ते तापमान के चलते काफी नुक्सान का सामना करना पड़ रहा है। इस बार भीषण गर्मी मार्च महीने में ही शुरू हो गई थी और इस समय तापमान 42 डिग्री तक पहुंच चुका है। पंजाब के लगभग सभी जिलों के किसान इससे प्रभावित हुए हैं। बढ़ते तापमान के चलते गेहूं का दाना सिकुड़ गया है। आमतौर पर किसानों को प्रति एकड़ 22 क्विंटल गेहूं मिलता है लेकिन इस साल 6-7 क्विंटल प्रति एकड़ फसल का नुक्सान हुआ है। भीषण गर्मी के चलते इस साल फसल भी वास्तविक अवधि के एक महीना पहले ही पक गई। किसान अपने राज्य की विभिन्न मंडियों में बड़ी मात्रा में गेहूं ला चुके हैं लेकिन भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) छोटे हो चुके दाने खरीदने को तैयार नहीं हैं। एफसीआई के अधिकारियों और कर्मचारियों का कहना है कि उन्हें नियमों के मुताबिक 6 फीसदी सिकुड़े हुए दाने को खरीदने की अनुमति है। वह 20.22 प्रितशत सिकुड़ चुके दाने काे नहीं खरीद सकते। इसके लिए केन्द्र को नियमों में परिवर्तन करना होगा। पंजाब में अभी तक गेहूं की सरकारी खरीद को लेकर गतिरोध बना हुआ है। राज्य के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भी केन्द्र से नियमों में परिवर्तन की मांग की है। यह गतिरोध दूर होना ही चाहिए।
देशभर में किसान गेहूं की अच्छी कीमत मिलने पर खुश तो हैं लेकिन हर चीज महंगी होने से उनकी उत्पादन लागत काफी बढ़ने से काफी चिंताएं पैदा हो गई हैं। परिवहन लागत काफी बढ़ चुकी है। गेहूं चना, जीरा, धनिया और सौंफ आदि उत्पाद सौराष्ट्र में काफी होते हैं। लागत बढ़ जाने से उनकी उपज की एमएसपी से कम कीमत मिल रही है। खाद्य वस्तुओं के दाम पहले ही आसमान को छू रहे हैं। भारतीय व्यापारी तो निर्यात से अच्छा खासा फायदा उठा रहे हैं लेकिन यूक्रेन युद्ध को लेकर एक चिंता यह भी है कि रूस खाद के सबसे बड़े निर्यातकों में से है। रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के चलते वहां से फर्टिलाइजर आना बाधित हो रहा है और घरेलू बाजार में खाद के दाम बढ़ रहे हैं। फर्टिलाइजर की कीमत पिछले साल से लगभग दोगुणी हो चुकी है। नाइट्रोजन आधारित यूरिया और दुनिया भर में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले फासफोरस आधारित खाद पिछले साल के मुकाबले 98 प्रतिशत और 68 प्रतिशत तक महंगा हो चुका है। जिसका असर उत्पादन लागत पर पड़ रहा है।अब सबसे बड़ी चुनौती यह है कि निर्यात बढ़ने से कीमतें बढ़ चुुकी हैं लेकिन घरेलू बाजार में कीमतों पर किस तरह से काबू पाया जाए। महंगाई पर नियंत्रण पाना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। भारत में महंगाई से आम आदमी से लेकर अर्थव्यवस्था की मुश्किलें काफी बढ़ चुकी हैं। पैट्रोल और डीजल की कीमतों में धीरे-धीरे वृद्धि होने की रणनीति के चलते उसमें 10 रुपए प्रति लीटर से भी ज्यादा की वृद्धि हो चुकी है। बजट तैयार करते समय कच्चे तेल की कीमत 70-75 डालर प्रति बैरल रहने का अनुमान था लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तीन दिन पहले कच्चे तेल की कीमत 102 डालर प्रति बैरल हो चुकी है। सरकार जमाखोरी और कालाबाजारी रोकने के लिए भी छापेमारी कर रही है। खाद्य तेलों की बढ़ती कीमतों को देखते हुए सरकार ने कुछ कदम भी उठाए हैं लेकिन आम आदमी को महंगाई के खतरों से बचाने के लिए कुछ ठोस रणनीतिक प्रयास करने होंगे। किसानों के लिए तो कहीं खुशी, कहीं गम वाली स्थिति है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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