आरक्षण एक बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। वैैसे तो देश 21वीं सदी में जी रहा है लेकिन देश में विभिन्न जातियां अब तक आरक्षण की लड़ाई लड़ रही हैं। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग कर रहे हैं और गुजरात में पाटीदार आरक्षण चाहते हैं। राजस्थान में बार-बार आरक्षण की मांग उठती रहती है। हरियाणा में जाटों के आरक्षण आंदोलन का विकराल रूप हम पहले ही देख चुके हैं। हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि अब आर्थिक रूप से सम्पन्न मानी जाने वाली जातियां भी आरक्षण की मांग कर रही हैं। एक समय था जब पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को आरक्षण की बहुत जरूरत थी। सामान्य जाति के ऐसे लोग जो कि आर्थिक रूप से पिछड़ गए, उन्हें लगने लगा कि अब उन्हें भी आरक्षण की जरूरत है। अब हर कोई आरक्षण मांगने लगा है और समस्या ने विकराल रूप ले लिया है।
आरक्षण की मांग कर रहे एक प्रदर्शनकारी द्वारा नदी में कूदकर आत्महत्या की घटना के बाद शांतिपूर्ण चल रहा मराठा आरक्षण आंदोलन उग्र हो उठा। झड़पों में एक पुलिसकर्मी की जान भी चली गई। सरकारी वाहनों काे जला डाला गया। मराठा समुदाय सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण चाहता है। सुकून देने वाली खबर है कि मराठा क्रांति माेर्चा ने एक प्रदर्शनकारी द्वारा आत्महत्या व हिंसा की घटनाओं के मद्देनजर बंद को वापिस लेने की घोषणा की है। 2014 में कांग्रेस-राकांपा की सरकार ने मराठा समुदाय के लिए 16 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था। इसके लिए पहली बार इकोनोमिकली एंड बैकवर्ड कम्युनिटी की श्रेणी बनाई गई। इस तरह राज्य में कुल आरक्षण 51 फीसदी कोटा से अधिक हो गया था। बाद में बाम्बे हाईकोर्ट ने मराठा आरक्षण को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि मराठाओं को पिछड़े वर्ग में नहीं गिना जा सकता। मामला अदालत में अब तक लम्बित है। मराठा समुदाय चाहता है कि सरकार कुछ ऐसी व्यवस्था करे, जिसे अदालत खारिज न कर पाए और तब तक 72 हजार सरकारी नौकरियों की भर्ती पर रोक लगे। महाराष्ट्र की कुल आबादी में करीब 33 फीसदी मराठा समुदाय है। राजनीतिक तौर पर राज्य की राजनीति में उनका वर्चस्व रहा है। 1960 में राज्य के गठन के बाद महाराष्ट्र में बने 17 मुख्यमंत्रियों में से 10 इसी समुदाय से हैं। महाराष्ट्र में 50 प्रतिशत शैक्षिक संस्थानों पर मराठाओं का नियंत्रण है और 200 चीनी मिलों में से 168 पर मराठाओं का कब्जा है।
आरक्षण आंदोलन के उग्र होने के पीछे कई कारण हैं। 2016 में एक मराठा लड़की का गैंगरेप और हत्या के बाद भी आंदोलन भड़क उठा था क्योंकि इस मामले में आरोपी दलित थे। आक्रोशित लाखों मराठा आरोपियों को जल्द फांसी की सजा देने और एससी/एसटी अत्याचार निरोधक कानून में बदलाव की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए थे। इस बार एक आंदोलनकारी के गोदावरी नदी में ‘जल समाधि’ लेने और मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस के पंढरपुर में पूजा में हिस्सा न लेने से आंदोलन भड़क गया। मराठाओं को लगा कि मुख्यमंत्री ने मराठा समुदाय का अपमान किया है। हालात इतने उग्र हो गए कि कुछ और युवाओं ने भी आत्महत्या का प्रयास किया। यह देश वी.पी. सिंह शासन में मंडल-कमंडल आंदोलन के दौरान युवाओं को सड़कों पर जलते देख चुका है। मराठा आंदोलन कोई अचानक शुरू नहीं हुआ। आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि मराठा आंदोलन कृषि क्षेत्र में संकट के कारण शुरू हुआ। 1990 के बाद उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के किसान संगठित हो गए थे। उत्तर में महेंद्र सिंह टिकैत आ गए, महाराष्ट्र में शरद जोशी आ गए, कर्नाटक में मंजूदा स्वामी आ गए लेकिन इनका प्रभाव 1995 में खत्म हो गया। अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की शुरूआत 1991 में हुई। उदारीकरण से सेवा सैक्टर को बढ़ावा मिला लेकिन किसान होने के कारण मराठा इस प्रगति में पिछड़ते गए। सर्विसेज सैक्टर में मराठा समाज को शामिल होना चाहिए था। सभी सैक्टर का मूल्य बढ़ता गया लेकिन कृषि में आमदनी घटती गई। महाराष्ट्र में जितने किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, उनमें 70 से 80 फीसदी मराठा हैं। धनी मानी गई सवर्ण जातियों में कोई गरीब नहीं होगा, यह धारणा भी गलत है। आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण जाति से जुड़े लोगों को भी नौकरी की जरूरत होती है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार अधिनियम 1989 में संशोधन के विरुद्ध गत 20 मार्च के आहूत बन्द के दौरान भी भयानक हिंसा हुई थी। दलितों के नाम पर आयोजित इस बन्द के पीछे राजनीतिक उद्देश्य निहित था। अब सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण की मांग को लेकर भी सियासत गर्म है। चुनावी वर्ष में सियासत का हर हथकंडा अपनाया जाएगा। गम्भीर बात यह है कि महाराष्ट्र के मराठा आंदोलन को दलित विरोधी करार दिया जा रहा है। समाज का ध्रुवीकरण होना शुरू हो चुका है। ऐसे नारे सुनने को मिल रहे हैं कि ‘‘एक मराठा लाख मराठा।’’ दलितों के महार समाज का नारा है-‘‘एक महार लाख बराबर।’’ आशंका इस बात की है कि कहीं जातियों में टकराव गहरा न जाए। अब आरक्षण की समस्या को खत्म करने का समय आ चुका है। व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि किसी को शिकायत न हो इसलिए आरक्षण का आधार जाति नहीं बल्कि आर्थिक पिछड़ापन होना चाहिए। आखिर कब तक हम जातियों को आरक्षण का झुनझुना पकड़ाते वोट बैंक की सियासत करते रहेंगे? देश के नेतृत्व को मंथन करना ही होगा।