स्वतन्त्र भारत के निर्माण व विकास में देश के उद्योगपतियों की भूमिका किसी ‘उत्प्रेरक’ (प्रमोटर) से कम नहीं रही है। भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की जड़ें जमाने में भी घरेलू उद्योगपतियों ने महती भूमिका निभाई है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में उद्योगपति जमना लाल बजाज व बिड़ला समूह के योगदान को कोई नहीं भुला सकता। इसके साथ टाटा समूह व डालमिया उद्योग घराने ने भारत में औद्योगीकरण की नींव डालने के लिए जिस तरह परिश्रम किया उससे भारत में आर्थिक जगत में नये चरण की शुरूआत अंग्रेजों के शासनकाल में ही हो गई थी। भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी व इसके नेताओं को इन्हीं उद्योगपतियों ने ‘भामाशह’ की तरह उस दौर में वित्तीय मदद भी दी जिससे भारत आजाद हो सके। यह काम उन्होंने अंग्रेजों की नाराजगी मोल लेने के जोखिम के साथ किया। मगर इन सब उद्योगपतियों में टाटा समूह का विशिष्ट योगदान इस मायने में रहा कि इस समूह के प्रधान संस्थापक स्व. जमशेत जी टाटा ने भारत में सर्वप्रथम स्टील उद्योग स्थापित करने की सोची और इसके लिए 19वीं सदी के बंगाल के पूर्वी सिंहभूमि जिले में एेसे स्थान की खोज की जहां लौह अयस्क से लेकर पानी व चूना पत्थर की खानें भी थीं।
झारखंड के जिस शहर को आज हम जमशेदपुर के नाम से जानते हैं उसी का पट्टा लेने के लिए जमशेत जी टाटा को दो बार लन्दन जाकर महारानी विक्टोरिया व सम्राट के दरबार में हाजिरी भरनी पड़ी। क्योंकि तब भारत के वायसराय ने जमशेत जी टाटा की दरख्वास्त को दरकिनार कर दिया था और कहा था कि भारत जैसा देश कहां से स्टील उत्पादन की दक्षता लायेगा। मगर जमशेत जी अपनी लगन के पक्के थे और उन्होंने लन्दन दरबार के समक्ष दरख्वास्त रखी कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना की जरूरतों को देखते हुए स्टील प्लांट का लगना बहुत जरूरी है तब जाकर 1907 में देश के पहले स्टील प्लांट की नींव रखी गई जिसे आज हम टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी या टिस्को के नाम से जानते हैं। तब से लेकर आज तक टाटा उद्योग समूह देश के चहुंमुखी नव निर्माण में अपना योगदान देता आ रहा है और भारत में लोकतन्त्र को मजबूत करने के काम में इस तरह लगा हुआ है कि विभिन्न राजनीतिक दल आर्थिक नीतियों के सम्बन्ध में परस्पर ज्यादा न उलझें। इसके साथ ही बिड़ला उद्योग समूह से लेकर डालमिया (साहू जैन) व थापर समूह से लेकर डीसीएम समूह तक एेसे उद्योग घराने रहे हैं जिन्होंने देश के कानूनों के अनुसार चलते हुए हर क्षेत्र में उद्योग स्थापित करने के प्रयास किये और भारत के आर्थिक उत्थान में अपना योगदान दिया। इतना ही नहीं इनमें से कई घराने अपनी उद्यमशीलता की वजह से ही शीर्ष पर पहुंचे।
डीसीएम समूह के संस्थापक लाला श्रीराम दिल्ली के सेठ छुन्नामल के मुनीम थे परन्तु अपनी आधुनिक सोच और वैज्ञानिक विचारों से उन्होंने विशाल डीसीएम समूह खड़ा कर डाला। एक समय वह भी आया था जब भारत के आजाद होने पर नये वित्तमन्त्री की खोज चली थी तो उस समय डालमिया समूह के संस्थापक सेठ राम कृष्ण डालमिया का नाम इस पद पर कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने सुझाया था क्योंकि डालमिया जी अपने समकालीन सभी उद्योगपतियों में सर्वाधिक तेज दिमाग और क्रान्तिकारी आर्थिक विचारों के माने जाते थे। परन्तु पं. जवाहर लाल नेहरू से उनके किसी मुद्दे पर मतभेद हो गये थे जिसकी वजह से वह वित्तमन्त्री नहीं बन पाये थे। मगर इन सब भारतीय उद्योगपतियों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इनका एकमात्र लक्ष्य मुनाफा कमाना नहीं रहा। उन्होंने नये-नये उद्योग लगा कर भारत के लोगों को रोजगार दिया और भारतीय समाज के उत्थान के लिए धर्मादा कार्यों को इस प्रकार जारी रखा कि स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा के क्षेत्र तक में गरीब जनता को लाभ हो सके। यही वजह है कि टाटा के विभिन्न शिक्षा संस्थान देश में अग्रणी स्थान रखते हैं और बिड़ला जी द्वारा बनाई गई प्रत्येक धार्मिक स्थल पर हमें धर्मशालाएं देखने को मिलती हैं।
पंजाब में थापर समूह ने भी शिक्षा क्षेत्र में अपना योगदान दिया। दरअसल भारतीय उद्योगपतियों ने भारत में जो भी मुनाफा कमाया उसका उपयोग भारत के लोगों के लिए ही किया। इनमें राष्ट्रप्रेम की भावना स्वतः स्फूर्त थी । वर्तमान आर्थिक वैश्वीकरण के दौर में भी भारतीय उद्योगपति विदेशी कम्पनियों से टक्कर लेते हुए जिस तरह आगे बढ़ रहे हैं उसमें भी कहीं न कहीं भारत की पहचान ही प्रमुख रहती है। भारत में टाटा के किसी उत्पाद का सीधा मतलब ऊंची गुणवत्ता होता है। यही स्थिति बिड़ला समूह के उत्पादों की भी है। इन्हीं उद्योग समूहों ने आजाद भारत में अपने-अपने अखबार चला कर स्वतन्त्र पत्रकारिता को भी जिन्दा रखा और कभी भी सम्पादकीय नीति में दखल नहीं दिया। बेशक आज स्थिति बदल गई है । अतः भारत के उद्योगपतियों से आज के राजनीतिज्ञों को कुछ सीखना चाहिए। क्योंकि भारत की एक विरासत टाटा, बिड़ला, डालमिया भी हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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