केरल की राजनीति का ‘रंग’ - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

केरल की राजनीति का ‘रंग’

NULL

हम उत्तर भारतीयों की शुरू से ही यह कमजोरी रही है कि हमने दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत के राज्यों की राष्ट्र निर्माण में भूमिका को लापरवाही की हद तक जाकर नजरंदाज किया है। यही वजह है कि कभी-कभी हम बेखबरी की गफलत में एेसी कार्रवाइयां कर बैठते हैं जिससे इन क्षेत्रों में रहने वाले भारतीयों को उनकी पहचान के साथ जुड़े विशिष्ट विशेषणों से हम पहचानने की भूल कर जाते हैं। दरअसल यह सदियों पुरानी भारत की वह पहचान है जिसमें मंगोल, द्रविड़ व काकेशियाई मूल की नस्लों के लोग हिल-मिल कर रहते आ रहे हैं। इन सभी का भारत निर्माण में योगदान कम नहीं रहा है। आजाद और आधुनिक कहे जाने वाले भारत में भी दक्षिण भारत के राज्यों के लोगों का विज्ञान से लेकर साहित्य व संस्कृति से लेकर राजनीति तक में महान योगदान रहा है। इसमें अगर हम केवल केरल राज्य को ही लें तो धर्म के क्षेत्र में आदि शंकराचार्य के सांस्कृतिक संवाहन से लेकर राजनीति के क्षेत्र में मार्क्सवादी नेता स्व. ई.एम. एस. नम्बू​िद्रपाद के सादगी और लोकमूलक समाजवादी विचारों के आवेग को हम हाशिये पर नहीं डाल सकते।

बेशक नम्बूिद्रपाद कम्युनिस्ट नेता थे मगर राजनीति में उन्होंने आडम्बरहीनता और आम लोगों की सहज भागीदारी को इस प्रकार स्थापित किया कि इस राज्य की राजनीति अन्य दक्षिणी राज्यों की तुलना में लोकमूलक भाव लेकर चलना शुरू हुई और सम्पूर्ण राजनैतिक वातावरण पर इस प्रकार छा गई कि सत्ता में रहने वाली पार्टी कांग्रेस को भी इसी का अनुसरण करना पड़ा। वर्तमान सन्दर्भों में हम केरल का जिक्र इसलिए कर रहे हैं कि इस राज्य में भयंकर बाढ़ और अतिवृष्टि ने पूरे राज्य को तबाह कर डाला है। लगभग 15 दिन तक आई अतिवृष्टि ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया और उनकी रोजी-रोटी के साथ ही उनका बसेरा भी छीन लिया मगर एेसे ही मुसीबत के क्षण होते हैं जब हमारे उस लोकतन्त्र की परीक्षा होती जिसे हम लोगों के लिए, लोगों की, लोगों द्वारा बनाई गई सरकार की परिभाषा में निरूपित करते हैं।

बाढ़ से त्रस्त लोगों की मदद करने के लिए राज्य सरकार के मन्त्रियों ने जिस तरह स्वयं लोगों के साथ मिलकर हाथ में झाड़ू और सिर पर बोझा ढोते हुए मदद की वह समस्त देश के राजनीतिज्ञों के लिए बेनजीर मिसाल है। राज्य के जो-जो जिले प्रभावित हुए थे उनके लिए जिम्मेदार राज्य मन्त्रिमंडल के मन्त्रियों ने स्वयं लुंगी ऊंची बांध कर फंसे हुए लोगों को बचाने के काम में अन्य सरकारी व गैर सरकारी संगठनों के साथ काम किया। इस तरफ मीडिया की नजरें बहुत कम पड़ी हैं और अगर पड़ी भी हैं तो वे सरसरी तौर पर विपदा की भयंकरता के आवरण में मगर पूरे देश के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि केरल की राजनीति का असली आधार क्या है? कम्युनिस्टों या मार्क्सवादियों की विचारधारा से सहमत होने का कोई प्रश्न नहीं है बल्कि उस राजनैतिक संस्कृति से असहमत होने की भी कोई वजह नहीं है जो सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधियों और जनता में किसी प्रकार का भेद नहीं रहने देती और शासकों को मजबूर करती है कि वे सबसे पहले जनता के नौकर होने का अहसास जिन्दा रखें। इसके साथ ही इस राज्य के आम गरीब लोगों का हौंसला भी कम गौर करने लायक नहीं है। तिरुवनन्तपुरम् से बाढ़ की खबरों के बीच छह सौ से अधिक मछुआरों की नौकाएं समुद्र की तरफ कूच कर गईं और उन जिलों में पहुंच गईं जहां बाढ़ ने जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था। इन गरीब मछुआरों ने बिना किसी लालच के हजारों लोगों की जान अपनी जान जोखिम में डालकर बिना किसी लालच के बचाई।

समाज का यह अक्स इस राज्य की राजनैतिक संस्कृति को प्रभावित करने में सक्षम न रहा हो, एेसा किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। दरअसल राजनैतिक जीवन में सादगी का अनुपालन कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं है बल्कि राजनैतिक व्यवहार है। इस पर अमल करके हम जो पैगाम देते हैं वह सत्ता में आम लोगों की भागीदारी का ही देते हैं परन्तु यह किसी भी रूप में आडम्बरपूर्ण नहीं होना चाहिए लेकिन उत्तर भारत की राजनीति एेसी हो गई है कि इसमें नेता मन्त्री बनते ही स्वयं को शहंशाह समझने लगता है और उसमें शासक भाव जागृत हो जाता है जबकि लोकतन्त्र में शासक जैसी कोई चीज नहीं होती क्योंकि आम जनता जब चाहे सिंहासन पर जाकर बैठने की क्षमता रखती है। हम उसके इस अधिकार को चुनौती नहीं दे सकते। इसलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि सत्ता की बागडोर संभालने वाले हमेशा सेवा भाव से दबे रहें और जनता के सुख-दुःख में सहभागिता करें। एेसे नेता जनसंघ से लेकर कांग्रेस व सोशलिस्ट विचारधारा को मानने वाले तक में रहे हैं।

चाहे दीनदयाल उपाध्याय हों या डा. लोहिया या आचार्य नरेन्द्र देव या फिर कांग्रेस पार्टी के स्वतन्त्रता आन्दोलन से निकले अनगिनत नेता। सभी का रहन-सहन व व्यवहार आम भारतीय जैसा रहा है। जनता से जुड़ना लोकतन्त्र का आदि भाव है। इसमें यदि केरल हमें राह दिखाता है तो हमें राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को तोड़कर स्वयं को जनता से अधिकाधिक रूप से जोड़ना चाहिए और हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक राजनीतिज्ञ के पास भी एक वोट का वही अधिकार है जो किसी गरीब, मजदूर या वंचित के पास है मगर हम उत्तर भारतीयों ने स्वयं ही एेसी राजनैतिक संस्कृति को गले लगा लिया है जिसमें हम राजनीतिज्ञों को नया जिलेदार समझने लगे हैं। लोकतन्त्र इस संस्कृति काे निषेध करता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

nine − three =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।