काले धन के कुबेर - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

काले धन के कुबेर

कानपुर में कारोबारी पीयूष जैन के कानपुर और कन्नौज के ठिकानों से जिस तरह से जीएसटी इंटैलीजैंस और आयकर​ विभाग के छापों में जमीन और दीवारों ने नोटों की गड्डियां उगली हैं, 125 किलो सोना और अरबों की सम्पत्ति के दस्तावेज मिले, उससे पूरा देश स्तब्ध है।

कानपुर में कारोबारी पीयूष जैन के कानपुर और कन्नौज के ठिकानों से जिस तरह से जीएसटी इंटैलीजैंस और आयकर​ विभाग के छापों में जमीन और दीवारों ने नोटों की गड्डियां उगली हैं, 125 किलो सोना और अरबों की सम्पत्ति के दस्तावेज मिले, उससे पूरा देश स्तब्ध है। हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि पीयूष जैन पुराने स्कूटर पर चलता था यानी इसके पास एक गाड़ी तक नहीं। पीयूष जैन की साधारण जीवन शैली को देखकर पड़ोसी तो क्या कोई दूसरा भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि ये शख्स कालेधन का कुबेर होगा। पीयूष जैन को गिरफ्तार कर उसे 14 दिन की जुडिशियल रिमांड पर भेज दिया गया है, लेकिन कानपुर के इतिहास में कालेधन के कुबेर का अध्याय जुड़ गया है। उसके घरों से बरामद लाखों रुपए यह सोचने के​ लिए मजदूर कर रहा है कि आखिर इतनी रकम कहां से आई? अपना वैभव छिपाने के​ ​लिए उसने जो तरीका अपनाया था, अब उस पर भी लोगों को यकीन नहीं हो रहा। केन्द्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड के इतिहास की इस सबसे बड़ी नकदी बरामदगी के आंकड़े अभी और बढ़ेंगे और रहस्य की परतें भी प्याज के छिलकों की तरह उतेरेंगे। यह पूरा मामला आर्थिक अपराध से जुड़ा है, इसमें 7 वर्ष से ज्यादा की सजा का प्रावधान नहीं है। जीएसटी इंटैलीजैंस की टीम ने कोर्ट को बताया कि पीयूष जैन ने स्वीकार किया कि यह धनराशि उसी की है। 
पीयूष जैन का संबंध समाजवादी पार्टी से है या किसी अन्य दल से इसे लेकर हंगामा हो रहा है। इस छापेमारी के तार चुनावों से जोड़े जा रहे हैं। आयकर विभाग ने हाल ही में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेताओं पर छापेमारी की थी तो एक नेता ने 68 करोड़ की कर चोरी को कबूल भी कर लिया और जुर्माने सहित टैक्स अदा करना भी मान लिया है। छापों में कई इलैक्ट्रानिक उपकरण, डा​यरियां और दस्तावेज भी बरामद किए गए। डायरी में नोट है कि कब, किसे और कैसे घूस दी गई? शक के घेरे में पुलिस और प्रशासन के बड़े अधिकारी भी हैं।
छापों को लेकर आरोप लगाए जा रहे हैं कि यह चुनावों के दृष्टिगत खुन्नस निकालने के​ लिए प्रतिद्वंद्वी पार्टी से जुड़े लोगों पर चुनींदा ढंग से डाले जा रहे हैं, लेकिन चुनाव तो आजकल साल भर किसी न किसी राज्य में होते ही रहते हैं तो क्या एजैंसियां मूकदर्शक बन कर बैठी रहें? अगर एजैंसियां हाथ पर हाथ धरे बैठी रहें तो फिर आर्थिक अपराध अराजकता बन जाएंगे और पूरी की पूरी कर व्यवस्था ही ध्वस्त हो जाएगी।
कानपुर और कन्नौज में नोटों की गड्डियों के तार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से जोड़े जा रहे हैं। जिस तरह से दस-दस लाख के पैकेट बनाए गए थे, उससे इस बात की आशंका ने जोर पकड़ा कि इस धन का इस्तेमाल चुनावों में किया जाना हो सकता है। 
भारत में चुनावों के दौरान भारी पैमाने पर धन का दुरुपयोग चिंता का ​विषय है। चुनावों में धन, बल पर लगाम कसने के​ लिए निर्वाचन आयोग ने कई कोशिशें की हैं लेकिन फिर भी राज्य विधानसभाओं के चुनावों में करोड़ों रुपए जब्त किए जाते रहे हैं। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के ​लिए यह बहुत ही घातक है। राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग के बीच एक तरह से यह चूहे-बिल्ली के खेल की तरह होता है और यह खेल खत्म नहीं हो रहा। अब चुनाव बहुत महंगे हो गए हैं। विशेषज्ञ वर्षों से कह रहे हैं कि चुनाव में धन के बढ़ते इस्तेमाल से चुनावों में गरीबों के​ लिए अवसर कम हो रहे हैं। लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए एक प्रत्याशी अधि​कतम 70 लाख खर्च कर सकता है, जबकि राज्य के विधानसभा चुनावों में यह खर्च अधिकतम 28 लाख रुपए है लेकिन सच तो यह है कि राजनीतिक दल चुनावों में करोड़ों खर्च करते हैं। उम्मीदवार भी अपना खर्च पूरा नहीं दिखाते बल्कि अधिकतम सीमा से भी कम दिखाते हैं। यह साफ है कि जो करोड़ों का खर्च करेगा उसकी भरपाई लोकतांत्रिक व्यवस्था को कहीं न कहीं चोट पहुंचा कर ही की जाती है। यहीं से शुरूआत होती है घोटालों की। कोई वक्त था जब चुनावों में बाहुबल का इस्तेमाल होता था। चुनावी सुरक्षा व्यवस्था में सुधार के चलते बाहुबल की भूमिका खत्म हो चुकी है। अब दौर धन-बल का है। धन-बल ने चुनावों को बहुत खर्चीला बना दिया है। उम्मीदवारों के चुनावी खर्च का ब्यौरा देखें तो उसमें ट्रांसपोर्ट पर कोई खर्च, कार्यक्रमों पर कोई खर्च नहीं दिखाया जाता। क्या आज की व्यवस्था में इसे माना जा सकता है?
चुनावों में पोस्टर लगाने वाले से लेकर घर-घर जाकर प्रचार करने वाले, जुलूस निकालने वाले सब दिहाड़ीदार होते हैं। अब तो राजनीतिक दल चुनावों से साल भर पहले ही प्रचार शुरू कर देते हैं। कुछ लोग इस बात की वकालत करते हैं कि चुनाव तो लोकतंत्र का उत्सव है, जो भी खर्च होता है वह लोगों तक ही पहुंचता है तो इसमें बुरा क्या है? मार्च 2015 में आई लॉ कमीशन की रिपोर्ट में स्टेट फंडिंग की सिफारिश की गई थी लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी। कोई भी दल अपने घर पर अंकुश नहीं चाहता। अब तो परिवारवादी पार्टियाें के टिकट ही करोड़ों में बिकते हैं तो निष्पक्ष चुनावों की कल्पना करना मुश्किल है। अब सवाल यह है कि पीयूष जैन जैसे कालेधन के कितने ही कुबेर समाज में छिपे बैठे होंगे। क्या उसका धन चुनावों के लिए था, इस संबंध में ईमानदारी से समाजवादी पार्टी निष्पक्ष ढंग से जांच किए जाने की जरूरत है। कालेधन को चुनावी मुद्दा बनाया जाना ही चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

18 − seven =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।