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टुकड़ों में विपक्षी एकता

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में विपक्षी एकता ने धीरे-धीरे जिस तरह ‘जुमले’ का रूप लिया है उसका मुख्य कारण यह है कि इसके प्रयासों के पीछे कोई गंभीर राजनैतिक सोच न होकर ‘वक्ती मौका परस्ती’ ज्यादा होती है जिसकी वजह से किसी भी समय में विपक्षी एकता किसी निश्चित ढांचे में नहीं ढल पाती।

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में विपक्षी एकता ने धीरे-धीरे जिस तरह ‘जुमले’ का रूप लिया है उसका मुख्य कारण यह है कि इसके प्रयासों के पीछे कोई गंभीर राजनैतिक सोच न होकर ‘वक्ती मौका परस्ती’ ज्यादा होती है जिसकी वजह से किसी भी समय में विपक्षी एकता किसी निश्चित ढांचे में नहीं ढल पाती। वैचारिक ‘विषमता’ को लोकतान्त्रिक राजनैतिक प्रणाली में जब किसी एक ‘सांचे’ में ढालने की कोशिश की जाती है तो उसका लक्ष्य केवल सत्ता पाना रहता है और सत्ता प्राप्त होने पर यह ‘सांचा’ अपनी विपरीत तहों को अपने ही रंगों में खोलने लगता है। पिछले तीन दशकों में ऐसे कई प्रयास किये गये जो सत्ता के रहने तक ही सफल रहे जैसे एनडीए (वाजपेयी सरकार के दौरान) व यूपीए (मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान)। हालांकि केन्द्र में फिलहाल श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार एनडीए सरकार ही कहलाती है परन्तु 2014 से लेकर अभी तक इस सरकार का नेतृत्व करने वाली भाजपा को लोकसभा में अपने बूते पर ही स्पष्ट बहुमत प्राप्त है।
मगर इसके साथ हमारे सामने 1977 का वह उदाहरण भी है जब विभिन्न विचारधाराओं के राजनैतिक दलों ने इमरजेंसी के बाद अपना अस्तित्व समाप्त करके एकजुट जनता पार्टी बनाई थी मगर सत्ता में आने के बावजूद वह बिखर गई थी। इसके बिखरने की मुख्य वजह यह थी कि इस पार्टी में समाहित हुए विभिन्न दलों (जनसंघ, लोकदल, संगठन कांग्रेस, कांग्रेस फार डेमोक्रेसी आदि) में से किसी एक दल की स्थिति ऐसी  नहीं थी जिससे अन्य शामिल दल उसके साथ ही बन्धे रहने में अपना लाभ समझते रहे क्योंकि सभी की स्थिति में ज्यादा अंतर नहीं था। हालांकि जनता पार्टी का उस समय सबसे बड़ा घटक दल स्व. चौधरी चरण सिंह का लोकदल था परन्तु उसका गठन स्वयं 1975 में इमरजेंसी लगने से केवल छह महीने पहले ही कई राजनैतिक दलों का विलय करके हुआ था जिनमें भारतीय क्रान्ति दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, स्वतन्त्र पार्टी व बीजू पटनायक की कांग्रेस शामिल थी।
अतः मजबूत विपक्षी एकता की शर्त का खुलासा हमारे सामने 1998 में पहली बार तब हुआ जब केन्द्र में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी और 1999 में इसने अपने घटक दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबन्धन करके मैदान मारा। मगर इस गठबन्धन में भाजपा ही सभी अन्य सहयोगी दलों के लिए चुम्बकीय आकर्षण बनी रही क्योंकि लोकसभा में इसके लगभग 180 सांसद जीते थे। इसके बाद जब 2004 में एनडीए की पराजय हुई और लोकसभा में कांग्रेस पार्टी सर्वाधिक 146 सीटें लाई तो चुनाव के बाद यूपीए का गठन श्रीमती सोनिया गांधी ने किया और कई दल एनडीए का साथ छोड़ कर यूपीए में भी आ गये।  इसके बाद 2009 में यूपीए संगठित होकर चुनावों में गया परन्तु बिहार में श्री लालू प्रसाद यादव व स्व. रामविलास पासवान ने इससे अलग होकर चुनाव लड़ा और जबर्दस्त मुंह की खाई और स्व. पासवान स्वयं चुनाव हार गये और लालू जी की पार्टी मुश्किल से चार स्थान ही जीत पाई।
इसका निष्कर्ष राजनैतिक भाषा व गणित में यही निकलता है कि केन्द्र में वैकल्पिक गठबन्धन तभी संभव है जबकि किसी बड़े राष्ट्रीय दल के पीछे विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां बन्धी हुई रहें और उसकी विचारधारा मध्यमार्गी जैसी हो। मगर हाल ही में तेलंगाना के मुख्यमन्त्री के. चन्द्रशेखर राव मुम्बई की यात्रा करके आये हैं और उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री शिवसेना के नेता श्री उद्धव ठाकरे के साथ दो घंटे की लम्बी बातचीत करके विभिन्न क्षेत्रीय दलों का साझा गुट बना कर भाजपा का विकल्प तैयार करने का आह्वान किया और कहा कि आज देश को परिवर्तन की राजनीति की जरूरत है। इस सन्दर्भ में उन्होंने उसी राग को अलापा जो भाजपा की राजनीति के खिलाफ अक्सर अलापा जाता है। इस बातचीत में बदले की राजनीति का भी जिक्र किया गया और इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार बताया गया।
श्री ठाकरे से भेंट करने के बाद चन्द्रशेखर राव ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पंवार से भी भेंट की मगर श्री पंवार ने भेंट के बाद साफ कह दिया कि उनकी श्री राव से राजनैतिक विषयों पर बातचीत नहीं हुई है बल्कि विकास के मुद्दों पर ही बातचीत हुई है जबकि श्री राव ने सुझाव दिया था कि श्री पंवार के गृह क्षेत्र बारामती में सभी क्षेत्रीय दलों की बैठक बुला कर श्री पंवार उनमें एकता लाने की शुरूआत करें। श्री पंवार वर्तमान समय के सबसे वरिष्ठ सक्रिय राजनीतिज्ञ हैं अतः चन्द्रशेखर राव के प्रस्ताव पर उनकी इतनी ठंडी प्रतिक्रिया बताती है कि वह श्री राव की ‘कसरत’ को सिवाय जुबानी जमा-खर्च से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं।
उधर प. बंगाल की नेता सुश्री ममता बनर्जी भी कई बार क्षेत्रीय दलों में एकता स्थापित करके विकल्प तैयार करने की बात कह चुकी हैं। वह भी इस गलतफहमी में लगती हैं कि किसी एक राज्य में फतेह के झंडे गाड़ देने से किसी नेता या दल की राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता हो जाती है।  बेशक नेता किसी एक राज्य का हो सकता है मगर उसकी पार्टी का राष्ट्रीय जनाधार होना बहुत जरूरी होता है जिससे विभिन्न क्षेत्रीय दलों के लिए वह हर मोर्चे पर एक सहारा या अवलम्ब बनी रहे। हम पहले भी 90 के दशक में देख चुके हैं कि तमिलनाडु की नेता स्व. जयललिता के नेतृत्व में बने भाजपा व कांग्रेस विहीन कथित तीसरे मोर्चे की देश की जनता ने क्या हालत बनायी थी। तब से लेकर अब तक देश की राजनीति में गुणात्मक अंतर आ चुका है और पूरा राजनैतिक विमर्श दक्षिणमुखी हो चुका है। अतः विपक्षी एकता का मार्ग भी तभी निकल सकता है जब भाजपा के मुकाबले कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के साये में विभिन्न क्षेत्रीय दल अपने-अपने  राजनैतिक एजेंडे में समयानुसार संशोधन करके एकत्र हों और अपने ‘अवलम्ब’ की राष्ट्रीय ताकत का फायदा उठायें। विपक्षी एकता टुकड़ों मेें किस तरह हो सकती है। 

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