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संसद, सांसद और महुआ मोइत्रा

तृणमूल कांग्रेस की सांसद सुश्री महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता भाजपा के सांसद निशिकान्त दुबे की इस शिकायत पर जा रही है कि उन्होंने संसद में प्रश्न पूछने के लिए नाजायज तौर पर एक पूंजीपति दर्शन हीरानन्दानी से नाजायज तौर पर रिश्वत ली और उन्हें संसद में प्रश्न पूछने के लिए सीधे अपने कम्प्यूटर का ‘लाॅग इन पास वर्ड’ दिया। इसकी शिकायत जब दुबे ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से की तो उन्होंने जांच करने के लिए मामले को लोकसभा की ‘आचार समिति’ को सौंप दिया। अब यह समझा जा रहा है कि आचार समिति ने लाॅग इन पासवर्ड किसी अन्य व्यक्ति को दिये जाने के मामले को बहुत गंभीरता से लिया है और इसे विशेषाधिकार हनन से जोड़ते हुए महुआ मोइत्रा के इस आचरण को अवांछनीय माना है और इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरनाक बताया है। जहां तक प्रश्न पूछने के बदले धन लेने का आरोप है तो इसकी जांच देश की किसी जांच एजेंसी से कराने की सिफारिश की है। मगर संसद की भाजपा सांसद के नेतृत्व में गठित आचार समिति का यह फैसला सर्वसम्मति से नहीं है।
समिति में लोकसभा में दलगत शक्ति के आधार पर उनके सदस्यों को नामांकित किया जाता है। इस लिहाज से समिति में भाजपा सांसदों का बहुमत होना ही था। 15 सदस्यीय इस आचार समिति में सत्तारूढ़ एनडीए गठबन्धन के सदस्यों के बहुमत के बूते पर समिति का कोई भी प्रस्ताव बहुमत के आधार पर पारित हो ही सकता है। अतः महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता निरस्त करने में कहीं कोई अवरोध दिखाई नहीं पड़ता है। इसके लिए बेशक लोकसभा का अगला सत्र शुरू होने पर आवश्यक औपचारिक प्रक्रिया अपनाई जायेगी और सदन में उन्हें संसद से बाहर करने का प्रस्ताव पारित हो जायेगा। इस पूरे मामले में कानूनी पेंच यह है कि संसद की आचार समिति केवल महुआ मोइत्रा के संसद के भीतर किये गये आचरण पर ही विचार कर सकती है जबकि प्रश्न पूछने के लिए धन लेने का आरोप उसके दायरे में नहीं है क्योंकि यह एक फौजदारी मामला है। मगर संसद को यह पूरा अधिकार है कि वह अपने सदस्य के मामले में कोई भी आवश्यक कार्रवाई करे।
इस बारे में देश का सर्वोच्च न्यायालय 2007 में फैसला दे चुका है कि संसद के दोनों सदनों को अपने सदस्यों की सदस्यता के बारे में फैसला करने का सर्वाधिकार है। यह फैसला 2005 के संसद की आचार समितियों के ही उस फैसले के बारे में आया था जिसमें 11 सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी गई थी। इनमें दस सांसद लोकसभा के थे और एक राज्यसभा का था। 2005 में इन सभी 11 सांसदों को एक डिजीटल पोर्टल ‘कोबरा पोस्ट’ ने एक अपने पत्रकारों के जरिये उनकी पहचान छिपा कर स्टिंग आपरेशन किया था। जिसमें किसी कम्पनी के प्रतिनिधि बने पत्रकारों ने संसद में सवाल पूछने के लिए उन्हें मोटी रकम देने की पेशकश की थी। इसे कैमरे में कैद करके बाद में उसका प्रसारण एक निजी टीवी न्यूज चैनल पर कर दिया गया था। टीवी पर इस प्रसंग के प्रसारण को देखकर उस समय लोकसभा के अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने इसका संज्ञान स्वयं लिया और उसी दिन कांग्रेस नेता श्री पवन बंसल के नेतृत्व में एक सर्वदलीय समिति बनाकर इसकी जांच करने के आदेश दिये। इस समिति में तब भाजपा के सदन में उपनेता विजय कुमार मल्होत्रा, मार्क्सवादी पार्टी के मोहम्मद सलीम, समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव, कांग्रेस के सी. कुप्पुस्वामी। इस समिति ने जब अपनी रिपोर्ट सभी सांसदों की सदस्यता समाप्त करने के हक में दी तो भाजपा के नेता श्री मल्होत्रा ने इसके विपरीत अपनी असहमति जताते हुए कहा कि ‘मैं उस नजीर का हिस्सा नहीं बनना चाहता जिसमें बिना समुचित प्रक्रिया अपनाए सांसदों को संसद से बाहर निकाला जा रहा है। केवल न्यायालय ही इस बारे में कोई अन्तिम फैसला ले सकता है’। मगर समिति के बहुमत की सिफारिशें आने पर लोकसभा में उस समय में रक्षामन्त्री व सदन के नेता श्री प्रणव मुखर्जी ने प्रस्ताव रखा कि ‘समिति की राय में लोकसभा के दस सांसदों का आचरण बहुत ही अनैतिक व एक सांसद की गरिमा के प्रतिकूल है। अतः उनकी सदस्यता समाप्त करने की सिफारिश यह सदन करता है’। मगर जब सदन में यह प्रस्ताव पारित हो रहा था तो उस समय भाजपा के विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण अडवानी के नेतृत्व में इस पार्टी के सांसदों ने वाकआऊट किया और श्री अडवानी ने इसे किसी सांसद के लिए ‘मृत्यु दंड’ जैसा बताया। जिन दस लोकसभा सांसदों की सदस्यता गई उनमें छह भारतीय जनता पार्टी के थे जिनमें एक सांसद छतरपाल सिंह लोढा राज्यसभा के भी थे जिनकी सदस्यता राज्यसभा की आचार समिति ने ली।
तीन सांसद बहुजन समाज पार्टी के थे और एक-एक सांसद कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल के थे। उन सभी के नाम लिखने का अब यहां कोई औचित्य नहीं है। संसद के इस फैसले को बाद में सर्वोच्च न्यायालय में कुछ बर्खास्त सांसदों ने चुनौती दी जिसमें न्यायालय का फैसला उनके खिलाफ ही आया। मगर 2009 में दिल्ली पुलिस ने पूरे घपले को स्टिंग आपरेशन के जरिये उजागर करने वाले कोबरा पोस्ट के दो पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जिस पर उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में गुहार लगाई और उच्च न्यायालय ने उनके खिलाफ लगाये सभी आरोप निरस्त कर दिये परन्तु 2017 में एक विशेष अदालत ने सांसदों के खिलाफ रिश्वत लेने का आरोपपत्र दायर करने का आदेश दिया जिन पर अभी तक मुकदमा चल रहा है। मगर महुआ मोइत्रा के मामले में अब राजनैतिक दलों ने अपने पाले बदल लिये हैं। आचार समिति में शामिल विपक्षी सांसदों ने समिति की कार्यवाही का बहिष्कार भी किया और असहमति पत्र भी लिखा। पूरे मामले में महुआ मोइत्रा ने भी समिति के अध्यक्ष के खिलाफ जो आरोप लगाये हैं वे भी लोकतन्त्र में जन समीक्षा के घेरे में आते हैं परन्तु सांसद के भविष्य के बारे में संसद को ही अन्तिम फैसला लेने का अधिकार है इसमें भी कहीं कोई आशंका नहीं है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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