आज विजय दशमी पर्व है लेकिन रावण बहुत उदास है, हताश है क्योंकि जितने उल्लास से उसके पुतले जला कर देशवासी खुश होते थे, वह इस बार गायब हैं। रावण, मेघनाद और कुम्भकरण के सबसे ऊंचे पुतले बनाने की होड़ नजर नहीं आई क्योंकि कोरोना की महामारी के चलते उत्सव फीके हो गए हैं। लोग अभी-अभी लॉकडाउन से बाहर निकले हैं, फिलहाल उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा कि उनके जीवन की प्राथमिकताएं क्या हैं। आम आदमी के लिए विजय दशमी अब पुतलों के दहन की तारीख बन कर रह गई है। रावण हर बार अट्टाहास करता है और कहता रहा है-
‘‘सुनो कान खोल कर सुनो
मैं हूं रावण, मैं ही कंस और मैं ही हिरण्यकश्यप
तुम जला कर हर वर्ष मुझे
मनाते हो खुशियां करते हो गर्व
देख कर तुम्हारा यह विजय पर्व
हंसता हूं मन ही मन
सोचता हूं कितने अंधे हैं ये लोग
जो देख नहीं पाते कि उनके हृदय
के एक कोने में कर रहा हूं मैं ही विश्राम
यदि कल था दशानन तो आज सैकड़ों हैं मेरे मुख
सैकड़ों हैं मेरे हाथ और सैकड़ों हैं मेरे हाथों में नागपाश।’’
कोरोना महामारी के चलते बेरोजगार हुए मजदूर, रोजी-रोटी छिन जाने से अपने गांवों को पलायन करके टूट चुके मजदूर अभी खुद और परिवार का पेट पालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मध्यम वर्ग इसलिए परेशान है और सोचने को विवश है कि उसकी बचत तो सारी लॉकडाउन में खत्म हो गई, भविष्य में परिवार को आत्मनिर्भर बनाने के लिए न जाने कितना समय लगेगा। धनाढ्य वर्ग उद्योग, व्यापार ठप्प रहने से घट गई जमा पूंजी को लेकर चिंतित है।
इस वातावरण के बीच रावण इसलिए भी उदास और चिंतित है क्योंकि समाज में जिस तरह से खतरनाक लोग सामने आ रहे हैं, वह किसी मिथकीय रावण से कहीं अधिक दुर्दांत नजर आ रहे हैं। रावण सोच रहा है कि उसके तो दस सिर थे लेकिन आज के लोगों में उसके दस सिरों के मुकाबले कहीं अधिक जहर भरा हुआ है। रावण सोच रहा है कि ‘‘मैंने अपहरण करने के बावजूद सीता को स्पर्श तक नहीं किया लेकिन आज हाथरस से होशियारपुर तक ऐसी वीभत्स घटनाएं सामने आ रही हैं, जिससे युवतियों से सामूहिक बलात्कार से लेकर हत्याएं की गईं और लोग 8 वर्ष की बालिकाओं को भी अपनी यौन पिपासा शांत करने के लिए शिकार बना डालते हैं। कोरोना काल में कितने योद्धाओं -डाक्टरों, नर्सों, अन्य मेडिकल कर्मचारियों और पुलिस अधिकारियों से लेकर कांस्टेबलों तक ने दूसरों की जान बचाने के लिए अपनी जान दे दी लेकिन चंद मिनट की रस्मी श्रद्धांजलि के बाद सब अपनी ही आपाधापी में फंस गए। वोटों की राजनीति के लिए भाषा की सभी मर्यादाएं टूट रही हैं। राजनीतिक दल कोरोना वायरस के विस्तार को रोकने के लिए किसी नियम का पालन नहीं कर रहे। भीड़ में न तो मास्क दिखाई देते और न ही सोशल डिस्टेंसिंग। ऐसे-ऐसे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं कि रावण भी देखकर हतप्रभ है। अर्थतंत्र तस्करी, मनीलांड्रिंग और अन्य अपराधों से जकड़ा हुआ है और ड्रग्स माफिया हर क्षेत्र में युवा वर्ग को नशेड़ी बनाने पर तुला हुआ है। वास्तविक मुद्दों पर कोई गम्भीर चिंतन नहीं हो रहा बल्कि अर्थहीन मुद्दे उछाले जा रहे हैं।
समाज अब आत्मा (राम) की आवाज को अनसुनी करके तथा विवेक लक्ष्मण के निर्देश की अनदेखी करके विषय (कामना) रूपी युग के पीछे दौड़ता है तब दुर्गणरूपी दशानन इंद्रियों को वशीभूत कर चित्त-स्वरूपा सीता का हरण कर लेता है। हैरानी होती है कि कोरोना काल में जब लोग इसके प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं कि संक्रमण से किसी की मौत हो जाने के बावजूद रिश्ते कहीं दूर छिटक गए। बेटा पिता के शव को छूने से डरने लगा और बेटे की मौत पर पिता दस फुट दूर रहकर खामोश देखता रहा। जीवन के सत्य को जानते हुए भी लोग घिनौने अपराध कर रहे हैं।
इतिहास का कोई भी कालखंड उठा लें, देवों के विरोध में दानव, सुरों के विराेध में असुर, सज्जनों के विरोध में गुंडे सदा खड़े दिखाई देते हैं। सत्ता की लालसा या धन सम्पत्ति की लूट, अधिकाधिक धरती पर अधिकार करने की इच्छा हो या विचारों को जबरन दूसरों पर थोपने की जिद, यह संघर्ष हमेशा होता आ रहा है। रावण जानता है कि युग के साथ युग का धर्म बदल जाता है और इसके साथ ही बदल गए असुरों के कार्यकलाप। आज देश में ही नहीं पूरे विश्व में असुर संगठित हो चुके हैं। और लगातार असुर धरती को प्रलयंकारी विध्वंस में झोंकने की तैयारी करते रहते हैं। ये सारे असुर इतने प्रभावशाली हैं कि कहीं भी, किसी के साथ मिलकर कहर ढहा दें। हम अपने ही घर में असुरों से त्रस्त हैं।
रावण को अपने तप पर भरोसा है, उसे तो किये की सजा मिली, उसका विश्वास पक्का है कि हर युग में रामत्व की ही जीत होती है और इस बार भी होगी। रावण का आप सबसे आग्रह है कि उसके पुतले जलें न जलें इस पर्व पर वर्चुअल दशहरा देखकर अपने भीतर बैठेे रावण को जलाएं। अपने भीतर विसंगतियों और दुर्गुणों के रावण का खात्मा करना ही रावण दहन का सार्थक प्रतीक होगा। विजय दशमी पर्व में निहित आध्यात्मिक संदेश को पढ़ें, तभी त्यौहार सार्थक सिद्ध होगा।