भारत की स्वतन्त्रता के बाद संसदीय लोकतन्त्र अपनाये जाने के बाद भारतीय दंड संहिता विधान की धारा 124(ए) को बरकरार रखना इसलिए अनुचित था क्योंकि संसदीय प्रणाली के लोकतन्त्र में सत्ता या सरकार की कटु आलोचना से लेकर शासन की नीतियों के खिलाफ जन आन्दोलन चलाना इस प्रणाली का अन्तरंग हिस्सा था और पूरी तरह अहिंसक रास्ते से जनता का समर्थन प्राप्त करते हुए सरकार बदलना भी इसी लोकतन्त्र का राजनैतिक धर्म था। लोकतन्त्र में सरकार डंडे के बूते पर नहीं चलती बल्कि ‘इकबाल’ यानि प्रतिष्ठा के भरोसे चलती है और संविधान द्वारा नियत किये रास्ते पर चलती है। इस प्रणाली में बेशक शासन चलाने का अधिकार जनता की मर्जी से ही पूरी राजनैतिक चुनावी प्रणाली का पालन करते हुए कुछ लोगों को मिलता है मगर वे शासक या हुक्मरान पारंपरिक राजसत्ता के नियमों के अनुसार नहीं होते बल्कि जनता द्वारा ही चुने गये ऐसे नुमाइन्दें होते हैं जो केवल पांच वर्ष के लिए सत्ता से जुड़े सभी प्रतिष्ठानों के अभिभावक (केयर टेकर) होते हैं और लोगों की अमानत का संरक्षण करते हैं जिसे राष्ट्रीय सम्पत्ति कहते हैं। इस प्रकार लोकतन्त्र में ‘मालिक’ नहीं होते बल्कि ‘संरक्षक’ होते हैं। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी गई सरकार किसी जागीर की मालिक नहीं होती बल्कि केवल ‘प्रबन्धक’ होती है।
जब 1970 में ब्रिटिश सरकार यह कानून लाई थी तो उसका उद्देश्य केवल लन्दन में बैठी महारानी विक्टोरिया की हुकूमत को भारत में इस तरह पुख्ता और मजबूत करना था कि उसके खिलाफ कोई भी हिन्दोस्तानी बगावत करने या सिर उठाने की हिम्मत ही नहीं कर सके। वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद का दौर था। मगर इससे केवल 12 साल पहले ही 1857 में भारत के देशी राजे-रजवाड़ों ने तत्कालीन ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज के खिलाफ बगावत करते हुए दिल्ली के लालकिले की गद्दी पर बैठे अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को भारत का शहंशाह घोषित कर दिया था और उसके नेतृत्व में भारतीयों की हुकूमत कायम करने का ऐलान कर दिया था जिसे ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौजों ने अन्य देशी राजे-रजवाड़ों की मदद से ही विफल बना दिया था। इसके बाद कम्पनी ने हिन्दोस्तान की पूरी सल्तनत को ब्रिटिश की महारानी विक्टोरिया को बाकायदा भारी रकम की एवज में बेचा और तब जाकर भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना। अतः 1870 में जो राजद्रोह कानून बनाया गया वह इसी पृष्ठ भूमि में था क्योंकि तब तक भारत के लोगों को 1857 के विद्रोह की यादें ताजा थीं और यह नहीं भूले थे कि अंग्रेजों ने उनके बादशाह को कैद करके रंगून भिजवा दिया था और क्रान्तिवीरों को सरेआम चौराहों पर लटका कर फासियां दी थीं। यहां तक कि मुगल शहजादों के सिर काट कर उन्हें तश्तरी में सजा कर बहादुर शाह जफर के पास यह कह कर भेजे गये थे कि कम्पनी की तरफ से बादशाह के हुजूर में तरबूज का नजराना पेश किया गया है। मगर केवल 1870 में ही ब्रिटिश सरकार ने एेसा कानून नहीं बनाया बल्कि 1919 में भी ‘रोलेट एक्ट’ के नाम पर भी किसी भारतीय को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बोलने तक को गुनाह में शामिल कर दिया।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए इसी साल अमृतसर में जलियांवाला बाग कांड भी हुआ था, जिसमें हजारों अहिंसक भारतीय प्रदर्शनकारियों को अंग्रेजी फौज ने गोलियों से भून दिया था। इसके बाद का इतिहास भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास है जिसमें महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक मार्ग से व्यापक जन आन्दोलन चला और क्रान्तिकारियों की तरफ से भी अंग्रेजी शासन खत्म करने की योजनाएं बनती रहीं और अन्त में 15 अगस्त, 1947 को जिन्ना के जहरीले हिन्दू विरोध के बयान पर अंग्रेजों ने पाकिस्तान बना डाला। महात्मा गांधी के अहिंसक स्वतन्त्रता आन्दोलन सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह स्वतन्त्र भारत में आम हिन्दोस्तानी को उसका आत्म गौरव व आत्म सम्मान लौटाना चाहते थे जो कि अंग्रेजों के शासन के दौरान दास या गुलाम के भाव में दब गया था। इसलिए स्वतन्त्र भारत में संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का अपनाया जाना आजादी के आन्दोलन की तर्कपूर्ण परिणिती थी। परन्तु इस प्रणाली में राजद्रोह की परिभाषा का पूरी तरह बदलना स्वाभाविक था क्योंकि लोकतन्त्र की आधारशिला ही असहमति या मतभेद अथवा सकारात्मक विरोध होता है। यह विरोध संवैधानिक ही होता हैं क्योंकि इस प्रणाली के तहत जितनी भी राजनैतिक पार्टियां होती हैं वे केवल संविधान सम्मत ही हो सकती हैं और उनकी व्यवस्था व कार्यप्रणाली देखने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग के पास रहती है। सभी राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को यहां तक कि सामान्य नागरिक को भी सरकार की आलोचना करने का अधिकार संविधान देता है मगर केवल अहिंसक तरीके से ही । हिंसा का प्रयोग करने पर या अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसक तरीकों का प्रयोग करने पर तुरन्त भारत की दंड सहिता काम करने लगती है। इसके साथ समय-समय पर सरकारें एेसे कानून भी लाती रहती हैं जिससे राष्ट्र विद्रोही गतिविधियों को रोका जा सके जैसे टाडा या पोटा अथवा वर्तमान में यूएपीए (गैर कानूनी प्रतिरोधक कानून)। वास्तव में 1962 में ही पं. जवाहर लाल लेहरू को राजद्रोह कानून को निरस्त कर देना चाहिए था जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे अनावश्यक बताया था। मगर सरकार चाहे किसी भी राजनैतिक दल की हो अपने हाथ में एक ब्रह्मास्त्र रखना चाहती है। इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने इस बाबत दायर एक याचिका के सन्दर्भ में केन्द्र सरकार से पूछा है कि व राजद्रोह कानून के बारे में अपना पक्ष पांच मई तक रखे। यह 21वीं सदी चल रही है और भारत का लोकतन्त्र भी अब परिपक्व हो चला है। अतः वक्त की जरूरत के मुताबिक काम किया जाना चाहिए।