डॉक्टर बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर और अन्य लोगों द्वारा तैयार किए गए भारतीय संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि भारत के सभी लोगों को न्याय पाने का अधिकार है और यह प्रयास किया जाए कि भारत के किसी भी व्यक्ति के साथ अन्याय न हो फिर चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, मत या मजहब का क्यों न हो। न्याय की देवी की प्रतिमा को देखें तो उसकी आंखों पर पट्टी बंधी दिखती है यानि न्याय की देवी के हाथ में तराजू और तलवार होने के साथ-साथ आंखों में पट्टी इंसाफ की व्यवस्था में नैतिकता के प्रतीक माने जाते हैं। जिस तरह ईश्वर सभी को बिना भेदभाव किए एक समान रूप से देखते हैं उसी तरह न्याय की देवी भी सबको समान रूप से देखती है, ताकि न्याय प्रभावित न हो। कहते हैं कि न्याय सभी के साथ होना चाहिए लेकिन समाज को न्याय होता दिखना भी चाहिए। हालांकि न्याय की देवी की आंखों में पट्टी की अवधारणा को कानून के अंधेपन से भी जोड़कर देखा जाता है। हालांकि न्याय व्यवस्था को लेकर सवाल उठते रहे हैं। अक्सर यह कहा जाता है ‘‘न्याय में देरी करना न्याय को नकारना है और न्याय में जल्दबाजी करना न्याय को दफनाना है।’’ न्याय प्रणाली में लगातार सुधार भी किए जाते रहे हैं। लेकिन साथ ही न्याय प्रणाली की खामियों पर भी गम्भीर बहस होती रही है। इस सबके बावजूद भारत में न्यायपालिका की साख बरकरार है और लोगों का भरोसा न्यायपालिका पर बना हुआ है।
भारत की न्यायपालिका ने एक के बाद एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसले दिए हैं। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के निकुनिवया में 3 अक्तूबर, 2021 को हुए जिस कांड ने देश को हिला कर रख िदया था उस मामले में केन्द्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा समेत कुल 14 लोगों के खिलाफ जिला अदालत ने आरोप तय कर दिए हैं। गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा पर आरोप है कि उसने कि सानों को जान से मारने और उन्हें अंग-भंग करने की नीयत से अपनी जीप से रौंद दिया था। एक दिन पहले ही जिला कोर्ट ने आशीष मिश्रा समेत सभी आरोपियों की डिस्चार्ज अर्जी खारिज कर दी थी। सभी आरोपियों ने कोर्ट में याचिका दायर कर कहा था कि वे निर्दोष हैं और उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया। लखीमपुर हिंसा में 4 किसानों सहित 8 लोग मारे गए थे। किसानों का एक गुट प्रदर्शन कर रहा था तभी एक एसयूवी ने चार किसानों को कुचल दिया था। इससे गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने भाजपा के दो कार्यकर्ताओं और एक ड्राइवर को पीट-पीट कर मार डाला था। हिंसा में स्थानीय पत्रकार की भी मौत हो गई थी। इस हिंसा के बाद देशभर के किसानों में आक्रोश भड़क उठा था। आशीष मिश्रा को बचाने के लिए बहुत कुछ किया गया। अलग-अलग कहानियां गढ़ी गईं। कभी यह कहा गया कि जिस गाड़ी से किसानों को कुचला गया उसमें आशीष मिश्रा था ही नहीं। तब किसान परिवारों को न्याय दिलाने के लिए देशभर के किसान उठ खड़े हुए थे।
इसके बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आशीष मिश्रा को जमानत दे दी जिस पर मृतकों के परिवारों और किसान संगठनों ने सवाल खड़े किए। सबसे बड़ा सवाल तो यह खड़ा हो गया था कि क्या इस देश में किसानों को कुचलने वाले को जमानत दिया जाना उचित है। क्या इस देश में बड़े मंत्री के बेटे को जमानत आसानी से मिल जाती है। तब भी देश की सर्वोच्च अदालत ने कड़ा संज्ञान लेते हुए आशीष मिश्रा की जमानत रद्द कर दी थी और उसे एक सप्ताह के अन्दर आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने आशीष मिश्रा की जमानत मंजूर करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर सवाल उठाए थे। न्यायपालिका का किसी भी मुद्दे पर राजनीतिक समर्थन या विरोध से कोई लेना-देना नहीं होता। कोई कितना भी उच्च पद पर हो इससे भी न्यायपालिका पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अदालतें मामलों को संविधान पर कसकर ही अपना फैसला देती हैं। समाज के विभिन्न वर्ग अपनी सुविधानुसार अपना-अपना मत प्रकट करते रहते हैं मगर इस मत का भी सर्वोच्च न्यायालय की नजर में कोई महत्व नहीं होता। देश में न्यायपालिका का रुतबा सरकार से पृथक स्वतंत्र इसलिए रखा गया है ताकि भारत की राजनीतिक प्रशासनिक प्रणाली केवल संविधान का पालन करते हुए चले। भारत में कुछ ताकतें न्यायपालिका को नीचा दिखाने की कोशिश करती रही हैं लेकिन न्यायपालिका ने अपनी सर्वोच्चता हमेशा साबित की है।
न्यायपालिका पूरी तरह से स्वतंत्र संस्था है जिसका कारण यह है कि वह केवल देश के संविधान के प्रति जवाबदेह है। वैसे भी जवाबदेही लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है जो किसी संस्था को संवेदनशील बनाती है। साथ ही पारदर्शिता जवाबदेही को सुगम बनाती है। कोई भी सार्वजनिक संस्थान या सार्वजनिक पदाधिकारी जवाबदेही से मुक्त नहीं है। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार निचली अदालतों के फैसले पलटते हुए लोगों को न्याय सुनिश्चित किया। लखीमपुर खीरी केस में भी ऐसा ही हुआ। देश की निचली अदालतों के कामकाज को लेकर कई प्रश्नचिन्ह लगाए जाते रहे हैं। न्यायप्रणाली काफी महंगी हो चुकी है और मुकद्दमे लटकते रहते हैं। अभी भी न्यायप्रणाली में व्यापक सुधार की जरूरत है। इन सबके बावजूद देश की उच्च अदालतों की साख जनता के बीच कायम है। इसी साख को कायम रखने के लिए न्यायाधीशों, वकीलों और न्यायपालिका से जुड़े हर व्यक्ति को सजग रहकर अपना काम करना होगा, क्योंकि जिस दिन न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा उठा तो फिर बचेगा क्या?
आदित्य नारायण चोपड़ा
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