महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर भाजपा व शिवसेना के बीच जिस प्रकार की रस्साकशी बदस्तूर जारी है उसे देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि चुनावों से पूर्व दोनों पार्टियों में बना गठबन्धन ‘सामूहिक जवाबदेही’ के सिद्धान्त पर आधारित न होकर सत्ता के फायदों पर टिका हुआ था जिसका पर्दाफाश चुनाव परिणामों ने बड़ी खूबसूरती के साथ कर डाला। शिवसेना को यह नहीं भूलना चाहिए कि केन्द्र की मोदी सरकार में उसकी भागीदारी है। भाजपा ने गठबन्धन धर्म निभाते हुए सरकार में उसकी शिरकत इस हकीकत के बावजूद रखी है कि वह अकेले ही अपने 303 लोकसभा सांसदों के बूते पर पूर्ण बहुमत की सरकार बना सकती थी।
इतना ही नहीं भाजपा ने श्री राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के लोकसभा में केवल छह सांसद होने के बावजूद उनकी पार्टी के सांसदों को भी मन्त्री पद बख्शा है। नीतीश बाबू के जनता दल (यू) के साथ भाजपा का गठबन्धन बिहार में 2017 में ‘अलटू-पलूट चचा’ राजनीति के सिरे चढ़ने पर ही हुआ परन्तु केन्द्र में भाजपा ने इस पार्टी को मन्त्री पद की पेशकश की थी। भाजपा ने राज्यसभा में उपसभापति का पद भी अपने इस नये सहयोगी दल को देकर बड़ा दिल ही दिखाया। नीतीश बाबू बिहार में लालू जी के राष्ट्रीय जनता दल से पल्ला छुड़ा कर भाजपा के दरवाजे पर याचक बनकर कैसे आये और किन परिस्थितियों में उन्होंने उसी भाजपा के साथ मिलकर 24 घंटे के भीतर ही पुनः सरकार बनाई जिसके खिलाफ गला तर कर-करके उन्होंने 2015 का विधानसभा चुनाव लालू जी के गले में ‘बहियां’ डाल कर लड़ा था, सवाल उसका नहीं था बल्कि सवाल यह था कि भाजपा ने अपने एक नये सहयोगी दल के साथ कैसा व्यवहार किया ? जाहिर है कि भाजपा ने बड़े भाई की भूमिका का निर्वाह पूरी निष्ठा के साथ किया था।
राजनीति में मजबूरियां-मजबूतियां चलती रहती हैं परन्तु गठबन्धन धर्म पर इसका प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। पिछले पूरे पांच साल भी महाराष्ट्र में शिवसेना व भाजपा की मिलीजुली सरकार श्री देवेन्द्र फड़णवीस के नेतृत्व में चली है और शिवसेना उस समय भी संख्या बल में भाजपा से काफी नीचे थी। अब 2019 के चुनाव परिणामों ने ऐसा कौन सा जादू कर दिया है कि शिवसेना को आधे कार्यकाल के लिए अपना मुख्यमन्त्री चाहिए? नई विधानसभा में भाजपा की सदस्य संख्या भी कम हुई है और शिवसेना की भी। आनुपातिक दृष्टि से गठबन्धन की आन्तरिक शक्ति समीकरण में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है जबकि आम जनता ने चुनावों में इस गठबन्धन को 288 सदस्यीय विधानसभा में पूर्ण बहुमत लगभग 160 सीटें देकर दिया है।
गौर करने वाली बात यह है कि पांच साल पहले हुए राज्य के चुनाव में भाजपा व शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था और परिणामों के आने के बाद इन दोनों पार्टियों में गठबन्धन तैयार हुआ था। 2014 में भी शिवसेना ने सरकार गठन की प्रक्रिया में पहले कुछ नखरेबाजी दिखाई थी मगर तब भी केन्द्र की मोदी सरकार में शिवसेना शामिल थी और मुंबई महानगर पालिका में भी दोनों पार्टियां मिलकर ही नगर प्रशासन चला रही थीं। आज भी यही स्थिति है। सवाल उठना लाजिमी है कि शिवसेना के हाथ में वर्तमान चुनावों के बाद कौन सा अलादीन का चिराग लग गया है कि उसे ढाई साल के लिए अपने ‘चश्मोचिराग’ आदित्य ठाकरे को मुख्यमन्त्री पद पर बैठाने की मोहलत दे दी जाये?
भाजपा के नजरिये से ही नहीं बल्कि सामान्य गठबन्धन के नजरिये से भी यह जिद ऐसी लगती है जैसे कोई बच्चा खिलौने लेने की हठ पर अड़ गया हो? माफ कीजिये राजनीति बच्चों का खेल नहीं है और महाराष्ट्र कोई ऐसा राज्य नहीं है जिसकी कुर्सी को किसी राजनीतिक खानदान में पैदा होने वाले ‘लाडले कुंवर’ को सौंप दिया जाये। महाराष्ट्र भारत की आर्थिक ताकत का सबसे शक्तिशाली इंजन है और मुम्बई इसकी वित्तीय राजधानी है। बड़े अदब के साथ मैं निवेदन करना चाहता हूं जब से शिवसेना जैसी पार्टी मुम्बई के रास्ते महाराष्ट्र में फैली है तभी से इस राज्य में राजनीति और माफिया का तेजाबी गठजोड़ पैदा हुआ है।
मराठावाद के नाम पर राजनैतिक परिवारों की सम्पत्तियों में बेहिसाब इजाफा बताता है कि राज्य की राजनीति के शुद्धिकरण की सख्त जरूरत है (वैसे पूरे देश में ही यह कार्य हो जाये तो बेहतर होगा) इस हकीकत के बावजूद भाजपा और शिवसेना का गठबन्धन कई दशकों पुराना है और दोनों पार्टियों को लगता है कि राज्य में उनके लिए यह आदर्श राजनैतिक समागम है। इस बात का फैसला राजनैतिक दलों पर ही छोड़ना बेहतर होता है परन्तु आम जनता के जनादेश को कोई भी दल केवल अपनी सत्ता की ‘हवस’ पर कुर्बान नहीं कर सकता मगर क्या कयामत है कि कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य जनाब हुसैन दलवई में जोश इस तरह उमड़ रहा है जैसे बासी कढ़ी में उबाल आता है और हुजूर अपनी पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को खत लिखकर फरमा रहे हैं कि शिवसेना अगर राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाती है तो कांग्रेस को इसे समर्थन दे देना चाहिए! जब कांग्रेस के भीतर ही ऐसे खुदकुश दिलेर मौजूद हों तो उसे बाहर के हमले की क्या दरकार!
हुजूर फरमा रहे हैं कि इमरजेंसी के दौरान शिवसेना ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया था और वह कांग्रेस के साथ थी। क्या दूर की कौड़ी लेकर आये हैं बन्दापरवर कि हर कांग्रेसी बांस पर चढ़ कर ‘जय इमरजेंसी’ चिल्लाने लगे। इसी दिमागी दिवालियेपन ने कांग्रेस को रसातल में फेंका है, इसके बावजूद इसके चन्द ‘खुदआरा’ नेताओं की आंखें नहीं खुल रही हैं। कांग्रेस को इस मौके पर पूरे जोर-शोर से ऐलान करना चाहिए कि वह विपक्ष में बैठेगी, जिसे सरकार बनानी है वो बनाये। यह तो इस मुल्क की जनता है जो कांग्रेस को जिन्दा रखे हुए है वरना इसके नेताओं ने तो इसे चुनावों से पहले ही मुर्दा समझ कर सिर पर कफनी बांध ली थी।
था जिन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग जर्द था !