कोरोना वायरस से फैली महामारी देश के भविष्य पर मंडरा रही काली छाया है। रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक रिपोर्ट में कहा है कि लॉकडाउन का सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। इस महामारी से पहले अर्थव्यवस्था के 2020-21 में मंदी से उबरने की आशाएं जग रही थीं, लेकिन अब परिदृश्य पूरी तरह ही बदल गया है। रिजर्व बैंक ने 31 मार्च को खत्म हुए वित्तीय वर्ष यानी 2019-20 में विकास दर पांच फीसदी रहने का अनुमान लगाया है। सरकार और केन्द्रीय बैंक के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस समय यही है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर कैसे लाया जाए। पहले ही मंदी से जूझ रही अर्थव्यवस्था पर कोरोना वायरस संकट की चोट के बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने कई अहम ऐलान किए हैं। इसमें लांग टर्म रेपो आपरेशंस के लिए 50 हजार करोड़ की रकम शामिल है। इसके अलावा नाबार्ड, सिडबी और नेशनल हाउसिंग बैंक जैसी संस्थाओं को 50 हजार करोड़ की विशेष वित्तीय सुविधा दी जाएगी। आरबीआई के प्रमुख शक्तिकांत दास की सभी घोषणाओं का उद्देश्य यह है कि बाजार में लम्बे समय तक नकदी की कमी न हो। आरबीआई का कहना है कि हालात को देखते हुए अगर और जरूरत पड़ी तो सिस्टम में और नकदी भी डाली जा सकती है।
सरकार ने 20 अप्रैल से कुछ क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियां शुरू करने के लिए कदम उठाए लेकिन कारोबारियों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत धन की है। हाथ में पैसा हो तो काम शुरू हो। केन्द्रीय बैंक ने रेपो रेट को तो स्थिर रखा है लेकिन रिवर्स रेपो रेट में 0.25 फीसदी कमी की है। इसका मकसद यही है कि बैंक अपनी नकदी रिजर्व बैंक के पास रखने की बजाय यह धन उद्योगों को दे। जब तक छोटे उद्योगों के पास पैसा नहीं होगा, तो उत्पादन भी शुरू नहीं होगा। महामारी से उद्योगों के साथ-साथ कृषि क्षेत्र पर काफी प्रभाव पड़ा है। नाबार्ड को 15 हजार करोड़ रुपए, सिडबी को दस हजार करोड़ और राष्ट्रीय आवास बैंक को 25 हजार करोड़ इसलिए दिए गए हैं ताकि यह वित्तीय संस्थान कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र, छोटे उद्योगों, आवास वित्त कम्पनियों, गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों और सूक्ष्म वित्त संस्थानों को लम्बी अवधि के लिए कर्ज दें। इसके अलावा केन्द्रीय बैंक ने राज्यों को भी राहत देते हुए अग्रिम की सीमा तीस फीसदी बढ़ा कर 60 फीसदी कर दी है जो तीस सितम्बर तक जारी रहेगी। इस समय राज्य सरकारों पर काफी बोझ है क्योंकि उनके वित्तीय संसाधनों का बड़ा हिस्सा कोरोना वायरस से निपटने में खर्च हो रहा है। उन पर अपने कर्मचारियों को वेतन देने की जिम्मेदारी है, लॉकडाउन के चलते कहीं से राजस्व आ नहीं रहा। राज्य सरकारें जीएसटी माह में अपने बकाये की मांग पहले ही कर रही हैं।
सरकार ने इससे पहले पौने दो लाख करोड़ के राहत पैकेज का ऐलान किया था। इस वक्त सरकार कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ रही है। उसे चिकित्सा जरूरतों को पूरा करना है तो दूसरे समाज के उस तबके की मदद भी करनी है जो लॉकडाउन के चलते हाशिये पर आ गया है। कोरोना का मुकाबला सरकार बड़ी सोच के साथ कर रही है। देखना यह है कि 20 अप्रैल से ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियां शुरू होती हैं तो उसके क्या परिणाम निकलते हैं। फसल की कटाई शुरू हो गई है। इस बार फसल भी बम्पर हुई है। राज्य सरकारों ने गेहूं की आनलाइन खरीददारी शुरू की है। हर केन्द्र पर पांच किसान बुलाए जाएंगे लेकिन अभी तक इन गतिविधियों में कोई तेजी नहीं नहीं आई। किसानों को मजदूर नहीं मिल रहे। परिवहन की भी समस्याएं हैं। जब भी मंदी आई तब-तब कृषि क्षेत्र ने ही मंदी का जमकर मुकाबला किया है। हमारी अर्थव्यवस्था का मूल आधार ही कृषि है। एक सौ तीस करोड़ आबादी का पेट कृषि ही भरती है। कृषि ही उद्योगों के लिए कच्चे माल की जरूरतों की 70 फीसदी आपूर्ति, औद्योगिक उत्पादों के लिए बाजार प्रदान करने और निर्माण के लिए धन जमा करती है। जब-जब फसलें खराब हुईं या किसान को अन्य कारणों से नुक्सान हुआ तो औद्योगिक उत्पादन में भारी कमी आई है। जब भी कृषि की हालत सुधरी तभी औद्योगिक उत्पादन दोबारा बढ़ना शुरू हो गया। बेहतर यही होगा कि राज्य सरकारें किसानों की फसल खरीदें आैर उनकी जेब में पैसा डालें।
किसानों की जेब में पैसा आएगा तभी देश की अर्थव्यवस्था में हलचल पैदा होगी। रिजर्व बैंक की घोषणाओं से बैंक क्रेडिट फ्लो बढ़ेगा, इससे रिएल्टी क्षेत्र में भी जान आएगी। उम्मीद है कि महामारी के बड़े संकट के बीच लाभ-हानि की परवाह किए बिना बैंक कृषि और उद्योग जगत को तत्काल ऋण देने होंगे।
बैंकों को ऋण बांटने में उदारता बरतनी होगी। इस मामले में रिजर्व बैंक को पैनी नजर भी रखनी होगी। कृषि और उद्योगों को समान प्राथमिकता देनी होगी। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का रास्ता कठिन जरूर है लेकिन भारत ने हमेशा विजय हासिल की है। हमने अर्थव्यवस्था को बचाने की तैयारी कर ली है।