नगालैंड की समस्या बहुत पुरानी है। नगालैंड भौगोलिक रूप से भले ही भारत का हिस्सा हो लेकिन सांस्कृतिक और नृवंशीय दृष्टि से अलग ही रहा है। वहां 16 प्रमुख जनजातियां हैं। इनकी भाषाएं अलग-अलग हैं। ये जनजातियां भी आपस में लड़ती रहती हैं। अंग्रेजों ने अपना राज्य विस्तार आैर नगा जनजातियों के आपसी संघर्ष को रोकने के उद्देश्य से नगा हिल्स क्षेत्र में घुसपैठ की थी। नगा क्षेत्र 1879 में ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया था, हालांकि नगा लोग तब भी स्वतंत्रता की मांग करते रहे। 1927 में उन्होंने भारत आए साइमन कमीशन को ज्ञापन दिया था। कई नगा आज भी अपनी आजादी का दिवस 14 अगस्त को मानते हैं। 14 अगस्त को नगा नेताओं और अंग्रेजों में समझौता हुआ था कि नगा लोग भारत के साथ रहेंगे, लेकिन यह स्थिति अगले दस वर्षों के लिए होगी। आजादी के बाद भी नगाओं ने अपनी स्वायत्तता की मांग फिर शुरू कर दी। हालांकि पूर्ण स्वायत्तता को लेकर नगा नेताओं में मतभेद रहे।
नगाओं के उदारवादी धड़े के साथ समझौते के बाद 1963 में असम के नगा हिल्स जिले को अलग कर नगालैंड राज्य बनाया गया। दूसरी तरफ कुछ नगाओं ने अपनी मांग मनवाने के लिए हथियार उठा लिए थे। विद्रोही गतिविधियां जारी रहीं। इसके बावजूद नगाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने के प्रयास होते रहे। विशेष बात यह है कि नगा केवल नगालैंड में ही नहीं रहते, वह बड़ी संख्या में असम, मणिपुर, अरुणाचल और म्यांमार में भी रहते हैं। नगाओं की मांग है कि इन राज्यों के नगा बस्ती वाले क्षेत्रों को मिलाकर महानगालैंड या नगालिक बनाया जाए। भाजपा ने नगा नेताओं को आश्वस्त किया था कि वह नगा समस्या को हल करेगी, मोदी सरकार और नगा सोशलिस्ट कौंसिल के इसान मुईवा गुट में समझौता भी हुआ था लेिकन समस्या का समाधान कैसे होगा, यह आज तक साफ नहीं हो सका। दूसरे राज्यों के नगा क्षेत्रों को तोड़कर नगालैंड में मिलाना सांप के पिटारे को खाेलने जैसा है। देशहित में इसे कैसे किया जा सकता है।
अब जबकि नगालैंड में सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान कर दिया है कि चुनाव से पहले समस्या का समाधान हो तब तक चुनाव टाले जाएं। मोदी सरकार पूर्वोत्तर राज्यों के विकास के लिए बहुत काम कर रही है। अगर बहिष्कार खत्म नहीं हुआ और विवाद बढ़ गया तो नगा समस्या और गंभीर हो सकती है। अहम सवाल यह है कि कहीं नगालैंड फिर कहीं हिंसा की आग में न जलने लगे। भाजपा नगालैंड में इस बार सत्ता में आने के सपने संजो रही है लेकिन राज्य में सभी राजनीतिक दलों ने एक संयुक्त घोषणा पत्र जारी कर चुनावों के बहिष्कार का ऐलान कर दिया जो भाजपा के लिए एक झटका साबित हुआ। भाजपा ने भी इस झटके से उबर कर विधानसभा चुनावों के लिए नैशनलिस्ट डैमोक्रेटिक पीपुल्स पार्टी के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है। तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके नेफियू रियो ने हाल ही में इस पार्टी का गठन किया है। दोनों पार्टियों के समझौते के तहत एनडीपीजी 40 और भाजपा 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
इसके साथ ही भाजपा ने सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट के साथ 15 वर्षों से चला आ रहा पुराना गठबंधन खत्म कर दिया है। नगालैंड में पिछली बार भाजपा ने 11 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे जिनमें से 8 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। 2008 में भाजपा ने 23 प्रत्याशी चुनाव में उतारे थे जिनमें से 2 ही चुनाव जीत सके थे। 15 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। नगा पीपुल्स फ्रंट में हुए अंदरूनी झगड़े के बाद मुख्यमंत्री शुरोजली लैजिस्ट को पद छोड़ना पड़ा था। इसके बाद फ्रंट के ही दूसरे नेता टीआर जेलियांग भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बने थे। राज्य की सियासत में उठापटक के बाद भाजपा नगालैंड में मौका ढूंढ रही है।
देखना है कि भाजपा कितना फायदा उठा पाती है। चुनाव बहिष्कार को लेकर कांग्रेस का रुख अभी स्पष्ट नहीं है। वर्तमान हालात में मोदी सरकार और नगा विद्रोहियों में हुआ समझौता भी संदिग्ध हो चुका है। इसाक मुइवा गुट से समझौते का अन्य गुट शुरू से ही विरोध करते रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा गुट खापलांग गुट है जिसने दर्जनों छोटे-बड़े अलगाववादी गुटों ने साझा मंच का गठन करके शुरूआती छापामार हमलों से आने वाले दिनों के संकेत दे दिए हैं। आशंका तो यह है कि चुनाव बहिष्कार की वजह से विद्रोही गुट और सेना में संघर्ष के दिनों की वापिसी हो सकती है। अलगाववादी संगठन म्यांमार, बंगलादेश और चीन के हाथों खेलते हैं। अगर हिंसा का कुचक्र शुरू होता है तो यह मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी।