भारत–पाकिस्तान के बीच के विवाद को किसी भी तौर पर पश्चिम एशियाई देशों के बीच हुए सीमा विवादों के चलते निरन्तर खूनी संघर्ष के समकक्ष रखकर नहीं देखा जा सकता है। चाहे फिलिस्तीन-इस्राइल संघर्ष हो या सूडान या लेबनान युद्ध अथवा ईरान-इराक संघर्ष, सभी के मूल में वहां की स्थानीय राजनीतिक परिस्थितियों की अहम भूमिका रही है और इस सिलसिले में इन देशों की राजनीति वहां के निरीह नागरिकों की बलि लेती रही है। इस पूरे खूनी संघर्ष में केवल फिलिस्तीन के मसले को अलग रखकर देखा जा सकता है मगर भारत–पाक के मामले में यह भयानक मंजर समझ से परे है कि क्यों लगातार दोनों देशों की सीमाओं पर बसे नागरिकों की बस्तियों को हलाक किया जा रहा है जबकि पाकिस्तान के वजूद में आने के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा का स्पष्ट रूप से निर्धारण हो गया था। बेशक इस मामले में पाकिस्तान की ‘दरिन्दगी’ ही सबसे बड़ी वजह रही है क्योंकि उसने तामीर होते ही कश्मीर रियासत पर हमला बोल दिया था। हकीकतन पाकिस्तान की हैसियत भारत के आगे एक मिमियाते हुए मेमने की ही है।
इसके बावजूद उसकी हिमाकतें हमारी गैरत को लगातार ललकारती रहती हैं तो इसका मतलब यही निकलता है कि हमारी कूटनीति (डिप्लोमेसी) कारगर नहीं है। यदि दोनों देशों के बीच विवाद का सैनिक हल निकलना होता तो वह कब का निकल गया होता क्योंकि हमने जंग के मैदान में पाकिस्तान को एक बार नहीं बल्कि तीन बार शिकस्त दी है और इस तरह उसे 1971 में हराया है कि उसके वजूद के लाले पड़ने लगे थे मगर तब अमरीका ने उसकी मदद सारी हदें तोड़कर इस तरह की थी कि अपने सातवें जंगी जहाजी बेड़े की मार्फत पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को एटमी निशाने पर रख दिया था। इस पर भी हमने शिमला में उससे हलफ भरवाया कि वह आगे से जंग की जुबान भूल कर बातचीत के जरिये ही सभी मसाइल हल करेगा मगर इसके बाद जिस तरह भारत में राजनीतिक हालात बदले उसी तरह पाकिस्तान की सीमा पर भी हालात बदलने लगे और अपने भीतर की सियासत के रंगों से पाकिस्तान के बाद के फौजी हुक्मरानों ने हिन्दोस्तान से रंजिश को अपना ईमान बना डाला। इस पूरे वक्त के दौरान अमेरिका पाकिस्तान की पीठ पर बैठकर उसे थपथपाता रहा और फौजी साजो–सामान से लैस करता रहा।
यह अभी तक अचम्भा बना हुआ है कि 1977 में वजीरे आजम की कुर्सी संभालने वाले जनता पार्टी के नेता स्व. मोरारजी देसाई को पाकिस्तान ने अपने मुल्क के सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ से क्यों नवाजा था? मैं किसी की देशभक्ति पर सवाल नहीं उठा रहा हूं मगर सिर्फ यह पूछ रहा हूं कि मोरारजी देसाई ने दोनों मुल्कों के ताल्लुकात सुधारने के लिए क्या अहम काम किया था? जबकि हकीकत यह है कि जब तक मोरारजी देसाई कांग्रेस पार्टी में रहे तब तक वह इस पार्टी के ‘हिन्दुवादी’ चेहरा माने जाते थे। तब पाकिस्तान में सबसे बड़ा काम यह हुआ था कि वहां प्रजातान्त्रिक व्यवस्था कायम करने की मशक्कत में लगे पीपल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को पाक के फौजी हुक्मरान जनरल जिया-उल-हक ने फांसी पर लटका दिया था और पाकिस्तान ने परमाणु बम बनाने का साजो सामान 1988 तक जिया-उल-हक के रहते इकट्ठा कर लिया था। संक्षेप में निवेदन यह है कि भारत और पाकिस्तान की राजनीतिक परिस्थितियों को एक नजर से देखना एतिहासिक भूल होगी और हमें पाक को इस तरह अंतर्राष्ट्रीय नियमों में पाबन्द करना होगा कि वह किसी ‘चौराहे के चाकूबाज’ की तरह हरकतें करने से बाज आये। यह सोचने वाली बात है कि जब भारत का दुनिया में रुतबा इतना ऊंचा बताया जा रहा हो तो किस तरह एक पिछली सदियों में जीने वाला मुल्क हमें लहूलुहान करने की नीयत से काम कर सकता है?
साफ जाहिर है कि अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर हम उसका असली चेहरा बेनकाब नहीं कर पा रहे हैं। चीन से हमारी सीमाएं निर्धारित तक नहीं हैं इसके बावजूद 1962 से लेकर आज तक एक भी वारदात एेसी नहीं हुई है जिसमें सीमा पर बसे नागरिकों की जान हताहत हुई हो। पाक सीमा पर बसे भारतीय नागरिकों के उतने ही हक हैं जितने देश के दूसरे हिस्सों में बसे नागरिकों के। यदि उनकी रोजी-रोटी से लेकर उनके बच्चों की परवरिश तक के सभी दायरे पाक गोलीबारी लगातार होने से बन्द हो जाते हैं तो हमें सोचना होगा कि ‘नामुराद’ पाकिस्तान की असली मंशा क्या है? हम बदले में उसके दुगुने फौजी मारकर अपने निरीह नागरिकों के मूलभूत अधिकार वापस नहीं ला सकते। हमें पूरी तरह पाकिस्तान को इस तरह मारना होगा कि वह आगे से एेसी हरकतें करने से पहले खुद के ही ‘नक्शे’ से मिट जाने के डर से थरथरा उठे। भारत की असली ताकत का मुजाहिरा तो यही होगा मगर यह काम फौज के जरिये नहीं बल्कि कूटनीति के जरिये होगा। हमारी फौजें तो दुनिया की एेसी जांबाज फौजें हैं जो शेर का जबड़ा खोल कर जब चाहे उसके दांत गिनकर आ जाती हैं मगर यह सब अपनी पीठ ठोकने के लिए नहीं है क्योंकि मुल्क पर जां निसार करने वाले हमारे जवान दुश्मन को उसकी हैसियत बताने के लिए ही करते हैं। उनकी शहादत हमारे राजनीतिज्ञों के लिए एेसा सबक होती है कि वे उनकी कुर्बानियों की स्याही से एेसी इबारत लिखें जिसे किसी भी तोप या बन्दूक का बारूद राख न कर सके। सियासत के असली मायने अगर कोई होते हैं तो यही कि मुल्क के हजारों-करोड़ों रुपये बचाकर कुछ पैसे की स्याही से लोगों की किस्मत को चमका दिया जाये। अगर एेसा न होता तो पूरी दुनिया गांधी बाबा को आज क्यों पूजती !