पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों का पहला चरण अब मात्र छह दिन ही दूर रह गया है और सभी राजनीतिक दलों का चुनाव प्रचार अपने शबाब पर पहुंचता जा रहा है। इनमें से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके में मतदान 10 फरवरी के पहले चरण से ही शुरू होगा अतः इस क्षेत्र में राजनीतिक नेताओं के जमघट का होना बताता है कि सत्ता पाने की दौड़ में कोई भी राजनीतिक दल कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता। संभवतः यही वजह थी कि सत्तारूढ़ दल भाजपा के नामबर नेता गृहमन्त्री श्री अमित शाह से लेकर रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह और कांग्रेस की नेता श्रीमती प्रियंका गांधी से लेकर समाजवादी-लोकदल गठबन्धन के नेता सर्वश्री मुलायम सिंह व जयन्त चौधरी इसी इलाके में चुनाव प्रचार करते देखे गये। अकेले बुलन्दशहर जिले में ही अमित शाह, प्रियंका गांधी व अखिलेश व जयन्त ने अपना-अपना चुनाव प्रचार किया जबकि राजनाथ सिंह अमरोहा में व बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा बहन मायावती गाजियाबाद में देखी गईं। इनके अलावा इन्हीं सब पार्टियों के और भी दूसरे नेता पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों में ही प्रचार में लगे रहे।
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर जिस प्रकार जबर्दस्त मुकाबले में फंसी हुई लगती है उसे देख कर कोई नहीं कह सकता कि ऊंट किस करवट बैठेगा मगर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस बार भाजपा व सपा गठबन्धन के बीच कांटे की लड़ाई हो रही है, विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां विधानसभा की कुल 403 सीटों में से 160 से अधिक सीटें हैं। पिछले चुनावों में भाजपा इनमें से 109 सीटें जीतने में सफल हो गई थी और उसका मत प्रतिशत भी 40 से ऊपर रहा था। इस बार विभिन्न राजनेताओं की सभाओं व प्रचार के अन्य तरीकों को मिले जनसमर्थन को देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि विपक्ष की तरफ मतदाताओं का झुकाव अपेक्षाकृत बेहतर लग रहा है मगर वोटों में किस तरह परिवर्तित होगा, यह देखने वाली बात होगी क्योंकि सत्तारूढ़ भाजपा ने पूरे चुनाव को सुशासन या कानून का राज बनाम माफिया या गुंडाराज बनाने में एक हद तक सफलता प्राप्त कर ली है इसके बावजूद क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में विपक्षी सपा-रालोद गठबन्धन को किसान आन्दोलन की वजह से अच्छा समर्थन मिल रहा है जिससे राजनीतिक गणित के गड़बड़ाने की संभावना पैदा हो गई है। जहां तक बसपा व कांग्रेस का सवाल है तो इनकी स्थिति चुनाव पर्यवेक्षक की ज्यादा दिखाई पड़ रही है फिर भी कुछ खास इलाकों में इसके प्रत्याशियों का व्यक्तिगत स्तर पर जोर बताया जाता है।
वास्तव में जमीनी हकीकत यह है कि चुनाव किसी जन मूलक मुद्दे पर न होकर भावनात्मक मुद्दे पर ज्यादा हो रहे हैं जिसमें आम मतदाता भ्रम की स्थिति में पड़ता दिखाई दे रहा है परन्तु ऐसे मतदाताओं का वोट ही चुनाव में अन्तिम रूप से निर्णायक माना जाता है और इन्हें चुनावी व्याकरण में निरपेक्ष या ‘फ्लोटिंग वोट’ कहा जाता है। इन चुनावों में ऐसे मतदाताओं की संख्या ज्यादा आंकी जा सकती है क्योंकि राजनीतिक दलों के चुनावी विमर्श सैद्धान्तिक न होकर सामाजिक ज्यादा लग रहे हैं। विपक्षी पार्टियां किसानों के एक वर्ष से अधिक तक चले आन्दोलन का ठीकरा भाजपा पर फोड़ना चाहती हैं जबकि सत्ताधारी दल किसानों की तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को मान कर किसानों की हमदर्दी लेना चाहता है परन्तु दोनों ही पक्ष भविष्य में स्पष्ट कृषि नीति के मुद्दे पर गोलमोल ही रहना चाहते हैं। जिस वजह से किसानों का मुद्दा भी भावनात्मक ज्यादा हो गया है। चुनावों में आधारभूत नागरिक सुविधाओं से जुड़े प्रश्नों पर भी मौन ही नजर आ रहा है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि सपा, बसपा व भाजपा तीनों ही बारी-बारी से सत्ता में रहने वाले दल हैं अतः जब भी इन मूलभूत मुद्दों का सवाल उठता है तो तीनों अपनी-अपनी सरकार में किये गये कामों का ब्यौरा देने लगते हैं और एक-दूसरे का नुख्स दिखाने लगते हैं। केवल कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी ही शिक्षा व स्वास्थ्य और नारी अधिकार जैसे मुद्दों पर बात करती दिखाई पड़ती हैं परन्तु सामाजिक संचेतना के राजनीतिक बदलाव की वजह से उनकी आवाज विस्तार नहीं ले पाती। इसी प्रकार मायावती का आधार एक विशेष जाति मूलक होने की वजह से समाज के दूसरे तबकों को प्रभावित नहीं कर पा रहा है क्योंकि उनका भावुक गठबन्धन अल्पसंख्यक अर्थात मुस्लिम मतदाताओं से दूर हो चुका है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में लड़े जा रहे चुनावों की यह जमीनी हकीकत है जिसे देखते हुए किसी एक पक्ष का तीर की तरह विजय प्राप्त करना संभव दिखाई नहीं पड़ रहा है इसलिए चुनावों का पहला चरण बहुत ही गुत्थमगुत्था होने का नक्शा खींच रहा है। इसमें एक नया शाहकार इत्तेहादे मुसलमीन के असीदुद्दीन ओवैसी भी हैं जो मुस्लिम मतदाताओं को अपने तरीके से आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं।