केन्द्र सरकार ने सरकारी नौकरियों के लिए जिस राष्ट्रीय भर्ती परीक्षा (नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी) की घोषणा की है उसे देश में बढ़ती बेरोजगारी के आइने में रख कर देखा जाना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि ऐसी एकल एजेंसी बन जाने से युवा पीढ़ी की दिक्कतें कम होंगी और प्राथमिक स्तर पर विभिन्न नौकरियों के लिए अलग-अलग परीक्षा देने के झंझट से भी उसे छुटकारा मिलेगा।
वर्ष भर में केन्द्र सरकार की दूसरे व तीसरे दर्जे की (गैर तकनीकी) सवा लाख के लगभग नौकरियां सृजित होती हैं और ढाई से तीन करोड़ अभ्यर्थी इनकी परीक्षाओं में बैठते हैं। इस हिसाब से साल भर में केवल अधिकतम दो प्रतिशत अभ्यर्थी ही नौकरी पाते हैं मगर नई प्रणाली से प्राथमिक स्तर पर ही वे कमजोर प्रार्थी छंट जायेंगे जिनमें सरकारी नौकरी पाने की न्यूनतम योग्यता भी नहीं है।
केन्द्र की यह एजेंसी दूसरे व तीसरे दर्जे की नौकरियों के लिए केवल पात्रता परीक्षा (इलीजिबिलिटी टैस्ट) लेगी जिससे ये परीक्षार्थी विभिन्न विभागों की रिक्तियों के लिए सीधे आवेदन कर सकें। इनमें बैंकिंग सेवाओं से लेकर केन्द्र सरकार व रेलवे विभाग की नौकरियां होंगी। विभिन्न न्यूनतम अर्हता दसवीं से लेकर स्नातक शिक्षा तक की इस परीक्षा के बाद वर्तमान में कार्यरत सर्विस सलेक्शन बोर्ड, बैंकिंग सेवा भर्ती बोर्ड व रेलवे भर्ती बोर्ड दूसरे व तीसरे दर्जे की नौकरियों के लिए परीक्षा लेंगे।
इससे यह भी सवाल जुड़ गया है कि सरकार ने पहले यह घोषणा की थी कि तीसरे व चौथे दर्जे की नौकरियों के लिए साक्षात्कार नहीं किया जायेगा। नई प्रणाली के बाद उसे किस प्रकार लागू किया जायेगा? यह भी देखने वाली बात होगी, परन्तु उन अभ्यर्थियों का क्या होगा जो पहले ही विभिन्न परीक्षाएं पास कर चुके हैं और जिन्हें अभी तक नियुक्ति पत्र नहीं मिला है। ऐसे युवाओं की संख्या भी बहुत ज्यादा बताई जाती है।
यह तो सत्य है कि सरकारी नौकरियां लगातार घट रही हैं। ऐसा बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के चलते हो रहा है, परन्तु पिछले दो साल से हमारी अर्थव्यवस्था भी सुस्त पड़ी हुई है। प्रतिष्ठित संस्था सीएमआईई के अनुसार पिछले जुलाई महीने तक दो करोड़ लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। ये सब विभिन्न निजी संस्थानों में काम करने वाले वेतन भोगी कर्मचारी हैं। इसका मतलब यही निकलता है कि देश मन्दी के कुचक्र में फंसता जा रहा है। कोरोना के चलते ही ऐसा हुआ है, यह भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है क्योंकि पिछले वित्त वर्ष में सकल विकास वृद्धि की दर काफी नीचे रही थी।
कोरोना ने इस संकट को और गहरा दिया है। रेलवे में अब भी लाखों नौकरियां खाली पड़ी हुई हैं इसके लगातार निजीकरण होने से इस विभाग में नौकरियां और कम होंगी। इस मामले में विभिन्न राज्यों की हालत भी अच्छी नहीं कही जा सकती। महाराष्ट्र राज्य की नौकरियों में भी लाखों स्थान खाली पड़े हुए हैं, कमोबेश यह हालत लगभग हर राज्य की है। सवाल नई नौकरियों के सृजन का है। बैकिंग उद्योग में भी नौकरियां पहले के मुकाबले घट रही हैं, क्योंकि विभिन्न बैंकों का जिस तरह विलय हो रहा है उसका पहला असर कर्मचारी संख्या पर ही पड़ रहा है और भविष्य में डिजीटल बैंकिंग के चलते इस क्षेत्र में नौकरियों की और कमी होना निश्चित है।
आजकल गंभीर बीमारी से जूझ रहे भारत रत्न श्री प्रणव मुखर्जी (ईश्वर उन्हें दीर्घ आयु प्रदान करें), जब 2008-09 में विश्व मन्दी के चलते देश के वित्त मन्त्री बने थे तो उन्होंने दृढ़ता के साथ ऐलान किया था कि अर्थव्यवस्था के सुस्त हो जाने की वजह से नौकरी किसी की नहीं जानी चाहिए चाहे तनख्वाह थोड़ी कम बेशक कर दी जाये। इसके साथ ही उन्होंने यह ताकीद कर दी थी कि ऊंचे पदों पर कार्यरत लोगों की तनख्वाहें घटा कर मुसीबत से निकला जा सकता है। इसका असर यह हुआ था कि जब विश्व भर में कर्मचारी छंटनी का दौर चला था तो भारत में दूसरे, तीसरे व चौथे वर्ग के कर्मियों की नौकरी पूरी तरह सुरक्षित रही थी।
कोरोना काल के लिए भी हमें ऐसी ही किसी तजवीज पर काम करना होगा जिससे बेरोजगारी और न बढ़ पाये। केन्द्रीय भर्ती परीक्षा से हम अभ्यर्थियों की दिक्कतें कम कर सकते हैं मगर नौकरियां नहीं बढ़ा सकते। इसके लिए निजी क्षेत्र को आगे आना होगा और साथ ही अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के ठोस उपाय करने होंगे। केन्द्रीय भर्ती परीक्षा से यह विसंगति तो दूर होगी कि क्लर्क की नौकरी के लिए कोई पीएचडी भी आवेदन कर देता था मगर नौकरियों में वृद्धि कैसे हो पायेगी ? अतः निजी क्षेत्र को राष्ट्रीय विकास में अपनी भूमिका प्रभावशाली ढंग से निभानी चाहिए तथा सरकार के साथ मिल कर काम करना चाहिए क्योंकि इसी देश की सम्पदा के जरिये उनका विकास संभव हो पाया है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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