संसदीय प्रणाली में शुचिता - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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संसदीय प्रणाली में शुचिता

1997 से 2002 तक भारत के राष्ट्रपति रहे श्री के.आर. नारायणन ने जब तत्कालीन राजनैतिक वातावरण के दौरान यह कहा कि हमें यह गौर करना चाहिए कि ‘लोकतन्त्र ने हमें पराजित किया है अथवा हमने लोकतन्त्र को पराजित या फेल किया है तो उनका आशय राजनीति व राजनीतिज्ञों के गिरते स्तर से ही था।

1997 से 2002 तक भारत के राष्ट्रपति रहे श्री के.आर. नारायणन ने जब तत्कालीन राजनैतिक वातावरण के दौरान यह कहा कि हमें यह गौर करना चाहिए कि ‘लोकतन्त्र ने हमें पराजित किया है अथवा हमने लोकतन्त्र को पराजित या फेल किया है’ तो उनका आशय राजनीति व राजनीतिज्ञों के गिरते स्तर से ही था। दरअसल भारत को लोकतन्त्र कोई सौगात या तोहफे में नहीं मिला है। इसके लिए हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों की पुरानी पीढि़यों ने भारी कुर्बानियां दी हैं और सरदार भगत सिंह से लेकर महात्मा गांधी तक ने अपने प्राण न्यौछावर किये हैं। महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के लिए लड़ी गई लड़ाई को जो लोग केवल सत्ता का हस्तांतरण मानते रहे हैं उन्हें इस मुल्क की जमीनी तासीर के बारे में जरा भी ज्ञान नहीं है। आजादी की लड़ाई इस मुल्क के मजदूर से लेकर सामान्य भारतीय को एक नागरिक के रूप में संप्रभु बनाने की थी जिसकी कसम कांग्रेस पार्टी ने अपने 1931 में सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में हुए कराची के महाअधिवेशन में खाई थी जिसमें साधारण भारतीय को मूल मानवीय अधिकार देने का वचन दिया गया था। इसके बाद ही महात्मा गाधी ने घोषणा कर दी थी कि स्वतन्त्र भारत में बिना किसी भेदभाव के एक समान वयस्क मताधिकार के आधार पर संसदीय प्रणाली का लोकतन्त्र अपनाया जायेगा।
आजाद होने पर भारत के संविधान में इन सभी विषयों को समाहित किया गया और ऐसी सरकार की स्थापना 1952 के प्रथम आम चुनावों के बाद पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में की गई जो अपने हर काम के लिए संसद के प्रति पूरी तरह उत्तरदायी थी। हमने जो संसदीय प्रणाली अपनाई उसमें संसद के दोनों सदनों के भीतर इनके अध्यक्षों को इतनी ताकत दी गई कि वे लोकसभा में बहुमत के बूते पर बनी सरकार के प्रभाव में आये बिना ही अपना कार्य इन सदनों में जनता द्वारा चुनकर भेजे गये सदस्यों को प्राप्त एक समान अधिकारों की रक्षा अपने अधिकारों की छत्रछाया में बिना किसी खौफ के एक न्यायाधीश की तरह कर सकें। इसके लिए बेशक संसदीय नियमावली व संसदीय कार्यप्रणाली बनी मगर मूल तथ्य यह है कि इन सदनों के अध्यक्षों की निगाहों में इनमें बैठने वाला हर व्यक्ति पहले एक सांसद होता है और बाद में मन्त्री या प्रधानमन्त्री। सभी सांसदों के अधिकार बराबर होते हैं जिनमें कोई भेदभाव नहीं होता। 
भारत की संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का यही मूलाधार है जिसे भारत की नई पीढि़यों को समझना होगा और फिर सोचना होगा कि गांधी बाबा क्या कमाल करके गया है। जिस देश के लोग सदियों से राजतान्त्रिक व्यवस्था के रहते हुए केवल ‘रैयत’ के दास भाव से कुंठित हो चुके हों और इसी मानसिकता के चलते अंग्रेजों ने उन्हें 200 वर्षों तक अपनी दासता में रखकर और कुंठित कर दिया हो और इस देश के खजानों को खाली कर दिया हो उन्हें अगर 1947 में स्वतन्त्र करा कर पूर्ण रूपेण एक वोट का अधिकार देकर संप्रभु बना दिया गया हो तो क्या यह किसी ‘क्रान्ति’ से कम था। इस मुद्दे पर आज की 18 वर्ष की वय प्राप्त करती युवा पीढ़ी को गंभीर चिन्तन करने की जरूरत है और फिर यह सोचने की जरूरत है कि संसदीय प्रणाली में शुचिता क्यों इस देश के लोगों की जरूरत है। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि संसद में पहुंचा प्रत्येक सदस्य कम से कम औसतन 16 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है और उसका हक बनता है कि वह उसके ही समान दूसरे चुने गये सदस्यों की बनी सरकार के नुमाइन्दों से संसद में जवाबतलबी करे। मगर यह काम संसद सदस्य अपने-अपने सदनों के अध्यक्षों की मार्फत करते हैं अतः हमारे पुरखों ने व्यवस्था की कि अध्यक्ष के आसन पर बैठे हुए व्यक्ति की स्वतन्त्र सत्ता इस प्रकार स्थापित की जाये कि वह निष्पक्ष भाव से जरूरत पड़ने पर सत्तारूढ़ दल से लेकर विपक्ष को कठघरे में खड़ा कर सके। हमारी संसदीय प्रणाली पूरी तरह गांधीवादी सिद्धान्त पर ही आधारित है। इसीलिए संसद को चलाने की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ दल पर सौंपी गई क्योंकि गांधी जी ने कई बार अपने लेखों व साक्षात्कारों में कहा कि ‘वह अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ऊंचे आसन पर बैठा कर सुनना पसन्द करेंगे’। 
संसदीय लोकतन्त्र की इसी भावना से लोगों द्वारा चुनी गई सरकारें चलती हैं और अल्पमत में रहने वाले विपक्ष के विचारों को भी आवश्यकता होने पर अपनी नीतियों में समाहित करती हैं क्योंकि सत्ता व विपक्ष दोनों के सांसदों का ही आम जनता चुनाव करती है। मगर आजकल संसद में जो चल रहा है, खासकर उच्च सदन राज्यसभा में उससे कुछ व्यथित करने वाले सवाल जनता के मन में पैदा हो रहे हैं। जनता संसद की कार्यवाही टेलीविजन पर सीधे देखती है अतः उसे अपना आकलन करने में किसी विशेषज्ञ की सलाह की जरूरत नहीं है। सदनों की कार्यवाही से सरकार का कोई लेना-देना नहीं रहता है क्योंकि संविधान ने यह जिम्मेदारी इनके अध्यक्षों पर छोड़ी हुई होती है। वैसे यह सवाल भी बार-बार खड़ा होता रहा है कि संसद की कार्यवाही की टेलीविजन पर इकतरफा तस्वीर क्यों दिखाई जाये? आम जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि उसके द्वारा ही चुने गये विपक्ष के सांसद संसद में क्या करते हैं और उनका आचरण कैसा रहता है। यदि वे शोर-शराबा या नारेबाजी करते हैं तो उसकी पृष्ठभूमि से लेकर अन्तिम कार्य के बारे में भी जनता को जानने का हक है। यूपीए सरकार में जब श्री सोमनाथ चटर्जी  लोकसभा अध्यक्ष थे तो उन्होंने लोकसभा टीवी चैनल शुरू किया था और इसका उद्घाटन करते समय उन्होंने कहा था कि टैक्नोलॉजी के इस दौर में आम जनता को अपनी आंखों से ही यह देखने का हक है कि उनके प्रतिनिधि संसद में बैठ कर क्या करते हैं। 

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