कई दशक पहले एक फिल्म बनी थी कानून। उसमें मुख्य भूमिका दादा मुनि अशोक कुमार की थी। उस समय जब दर्शकों को खूब ज्यादा गानों से भरी फिल्में देखने का शौक था, उस दौर में बहुत डरकर यह प्रयोग किया गया था कि फिल्म में कोई एक भी गाना न हो। उस फिल्म में तब भी पुलिस की आपराधिक तटस्थता पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए थे और साक्ष्यों के आधार पर टिकी देश की न्यायिक व्यवस्था पर भी। तब से लेकर आज तक कुछ नहीं बदला। बड़े लोग अक्सर छूट जाते हैं, निर्दोष लोगों को पुलिस फंसा देती है।
गौरक्षकों द्वारा पीट-पीटकर मार डाले गए पहलू खान के मामले में सभी 6 आरोपी बरी हो गए। न्यायपालिका सबूत मांगती है, अदालतें कभी जनभावनाओं में नहीं बहतीं। गवाहों ने भी आरोपियों को नहीं पहचाना। वीडियो भी कुछ काम नहीं आया। पहलू खान के बेटे की याचिका पर फैसला सुनाते हुए अलवर में अतिरिक्त सत्र जज सरिता स्वामी ने कोई ठोस सबूत न होने की स्थिति में सभी को आरोपमुक्त कर दिया। अभियुक्तों के खिलाफ दो चार्जशीट दर्ज की गई थी। चार्जशीटों में कई बातें विरोधाभासी थीं।
पहलू खान गौतस्कर था या नहीं, अब सवाल यह नहीं। अब सवाल है कि अगर आरोपी निर्दोष हैं तो फिर पहलू खान की हत्या करने वाले कौन थे? इस फैसले में राजस्थान पुलिस की किरकिरी हुई है। मुझे याद है कि दिल्ली के बहुचर्चित जेसिका लाल हत्याकांड में जब निचली अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था तब समाचार पत्रों की हैडलाइन्स बनी थी कि ‘नो वन किल्ड जेसिका लाल’। मीडिया और सोशल मीडिया में इस फैसले की बड़ी चर्चा हुई थी। कैंडिल मार्च निकाले गए थे। जेसिका लाल की बहन द्वारा इन्साफ के लिए किए गए संघर्ष की बदौलत जेसिका लाल हत्या के आरोपियों को उच्च अदालत से दण्ड मिला था।
राजस्थान पुलिस की कारगुजारी देखिये। वायरल वीडियो में साफ दिखाई दे रहा है कि पहलू खान को कुछ लोग पीट रहे हैं लेकिन पुलिस मारपीट के आरोपियों को पकड़ने की बजाय उसे लेकर घूमती रही और इस बात की जांच करती रही कि पहलू खान तस्कर है या नहीं। मारपीट का मामला बनाकर पहलू खान के दोनों बेटों को आरोपी बना दिया गया। परिवार के लोग भागे-भागे फिरते रहे। पहलू खान ने मौत से पहले 6 लोगों के नाम बताए थे। पहलू खान को इन लोगों ने नहीं मारा तो यह स्पष्ट है कि उसे सिस्टम ने मारा है। पहलू खान का परिवार कई बार आरोप लगाता रहा है कि सरकार मजबूती के साथ पहलू खान मॉब लिंचिंग के मामले को कोर्ट में नहीं रख रही।
सरकारी अस्पताल और प्राइवेट अस्पताल की पोस्टमार्टम में भी मौत की वजह को लेकर काफी अन्तर पाया गया। ऐसा कई बार हो चुका है कि पुलिस कई बार ऐसी कहानी पेश करती है जो अदालतों में झूठी साबित होती है। महाराष्ट्र के अकोला की एक विशेष अदालत ने भी आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किए गए तीन मुस्लिम युवकों को यह कहते हुए बरी कर दिया था कि महज जिहाद शब्द का प्रयोग करने भर से किसी को दहशतगर्द नहीं ठहराया जा सकता। अगर पहलू खान की हत्या के मामले में पकड़े गए आरोपी निर्दोष हैं तो फिर क्या सरकार उनकी मदद करेगी। हर मामले का आधार एफआईआर होती है। अनेक मामले ऐसे भी सामने आए कि एफआईआर ही सही ढंग से लिखी नहीं जाती। जिस झूठ की बुनियाद पर एफआईआर लिखी जाती है आखिर वह आगे अदालत में कैसे टिक सकती है।
कभी एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की थी कि ‘‘भारत में पुलिस तंत्र, चन्द अपवादों को छोड़कर, अपराधियों का सबसे सुगठित गिरोह है’’ तो हमें इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना होगा। जब कोई अपराध घटित हो जाता है तो एफआईआर दर्ज होती है। इसके बाद सबसे बड़ी भूमिका पुलिस की होती है। क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि एक साधारण से एसएचओ या उसके आला अधिकारियों पर किस-किस के, कहां-कहां से, कौन-कौन से दबाव नहीं पड़ते होंगे। जैसे ही जांच का काम शुरू करना होगा तो वह निष्पक्ष कैसे हो सकती है? पहलू खान की हत्या हुई, इसे हिन्दू-मुस्लिम नजरिये से देखने की कोई जरूरत नहीं। एक अपराध हुआ तो न्याय भी होना ही चाहिए।