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बिहार में लोकतन्त्र का खेला

बिहार में नीतीश बाबू के लालू खेमे से भाजपा खेमे में पलटी मार कर अपना मुख्यमन्त्री पद बरकरार रखते हुए विधानसभा में हुए शक्ति परीक्षण में सरकार की विजय हो गई है परन्तु सदन के भीतर विपक्ष के नेता के तौर पर पुरानी नीतीश सरकार में उपमुख्यमन्त्री रहे राजद नेता तेजस्वी यादव ने भी अपना लोहा मनवाने में सफलता प्राप्त कर ली है। बिहार विधानसभा की कार्यवाही भी आज जिस प्रकार पूरी तरह शालीनता औऱ विधि सम्मत तरीके से चली उससे भी यह सिद्ध हुआ कि यह राज्य देश की राजनीति में एक चिराग का काम कर रहा है और लोकतन्त्र का झंडा ऊंचा रखे हुए हैं। सबसे पहले नीतीश बाबू की पार्टी व एनडीए की तरफ से विधानसभा अध्यक्ष को हटाने का प्रस्ताव सदन में लाया गया। अध्यक्ष श्री चौधरी ने अपने खिलाफ रखे गये इस प्रस्ताव को नियम सम्मत पाते हुए स्वयं ही स्वीकार किया और बाद में मतदान में हारने के बाद वह स्वयं ही इस पद से हट गये और उन्होंने आसन ससम्मान उपाध्यक्ष को सौंप दिया। लोकतन्त्र की ताकत यही होती है। अध्य़क्ष चूंकि लालू जी की राजद पार्टी के थे। अतः तभी स्पष्ट हो गया था कि नीतीश बाबू इसके बाद जब अपनी सरकार के पक्ष में विश्वास मत रखेंगे तो वह भी बहुमत से पारित हो जायेगा।
इससे पहले यह शोर सुनाई पड़ रहा था कि 12 फरवरी को बिहार में खेला होगा और नीतीश कुमार की ताजा-ताजा सरकार को लेने के देने पड़ जायेंगे। मगर हुआ उल्टा और खेला दूसरे तरीके से हो गया। विपक्षी पार्टी राजद के ही तीन विधायक टूट कर नीतीश बाबू के खेमे में चले गये। लोकतन्त्र चूंकि संख्या का खेल होता है और इस खेल में जिस भी पार्टी का पलड़ा भारी होता है बाजी उसके हाथ में ही रहती है। जहां तक साम,दाम दंड, भेद का सवाल है तो सरकार बचाने व इसे गिराने के लिए दोनों तरफ से ही इन्हें इस्तेमाल किया जाता है। इस खेल में भाजपा व एनडीए के हाथ में बाजी रही मगर बिहार की मौजूदा सरकार को लेकर विश्वसनीयता का सवाल बहुत बड़ा है क्योंकि नीतीश बाबू ने 2020 का चुनाव भाजपा के साथ लड़ने के बावजूद 2022 में पलटी मारी थी और लालू प्रसाद जी की पार्टी से हाथ मिला कर सरकार बनाई थी। 243 सदस्यीय विधानसभा में हालांकि सबसे बड़ी पार्टी लालू की ही है जिसके 79 सदस्य हैं और भाजपा दूसरे नम्बर की पार्टी है जिसके 78 सदस्य हैं।
नीतीश बाबू को अब 2020 के चुनावों के बाद इन दोनों ही पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाने का अनुभव है। वैसे यह अनुभव उनका पुराना भी है क्योंकि 2015 में विधानसभा चुनाव उन्होंने लालू जी की राजद के साथ गठबन्धन करके लड़ा था और 2017 में इसका साथ छोड़ कर भाजपा से हाथ मिला लिया था और अपना मुख्यमन्त्री पद बरकरार रखा था। बार-बार पलटी मारने की वजह से ही बिहार की राजनीति में उन्हें पलटू राम के नाम से नवाजा जा रहा है जबकि इससे पहले उन्हें सुशासन बाबू कहा जाता था। अब यह नीतीश बाबू को सोचना है कि वह कहां से कहां पहुंच गये हैं। हालांकि उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन की असली शुरूआत 90 के दशक में भाजपा के साथ गठबन्धन करके ही की थी। इसी वजह से राजनैतिक क्षेत्रों में यह भी माना जा रहा है कि यह उनके राजनैतिक जीवन की अन्तिम पारी है जिसे वह अपने राजनैतिक गुरु रहे समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीज की तरह ही भाजपा के साथ समाप्त करना चाहते हैं परन्तु जहां तक बिहार के जमीनी हालात का सवाल है तो फिलहाल परिस्थितियां राजद के अनुकूल ज्यादा लगती हैं जिसकी कमान अब व्यावहारिक रूप से लालू जी के पुत्र तेजस्वी यादव के हाथ में है। पहले यह भी माना जा रहा था कि नीतीश बाबू बिहार विधानसभा के चुनाव भी डेढ़ साल पहले ही लोकसभा चुनावों के साथ कराना चाहते हैं और इसी वजह से उन्होंने लालू जी का साथ छोड़ा था मगर बिहार के लोगों के राजनीतिक मिजाज को देखते हुए उन्होंने अपनी राह बीच में ही बदल ली और अब उनका जोर इस बात पर है कि भाजपा बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से कम से कम 18 सीटें उनकी पार्टी जद (यू) को लड़ने के लिए दे क्योंकि पिछले 2019 के लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी ने 16 सीटें जीती थीं। इन चुनावों में भाजपा ने 17 सीटें जीती थीं और छह सीटें स्व. पासवान की पार्टी लोकजन शक्ति पार्टी के खाते में गई थीं।
इन लोकसभा चुनावों में नीतीश बाबू किस हद तक भाजपा के मददगार हो सकते हैं जबकि तेजस्वी यादव नीतीश बाबू की पिछली 17 महीने की सरकार द्वारा किये गये प्रमुख कामों जैसे 4 लाख युवकों को नौकरी देना व जातिगत जनगणना का श्रेय खुद ले रहे हैं। तेजस्वी ने बिहार में अपने उपमुख्यमन्त्री काल को 17 महीने बनाम 17 साल के रूप में पेश करके एक राजनैतिक चुनौती फेंकने का काम ही नहीं किया है बल्कि नीतीश बाबू के इकबाल को भी चुनौती दे रखी है लेकिन बिहार के बारे में एक बात निःसन्देह कही जा सकती है कि इस राज्य का संसदीय लोकतन्त्र मर्यादाओं का लोकतन्त्र है क्योंकि यहां के राजनेता एक-दूसरे की कटु आलोचना भी हंसते हुए और तंज कसते हुए करते हैं। बेशक जो विधायक इधर से उधर हुए हैं उनका सम्बन्ध राजनीति में तिजारत के पनपने से हो सकता है मगर लोक व्यवहार व संसदीय व्यवहार में इस प्रदेश के नेता लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का पालन करने से नहीं चूकते। यह बिहार की शिफत मानी जाती है कि इसके मतदाता सर्वाधिक सजग व जागरूक माने जाते हैं। संभवतः इसी कारण इसके नेता दल-बदलू या पलटीमार होने के बावजूद एेसा व्यवहार करते हों।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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