किस कदर जमीनी हकीकत से कटे हुए हैं वे लोग जो इतना भी नहीं जानते कि भारत की अर्थव्यवस्था लाॅकडाऊन की वजह से बेशक थकान में फंस गई है मगर इसकी अन्तर्निहित आर्थिक ऊर्जा इतनी ओजस्वी है कि वह इस संकट पर मौजूदा बाजार मूलक सिद्धान्तों के तहत ही पार पा सकती है। कुछ कथित बुद्धिजीवियों को पुराने दौर के कम्युनिस्ट निजाम में घूमने का शौक चर्राया है और उन्होंने तजवीज पेश कर दी है कि मौजूदा मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए सरकार को देश की सभी निजी अचल सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए या इसे राष्ट्रीय आय स्रोत समझना चाहिए। यह निरी नासमझी है जो हिन्दोस्तान की असलियत से सिरे से नावाकिफ है। बीए के अर्थशास्त्र का विद्यार्थी भी यह जानता है कि आजाद हिन्दोस्तान के संविधान में सम्पत्ति का मौलिक अधिकार था जो 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने के फैसले के बाद समाप्त किया गया। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को अवैध करार दे दिया था क्योंकि यह सम्पत्ति के मूल अधिकार के अनुच्छेद 31(1) (2) के खिलाफ था जिसमें सरकार द्वारा किसी की निजी सम्पत्ति का अधिग्रहण करने पर पर्याप्त उचित मुआवजा देने का नियम था किन्तु बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने वाली प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी ने 1971 में इसी मुद्दे पर लोकसभा चुनाव एक साल पहले करा कर भारी जीत हासिल की और संविधान में संशोधन करके सम्पत्ति के ‘मौलिक अधिकार’ को समाप्त कर दिया। बाद में 1977 में जब केन्द्र में जनता पार्टी की मोराराजी देसाई की जनता पार्टी सरकार आयी तो उसने सम्पत्ति के अधिकार को ‘संवैधानिक’ अधिकार बनाया।
आजादी मिलने के बाद पं. जवाहर लाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था का सहारा लेकर देश का विकास करना शुरू किया और एेसी नीतियां बनाईं जिनसे निजी क्षेत्र को गैर रणनीतिक वाणिज्यिक क्षेत्रों में भी फलने-फूलने का अवसर मिले। बाद में इन्दिरा जी ने बेशक इसमें बदलाव किया और तीव्र समाजवादी नीतियां अपनाईं, परन्तु कालान्तर में 1990 के आते-आते संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था अपने भार से ही गैर नियोजित खर्चों के लगातार बढ़ने से चरमराने लगी तो डा. मनमोहन सिंह ने बतौर वित्तमन्त्री इसके दरवाजे खोले और निजी क्षेत्र के पूंजी निवेश के बल पर गैर नियोजित खर्चों को कम करते हुए वाणिज्यिक विकास के बूते पर भारत के समग्र विकास की रूपरेखा तय की। यह नीति पूरी तरह सही साबित हुई और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के चलते भारत में न केवल गरीबी कम हुई बल्कि इसके मापदंड भी बदल गये लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि भारत पिछले 30 वर्षों में अमीर मुल्क हो गया बल्कि इतना जरूर है कि नेहरू व इन्दिरा गांधी की आर्थिक नीतियों के चलते ही साढे़ तीन प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर्ज करते हुए यह मुल्क उस मुकाम तक आ गया जहां डा. मनमोहन सिंह इसे ‘बाजार मूलक ढांचे’ में बदलने की हिम्मत दिखा सके।
नेहरू व इन्दिरा जी के शासनकाल में भारत में बहुत बड़े मध्यम वर्ग का उदय हुआ जिसकी क्रय क्षमता ने निजी उद्योगों के विस्तार का रास्ता बनाया और विदेशी निवेश को उत्प्रेरित किया। इसका असर नीचे तक पहुंचा और 2005 से 2015 के बीच 27 करोड़ से अधिक लोग गरीबी की सीमा रेखा से बाहर आये। सीधा मतलब निकलता है कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में विकास ऊपर से छन कर नीचे की तरफ आया मगर कम्युनिस्ट मानसिकता के कथित बुद्धिजीवी इस हकीकत को पचा नहीं पाते हैं और आंकड़े देते हैं कि भारत की कुल सम्पत्ति का 73 प्रतिशत हिस्सा केवल तीन प्रतिशत धनाढ्य लोगों के पास है जबकि 97 प्रतिशत केवल 27 प्रतिशत में गुजारा करते हैं, परन्तु यह भूल जाते हैं कि इन 97 प्रतिशत में वे सत्तर प्रतिशत से अधिक लोग भी शामिल हैं जो आजादी मिलने के समय गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जीवन जीते थे।
अब भारत की कुल आबादी में केवल 27 प्रतिशत लोग ही गरीबी की सीमा रेखा के किनारे आते हैं। बाजार का धर्म पूंजी में वृद्धि का होता है। बेशक लाॅकडाऊन से सारी अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है और रिजर्व बैंक ने भी कह दिया है कि चालू वित्त वर्ष में विकास बिल्कुल नहीं होगा बल्कि वृद्धि दर नीचे की तरफ नकारात्मक रह सकती है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम हाथ-पैर ही छोड़ डालें। 200 लाख करोड़ रुपए की भारत की अर्थव्यवस्था में इतना दम-खम है कि वह 15 प्रतिशत तक के वित्तीय घाटे को बर्दाश्त करते हुए बढ़ती महंगाई दर का जोखिम उठाते हुए अपनी वृद्धि दर को वापस पटरी पर ला सके।
भारत में ऐसे आर्थिक विशेषज्ञों की कमी नहीं है जो इस संकट से पार पाने का रास्ता न जानते हों। सबसे महत्वपूर्ण कारगर रास्ता तो पूर्व वित्तमन्त्री श्री पी. चिदम्बरम ने सरकार को सुझा दिया है कि वह घाटे के डर से घबराये बिना 10 लाख करोड़ रुपए के और ऋण बाजार से लेने का इन्तजाम करे और यदि इसमें दिक्कत हो तो इतनी राशि के नये नोट छाप कर इस मुद्रा को बाजार में इस तरह डाले कि गरीब आदमी के हाथ में धन पहुंचे जिससे बाजार में माल की मांग बढे़ और उत्पादन का चक्का घूमे। निश्चित रूप से इससे महंगाई में वृद्धि हो सकती है मगर जो विकास होगा उससे यह खतरा स्वयं ही दूर हो जायेगा क्योंकि लोगों की क्रय क्षमता में वृद्धि होने से विस्तार की प्रक्रिया आगे चलेगी और भारत मन्दी के दौर में जाने से रुक जायेगा। रिजर्व बैंक ने छह महीने तक सभी प्रकार के ऋणों की अदायगी की किश्तें न जमा किये जाने की घोषणा भी इसी गरज से की है जिससे बाजार में नकद रोकड़ा का प्रवाह बना रहे और उत्पादनशील गतिविधियों को बल मिले परन्तु इससे लाॅकडाऊन के नुकसान का खामियाजा पूरा नहीं हो सकता। बेशक बैंकों से उद्यम इकाइयों को प्रचुर मिकदार में धनराशि ऋण लेने की व्यवस्था 20 लाख करोड़ रुपए के वित्तीय मदद पैकेज में की गई है लेकिन इससे बाजार में सीधे रोकड़ा की आवक नहीं बढे़गी और बिकवाल ही इस पर छाये रहेंगे जबकि खरीदार जेब खाली होने की वजह से इस तरफ रुख नहीं करेंगे।
खरीदारी बढ़ाने के लिए अतिरिक्त नकद रोकड़ा बाजार में लाने के इन्तजाम करने ही होंगे, सरकार की अगली तजवीज इससे मिलती-जुलती हो भी सकती है कि वह अपने घाटे की धनराशि का मुद्रीकरण कर दे अर्थात उतनी ही धनराशि के नये नोट छाप दे और उन्हें विभिन्न वर्गों को आर्थिक मदद के तौर पर तकसीम करने की नई स्कीम बनाये जिससे बाजार में नकद रोकड़ा की आवक भरपूर हो सके। इसलिए इन ‘मिट्टी के शेर’ कथित बुद्धिजीवियों को उल्टा घूमने की जरा भी जरूरत नहीं है। भारत में इतनी ताकत है कि वह इस संकट से पार पा सकता है।