1971 में बंगलादेश के उदय होने पर 1972 में पाकिस्तान के हुक्मरान जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ भारत की करारी शर्तों पर शिमला समझौता होने के बाद तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इदिरा गांधी ने न केवल पूरे दक्षिण एशिया की राजनीति बदल दी थी बल्कि भारत के भीतर अलगाववाद की आवाज उठाने वाले तत्वों में भी डर इस कदर बैठा दिया था कि वे राष्ट्रीय मुख्य धारा में स्थान बनाने के लिए तड़पने लगे थे। कश्मीर राग को पाकिस्तान जिस तरह अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाता था उससे इन अलगाववादी तत्वों को ताकत मिलती थी मगर पाकिस्तान के ही बुरी तरह टूट जाने पर इन तत्वों की स्थिति पूरी तरह मुर्दा तंजीमों की हो गई।
पूर्वी पाकिस्तान में स्व. शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व मे जिस तरह ‘जय बांग्ला’ के नारे गूंजे उससे धार्मिक आधार पर 1947 में गठित पाकिस्तान के वजूद पर सवालिया निशान खड़ा हो गया। यह मुल्क पूरी तरह मुरदार हालत में भारत के सामने दया और अपनी जान–माल की भीख मांगता नजर आया और अमेरिका की पीठ पर चढ़कर इसने भारत को जो बन्दर घुड़की 1971 के बंगलादेश युद्ध के समय बंगाल की खाड़ी में सातवां जंगी जहाजी एटमी बेड़ा भेज कर दी थी उसे भारत के मित्र देश सोवियत संघ ने एक ही चेतावनी से घिग्घी में बदल दिया कि यदि सातवें बेड़े से फौजी हरकत हुई तो महासंग्राम छिड़ जाएगा।
भारत की प्रधानमन्त्री की साख अन्तर्राष्ट्रीय जगत में बुलन्दी पर इस तरह पहुंची कि भारत के भीतर के वे तत्व थर–थर कांपने लगे जो इसकी महान लोकतान्त्रिक पद्धति के लचीलेपन का लाभ उठा कर अपना उल्लू साधना चाहते थे। पूरे घटनाक्रम को पड़ोसी चीन ने एक मूकदर्शक की तरह देखा और तटस्थ भाव से वह बंगलादेश के निर्माण की प्रक्रिया को देखता रहा। इसकी वजह यह थी कि पूरे विश्व में स्व. इन्दिरा गांधी ने बंगलादेश के संघर्ष को मानवीय संघर्ष में बदल दिया था। इसके लिए उन्होंने उस समय भारत के भीतर के विपक्षी राजनेताओं की मदद भी ली और उन्हें विदेशों में बंगलादेश में चल रहे मुक्ति संग्राम के पक्ष में समर्थन जुटाने का जिम्मा भी दिया। भारत की इस महान लोकतान्त्रिक ताकत के आगे अमेरिका को भी आखिरकार घुटने टेकने पड़े और उसे स्वीकार करना पड़ा कि पूर्वी पाकिस्तान का बंगलादेश में रूपान्तरण आत्म निर्णय के अधिकार की प्रक्रिया थी। मगर इस घटना का असर भारत में इस प्रकार पड़ा कि इन्दिरा जी ने जम्मू-कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए पहल करते हुए इस राज्य के नेता स्व. शेख अब्दुल्ला से वार्तालाप के द्वार खोले और उन्हें भारत की वे जायज शर्तें मानने के लिए राजी किया जिन पर स्वयं शेख अब्दुल्ला भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समय राजी थे।
उन्होंने भारतीय संघ मे जम्मू-कश्मीर रियासत के विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये थे और बदलते समय के अनुसार देश की राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार इस राज्य की स्थिति में भी बदलाव आ चुका था। शेख अब्दुल्ला के साथ इंदिरा गांधी ने बातचीत का जिम्मा तब कुशाग्र समझे जाने वाले कूटनीतिक श्री जी पार्थ सारथी को दिया और उन्होंने समझौते की शर्तें इस प्रकार तय की कि शेख अब्दुल्ला भारत सरकार से कोई अन्य रियायत न मांग सकें और इनमें सबसे ऊपर यह शर्त रही कि जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ के एक राज्य के रूप में कार्य करेगा और अनुच्छेद 370 के तहत मिले इसके विशेषाधिकार ( संशोधित) जारी रहेंगे। इसने जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद को पूरी तरह समाप्त करके एेसी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू कर दी जिसमें राज्य के लोगों की सभी समस्याओं का अन्त छिपा हुआ था। इस एेतिहासिक समझौते के बाद जम्मू-कश्मीर में अमन और चैन का शासन शुरू हुआ मगर राजनीतिक स्तर पर एेसा खालीपन भी पैदा हो गया जो लोकतन्त्र में अधिक समय तक संभव नहीं हो पाता है।
शेख साहब के सत्ता संभालने के बाद विपक्ष के लिए राज्य की राजनीति में कोई जगह नहीं बची थी। अतः सियासी तौर पर जम्मू-कश्मीर में हलचल तेज होने लगी। मगर शेख अब्दुल्ला के जीवित रहते विपक्ष के लिए अपनी जगह बनाना काफी मुश्किल साबित हुआ और जब उनकी 1982 में मृत्यु हो गई और उनकी विरासत को मुद्दे पर विवाद के बाद उनके पुत्र फारूक अब्दुल्ला मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठे तो सियासत का रंग बदलने लगा। उधर 1984 में इन्दिरा जी की हत्या हो गई। इसके बाद केन्द्र के समानान्तर जम्मू-कश्मीर रियासत में भी फिर से अलगाववादी हरकतें शुरू हुईं और 1990 के आते–आते यह राज्य आतंकवादी घटनाओं का शिकार होने लगा। सियासी रंग बदलने लगे सत्तारूढ़ पार्टियां भी बदलीं मगर आतंकवाद पर कोई लगाम नहीं लगा सका। पाकिस्तान में इस बीच फौजी शासकों ने सत्ता हथिया कर भारत से दुश्मनी इस तरह शुरू कर दी कि आतंकवाद के जख्मों से यह कराहने लगे। (समाप्त)