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शिक्षा के बाजारों मे लूट

नर्सरी दाखिलों का संग्राम खत्म होते ही अब स्कूलों में नए सत्र का आरम्भ हो चुका है।

निजी स्कूलों की मनमानी ‘परम स्वतंत्र सिर पर न कोई’ वाली कहावत चरित्रार्थ कर रही है। कई राज्यों में स्कूलों की फीस में 15 फीसदी बढ़ौतरी से अभिभावक परेशान हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के निजी स्कूलों ने अभिभावकों पर नया बोझ डाल दिया है। महंगाई के इस दौर में शिक्षा का बोझ सहना मुश्किल हो रहा है। निजी स्कूलों का कहना है कि फीस में बढ़ौतरी शिक्षा निदेशालय द्वारा तय नियमों के अनुसार ही की गई है। राज्य सरकारों की ओर से भी इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा रहा है। निजी स्कूल अमीर परिवारों के बच्चों की शिक्षा का केन्द्र बन गए हैं जबकि सरकारी स्कूल गरीबों की शिक्षा का केन्द्र बन गए हैं। शिक्षा की इस विषमता ने सामाजिक और ​आर्थिक विषमता की खाई को और बढ़ा  दिया है। इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षा का बाजारीकरण, जो समाज के लिए अभिशाप बन चुका है। किसी शॉपिंग मॉल की तरह बने निजी स्कूल मोटी फीस वसूल कर खर्चीले उपभोक्ता तैयार करने का काम कर रहे हैं। दरअसल शिक्षा के बाजारीकरण ने​ शिक्षा की आत्मा को मार कर रख दिया है।
स्कूली शिक्षा के माध्यम से ही हम व्यक्तित्व, मानसिक कुशलता, नैतिक और  शारीरिक शक्ति का विकास करना सीखते हैं। बिना उचित शिक्षा के एक व्यक्ति अपने जीवन के सभी शैक्षिक लाभों से व​चित रह जाता है। शिक्षा निजी और पेशेवर जीवन में सफलता की इकलौती कुंजी है। शिक्षा हमें विभिन्न प्रकार का ज्ञान और  कौशल प्रदान करती है। यह सीखने की ​निरंतर, धीमी और सुरक्षित प्रक्रिया है जो हमें ज्ञान प्राप्त करने में मदद करती है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो हमारे जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है और हमारे जीवन के साथ ही खत्म होती है। हमें अपने अन्दर पूरे जीवन भर अपने अध्यापकों, अभिभावकों, परिवार के सदस्यों और हमारे जीवन से संबंधित अन्य व्यक्तियों से कुछ ना कुछ सीखने की आदत डालनी चाहिए।  हम एक अच्छा व्यक्ति बनने, घर, समाज, समुदाय और दोस्तों में रहने के लिए कुछ ना कुछ सीखते रहते हैं। स्कूल जाना और ​शिक्षा ग्रहण करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और जो सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए बहुत आवश्यक है।
शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा। इसका असर बच्चों के स्वभाव में स्पष्ट रूप से देखने को मिल  रहा है। अभिभावक बच्चों को शुरू से ही नोट उगलने वाली एटीएम मशीन के रूप में देखना चाहते हैं। कोई बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन करना नहीं चाहता। प्रवेश शुल्क, किताबें और यूनीफार्म के नाम पर निजी संस्थान मोटी कमाई कर रहे हैं। निजी संस्थान प्रवेश फार्म में अभिभावक के पेशे को देेखकर एडमिशन तय करते हैं। शिक्षा से जुड़े बहुत सारे सवाल व्यवस्था के सामने यक्ष प्रश्न बने हुए हैं। संविधान में निर्दिष्ट समानता का अधिकार बेमानी लगता है। निजी स्कूलों में एयरकंडीशन, सीसीटीवी कैमरे, लग्जरी बसें हर अभिभावक का सपना है। साधारण तथा मध्यवर्गीय परिवार बड़े स्कूलों काे दूर से ही टकटकी लगाए देखते हैं। महानगरों में ही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हो चुका है। कोरोना काल के दौरान आर्थिक संकट झेल रहे हजारों परिवारों ने अपने बच्चों को निजी स्कूलों से हटा लिया। दरअसल यह एक धारणा है कि महंगे स्कूलों में बेहतर शिक्षा दी जाती है लेकिन मध्यमवर्गीय परिवार भी महंगे स्कूलों में अपने बच्चे भेजने में असमर्थ हैं।
महंगे स्कूल बच्चों और अभिभावकों पर परफॉमर्स को लेकर दबाव बनाए रखते हैं। इस दबाव ने बच्चों से उनकी अबोधता और मौलिकता छीन ली है। यह समाजशास्त्रीय अपराध है, जिसके लिए अभिभावक भी दोषी हैं। आज अभिभावकों की इच्छाओं का दोहन बच्चों के बेहतर भविष्य के सपने दिखाकर किया जा रहा है। मां-बाप अपने बच्चों काे ‘असाधारण’ देखना चाहते हैं। असाधारणता एक साइक्लॉजीकल समस्या का रूप ले चुकी है जो बच्चों और अभिभावकों में अवसाद परोस रही है। बच्चों को समझने की बजाय सारा जोर बच्चों को समझाने पर है। बच्चों के नाम पर बाजार हमारे जज्बातों का आर्थिक दोहन करने में लगा है। व्यवस्था इससे पैदा हो रही समस्याओं और  मनोविकारों से मुंह चुरा रही है। सवाल है हम हासिल करना चाह रहे हैं, वह हासिल होता दिख नहीं रहा।
शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रत्येक बच्चे को ​िमले, इसके लिए शिक्षा सहज और सस्ती उपलब्ध होनी चाहिए। शिक्षा गुणवत्तापूर्ण तो हो ही साथ ही संस्कार युक्त भी होनी चाहिए। शिक्षा के उद्देश्य तभी पूरे होंगे जब अमीर और गरीब के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। सबसे बड़ी समस्या यह है कि निजी स्कूल वे लोग चला रहे हैं जिनका शिक्षा से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं। उन्होंने व्यापार की तरह लाखों-करोड़ों का निवेश कर रखा है ताकि मोटी कमाई हो सके। शिक्षा के बाजार में लूट मची हुई है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो नई शिक्षा नीति का कोई लाभ नहीं ​मिलने वाला। शिक्षा व्यवसाय नहीं एक पवित्र मिशन है, इसलिए इसे मिशन बनाने के लिए सरकारों और विद्वानों  को मिलकर कोई ठोस समाधान निकालना चाहिए। अगर हर बच्चे को सहज और सस्ती शिक्षा मिले तो ही वह उच्च शिक्षा में मुकाम हासिल कर पाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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