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विपक्षी एकता की राजनीति

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स्वतन्त्र भारत के इतिहास में ऐसे अवसर कई बार आए हैं जब इस देश के आम लोगों ने देश के भविष्य का फैसला अपनी समझ से इस तरह किया है कि राजनीति स्वयं अपना पता पूछने को मजबूर हो गई है। इस देश के लोगों पर विपक्ष और सत्तारूढ़ दलों की शेखियों का असर कभी भी सर पर सवार होने में कामयाब नहीं पाया है क्योंकि लोगों ने हमेशा समय की कसौटी पर उनके कामों को परखने का जिम्मा दोनों में से किसी भी पक्ष को देने की गलती नहीं की है। ऐसा भी हुआ है जब समूचे विपक्ष ने संगठित होने के बावजूद चुनावी मैदान में मुंह की खाई और ऐसा भी हुआ है जब उसकी संगठित शक्ति ने सत्ताधारी दल की अकड़ को इस तरह निकाला कि उसका सरपरस्त ही द्वारे-द्वारे पानी मांगता फिरा, 1971 में भारत की सभी प्रमुख पार्टियों ने चौगुटा बना कर स्व. इदिरा गांधी की नई कांग्रेस पार्टी को औद्योगिक व पूंजीपति और राजसी घरानों की मदद से हराना चाहा था जिसे लोगों ने पूरी तरह नकार कर कांग्रेस से अलग होकर ही इन्दिरा जी की बनी नई कांग्रेस पार्टी का झंडा इतना ऊंचा लहरा दिया कि पूरा भारत उसके साये में खड़ा होकर नृत्य करने लगा मगर 1977 में इन्हीं लोगों ने सभी प्रमुख विपक्षी दलों के जमघट को अपना अलम्बरदार मानते हुए इन्दिरा जी की पार्टी नई कांग्रेस को दक्षिण भारत के किनारे समुद्र के छोर पर ले जाकर पटक दिया।

वही इन्दिरा जी थीं और वही उनकी पार्टी थी। वही विपक्ष था और उसके नेता भी कमोबेश वही थे मगर लोगों की सोच में जमीन-आसमान का अन्तर आ चुका था। लोगों के सामने तब एकजुट हुए विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं का सच बदला नहीं था। वे सभी की सियासी तासीर से वाकिफ थे लेकिन उनके सामने सिर्फ एक लक्ष्य था कि भारत की विचार-विविधता की विराटता को कभी भी कोई एक पार्टी अपनी जागीर समझ कर उसकी तस्वीर अपने हिसाब से नहीं बना सकती। अक्सर हम चुनावों के मौके पर गठबंधन बनते-बिगड़ते देखते हैं मगर राजनीतिक गठबंधनों का किसी एक केन्द्रीय विचार के विरोध में समागम होने लगता है तो प्रजातन्त्र में युद्ध की भयावहता का अन्दाजा लगाना मुश्किल हो जाता है। प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी द्वारा शनिवार को कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में की गई रैली में आई अपार भीड़ ने साबित कर दिया है कि जनता के दिल में कुछ ऐसे सवाल उठ रहे हैं जिनका उत्तर पाने के लिए वह विपक्ष के नेताओं का मुंह ताक रही है। एक प्रकार से देश की राजनीति के लिए यह अच्छा संकेत भी माना जाएगा क्योंकि जनता आगामी लोकसभा चुनावों में अपने वोट का इस्तेमाल बहुत नाप-तोल कर करना चाहती है।

सिर्फ देखने वाली बात यह होगी कि जनता नकारात्मक भाव रखकर मतदान केन्द्र तक तो नहीं जाएगी? यह नकारात्मक भाव दोनों ही पक्षों के लिए हो सकता है मगर इतना निश्चित है कि इसका नतीजा सकारात्मक ही निकलेगा और वही देश की आगे की दिशा तय करेगा। दरअसल लोकसभा चुनाव देश के होंगे और इनमें वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी को अपने पिछले पांच साल का रिपोर्ट कार्ड आम मतदाता को दिखाना पड़ेगा। नए वादों का सब्जबाग दिखाकर जब भी कोई हुकूमत में रहने वाली पार्टी लोगों का ध्यान अपने पुराने काम से हटाने की कोशिश करती है तो उसके खिलाफ सत्ताविरोधी भाव पसरने लगता है। ममता दी की रैली में जुड़े बीस से अधिक राजनीतिक दलों के छोटे-बड़े नेताओं के जमा होने का अर्थ उनके बीच सभी मतभेद समाप्त होने से बिल्कुल नहीं है बल्कि ऐसे केन्द्रीय विचार के खिलाफ हमला बोलने से है जिसे सत्तारूढ़ पार्टी अपनी पूंजी मान कर चुनावों में उतरना चाहती है। इसमें व्यक्ति का कोई खास महत्व नहीं है बल्कि सत्ता के स्वरूप का है क्योंकि विपक्षी दल मानते हैं कि सत्ता धनपतियों का हित साधने का जरिया बन गई है और आम जनता को धार्मिक पहचान के खांचों में बांटा जा रहा है, परन्तु सवाल यह बहुत टेढ़ा है कि खुद अपने-अपने संकुचित दायरे में बंटे हुए विपक्षी दल इस विकराल समस्या का हल कैसे ढूंढ़ेंगे? इसके लिए उन्हें एक ऐसे राष्ट्रीय अवलम्बन की जरूरत पड़ेगी जो उनके क्षेत्रीय संकुचित दायरे को भारत की समग्रता में रखकर देख सके। यहीं पर कांग्रेस पार्टी की अपरिहार्यता इन सभी दलों के लिए बनती है क्योंकि अपने-अपने सूक्ष्म रूप को उन्हें देश के सामने विशाल स्वरूप में रखना होगा। जो भी दल आज कांग्रेस व भाजपा से समान दूरी बनाए रखने को अपनी जीत का फार्मूला समझ रहे हैं वे परोक्ष रूप से भाजपा के साथ ही माने जाएंगे क्योकि उनका लक्ष्य तटस्थ रहकर चुनावी युद्ध में पर्यवेक्षक की भूमिका निभाने का है।

मगर लोकतन्त्र में प्रत्येक दल को अपनी भूमिका निभाने की खुली आजादी है केवल देखने वाली बात यह रहती है कि मतदाता उनकी भूमिका को किस दृष्टि से देखते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में यह देखा जाएगा कि पिछले पांच साल में इस देश का मतदाता कितना मजबूत हुआ है और उसकी मजबूरियां कितनी कम हुई हैं। लोकतन्त्र में मजबूत सरकार का मतलब इसके लोगों की मजबूती से होता है। यह मजबूती उन्हें मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों से आती है अगर यह संवैधानिक व्यवस्था होती है कि सरकारी दफ्तरों में ठेके पर नौकरी देने की प्रथा को जड़ से खत्म कर दिया जाएगा तो आज ही देश में लाखों नौकरियां रातों-रात पैदा हो जाएंगी मगर जब देश में राम मन्दिर और मस्जिद के झगड़े को उछाला जाता है और धड़ाधड़ बन्द होते कारखानों को सामान्य समस्या माना जाता हो तो युवा पीढ़ी को एक चपरासी की नौकरी के लिए अपनी डिग्रियां दांव पर लगाने से कैसे रोका जा सकेगा। क्या विपक्षी दलों के गठबन्धन के पास भी इसका कोई जवाब है? अगर है तो वे इसका खुलेआम इजहार करें और सरकार से पूछें कि भारत के हवाई जहाज बनाने वाले बेंगलुरु स्थित हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. कारखाने में कितनी नौकरियां बढ़ी हैं और इसे अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें देने तक के लिए बैंकों से उधार क्यों लेना पड़ रहा है? क्यों हर जिले में सरकार अपनी देखरेख में अच्छे अस्पताल बनवा कर गरीबों को स्वास्थ्य सेवा सुलभ नहीं करा सकती। इससे तो पूरे देश में लाखों नई नौकरियों का सृजन होगा। क्यों निजी बीमा कम्पनियों को गरीबों के इलाज पर भी मुनाफा कमाने का मौका दिया जाए। हकीकत यह है कि इन सवालों का जवाब ही आम जनता इन लोकसभा चुनावों में मांगेगी और विपक्ष को भी इनसे दो-चार होना पड़ेगा। लोकसभा में अब डा. लोहिया जैसा कोई नेता भी नहीं है जो चुनौती फैंक सके कि आज भी गांव में गरीब आदमी दो वक्त की रोटी अपने पूरे परिवार को 36 रुपए में ही खिलाता है।

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