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महाराष्ट्र में सम्भावना का खेल!

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के बाद जिन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया है उससे यह तथ्य तो स्पष्ट हो गया है कि राजनीतिक दल ‘जनादेश’ को तोड़ने-मरोड़ने में महारथ रखते हैं।

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के बाद जिन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया है उससे यह तथ्य तो स्पष्ट हो गया है कि राजनीतिक दल ‘जनादेश’ को तोड़ने-मरोड़ने में महारथ रखते हैं। इससे यह भी साफ हो गया कि चुनाव पूर्व किये गये दलीय गठबन्धन की पवित्रता तभी तक कायम रह सकती है जबकि इसमें शामिल दलों के हित उनकी इच्छानुसार सध रहे हों। 
भारत के संसदीय लोकतन्त्र में गठबन्धन की राजनीति का इतिहास भी अब पचास साल पुराना हो चुका है और इसमें  सभी तरह के उदाहरण हमें देखने को मिल जाते हैं परन्तु सामान्यतः चुनाव बाद बने गठबन्धनों में ही हमें विविधता देखने को मिलती है जिसमें किसी प्रकार की सिद्धान्त या नियम की बाध्यता देखने को नहीं मिलती है। प्रायः ऐसे गठबन्धनों को जोड़े रखने में इसके नेता का ‘राजनीतिक कद’ चुम्बकीय भूमिका निभाता रहा है। यह भी हकीकत है कि गठबन्धन की राजनीति में नेता की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा उसके राजनीतिक दल की छवि से ऊपर रख कर देखी जाती रही है। 
हालांकि भारत के किसी भी राज्य में सबसे पहली गठबन्धन सरकार ओडिशा में 1956 में तब गठित हुई थी जब इस राज्य के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमन्त्री स्व. नवकृष्ण चौधरी दैनिक आधार पर होने वाले दल-बदल की समस्या से घबरा गये थे और एक सच्चा गांधीवादी होने की वजह से उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देकर अपने सामान की गठरी बांध सिर पर रख कर सपत्नीक मुख्यमन्त्री निवास से पैदल ही मार्च करते हुए कटक के गांधी आश्रम में डेरा जमा दिया था। तब देश के प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाले नेहरू ने ओडिशा राज्य की राजनीति के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले स्व. डा. हरेकृष्ण मेहताब को मुम्बई सन्देश भेज कर कटक जाने के लिए कहा था और कांग्रेस विधायक दल की सरपरस्ती संभालने की ताईद की थी। 
डा. मेहताब को 1952 के लोकसभा चुनावों के बाद तत्कालीन मुम्बई राज्य का राज्यपाल भी पं. नेहरू ने ही बनाया था इससे पहले ओडिशा की राजनीति से केन्द्र की राष्ट्रीय राजनीति में भी डा. मेहताब को स्वयं पं. नेहरू ही तब लाये थे जब जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामाप्रशाद मुखर्जी ने 1950 के अन्त में उनके मन्त्रिमंडल से उद्योगमन्त्री के तौर पर इस्तीफा दे दिया था। डा. मेहताब ने कटक पहुंचते ही सबसे पहला काम यह किया कि दल-बदल से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने ओडिशा राज्य के मुख्य विपक्षी दल ‘उत्कल गणतन्त्र परिषद’ से सम्पर्क साधा और उसका समर्थन लेकर सदन में अपना बहुमत साबित करने का निश्चय किया। 
गणतन्त्र परिषद राजे-रजवाड़ों व जमींदारों की पार्टी थी जिसका आदिवासी क्षेत्रों में खास प्रभाव था।  पं. नेहरू ने कांग्रेस व गणतन्त्र परिषद के गठबन्धन को अपना आशीर्वाद देते हुए कहा कि गणतन्त्र परिषद आदिवासी जनता का प्रतिनिधित्व करती है अतः उसके साथ गठबन्धन करके बनाई गई सरकार का लोक-प्रतिनिधित्व और व्यापक होगा। अतः ओडिशा की राजनीतिक अस्थिरता का हल उस दौर में प्रतिष्ठित व चतुर राजनीतिक व्यक्तित्व के चुम्बकीय नेतृत्व के जरिये ढूंढा गया जो कालान्तर में गठबन्धन की राजनीति का आधारभूत नियम बन गया और 1967 में जब नौ राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें गठित हुईं तो उनमें से अधिसंख्य का नेतृत्व कांग्रेस छोड़ कर अपनी अलग पार्टी बनाने वाले प्रतिष्ठित नेताओं को ही दिया गया। 
जिनमें चौधरी चरण सिंह (उत्तर प्रदेश), गोविन्द नारायण सिंह (मध्य प्रदेश), महामाया प्रसाद सिन्हा (बिहार),  अजय मुखर्जी (प. बंगाल) राव वीरेन्द्र सिंह (हरियाणा) प्रमुख थे। ये सभी नेता 1967 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के टिकट पर ही चुने गये थे मगर सम्बद्ध सदनों में उनकी पार्टी बहुमत से कम रह गई थी अतः उन्होंने कुछ विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ी और विपक्षी संगठित खेमे के वे नेता घोषित हो गये और मुख्यमन्त्री बन गये। बेशक उस समय दल-बदल विरोधी कानून नहीं था अतः अनेक दलों को एक छाते के नीचे जमाये रखने की जिम्मेदारी भी बहुत ज्यादा थी जो नेतृत्व क्षमता के बूते पर ही संभव थी। महाराष्ट्र आज इसी समस्या से जूझ रहा है। 
राज्य में पिछले पांच साल तक भाजपा व शिवसेना की सरकार चली मगर इसका नेतृत्व श्री देवेन्द्र फड़नवीस के हाथ में रहा जो स्वयं राजनीति में अपेक्षाकृत नये थे जिसकी वजह से बात-बात पर नुक्ताचीनी करती शिवसेना की वह राजनीतिक पैंतरेबाजी समझने में सफल नहीं हो सके। यही वजह रही कि चुनावों के बाद पहले ही अवसर पर विधायकों की संख्या का गणित समझ कर शिवसेना ने ढाई साल तक मुख्यमन्त्री का पद अपने पास रखने की शर्त लगा दी। यह शर्त केन्द्र से लेकर राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा का मनोबल तोड़ने के लिए थी। 
यह इस तथ्य का भी प्रमाण है कि महाराष्ट्र में भाजपा के पास शिवसेना के कद का कोई क्षेत्रीय नेता नहीं है और यदि है तो वह राज्य की राजनीति से बाहर है। दूसरी तरफ शिवसेना को श्री शरद पवार के जरिये कांग्रेस से हाथ मिलाने में कोई संकोच नहीं है क्योंकि पिछले एक साल से भाजपा के साथ रहने के बावजूद वह विपक्ष की भूमिका ही निभाने की कोशिश कर रही है। अतः इस राज्य में यदि इन तीनों विपक्षी दलों की साझा सरकार बनती है तो इसे चलाये रखने की जिम्मेदारी भी शिवसेना के ​सिर पर ही आकर पड़ेगी और इसे तोड़ने का अपयश भी उसे ही झेलना पड़ेगा। 
सवाल सिर्फ यह होगा कि इस गठबन्धन का नेतृत्व कौन नेता करेगा? जो संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे यह जिम्मेदारी संभाल सकते हैं  मगर इससे पहले कांग्रेस को अपना रुख साफ करना होगा कि उसके शिवसेना के साथ सम्बन्ध राजनीतिक दायरे में किस खांचे में सिमटेंगे। वैसे यह काम कोई मुश्किल भी नहीं है क्योंकि भाजपा के साथ श्री राम विलास पासवान की वह पार्टी बड़े आराम से है जिसने कभी गोधरा तो कभी अयोध्या मुद्दे पर उल्टे तीर छोड़े थे। अतः राजनीति में सब संभव है और ‘सभावनाओं’ के खेल को ही ‘राजनीति’ कहा जाता है।

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