जम्मू-कश्मीर के नये राज्यपाल के रूप में श्री सत्यपाल मलिक की नियुक्ति का स्वागत उनकी राजनैतिक विचार विविधता की आधारभूमि को देखते हुए किया जाना चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके इस समस्याग्रस्त प्रदेश के राजप्रमुख बनने पर स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आयेगा। श्री मलिक को पिछले 12 साल से राज्यपाल पद पर सेवारत श्री एन.एन. बोहरा के स्थान पर नियुक्त करके मोदी सरकार ने वह लचीलापन दिखाया है जिसकी जरूरत कश्मीर को है क्योंकि इस राज्य की समस्या का हल हम भारत की व्यापक सर्वग्राही परपंरा के भीतर ही निकाल सकते हैं। श्री मलिक एेसे राजनीतिज्ञ हैं जिन्हे युवाओं की समस्याओं को समझने में कोई गफलत नहीं हो सकती। जिस शालीनता के साथ बिहार के राज्यपाल के रूप में उन्होंने अपना कार्य निष्पादन किया है उससे भी उम्मीद बंधती है कि वह जम्मू-कश्मीर की हुकूमत के सरपरस्त होने पर इस राज्य के लोगों में विश्वास का संचार कर पायेंगे।
उनका राजनैतिक जीवन बहुत ज्यादा सुर्खियों में नहीं रहा है इसके बावजूद वह आम जनता की समस्याओं के गहरे जानकार हैं और मजदूरों, किसानों, दस्तकारों व छात्रों या युवाओं के मसलों को समझने की क्षमता किसी औसत राजनीतिज्ञ से ज्यादा रखते हैं। इसकी असली वजह यह है कि श्री मलिक मूलतः समाजवादी हैं जिससे उनकी सोच पर डा. लोहिया के विचारों की गहरी छाप है और वह कश्मीर की समस्या को भी उसी नजरिये से देखेंगे इसमें किसी प्रकार का सन्देह भी नहीं है। सत्ता में जन भागीदारी के डा. लोहिया के सिद्धान्त को किस प्रकार वह कश्मीर में लागू करते हैं, इससे उनकी परीक्षा भी हो जायेगी परन्तु इतना तय है कि समाजवादी युवजन सभा के छात्र नेता के रूप में साठ व सत्तर के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धूम मचाने वाले लोकप्रिय युवा नेता सत्यपाल मलिक को अब सत्तर साल की उम्र के पड़ाव पर वह राजनैतिक परिपक्वता दिखानी होगी जिससे इस राज्य के लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार पुनः इस प्रकार बन सके कि राज्यपाल के रूप में उनकी भूमिका पूरी तरह बेदाग रहे। राज्य में महबूबा मुफ्ती की भाजपा के सहयोग से बनी सरकार जिन परिस्थितियों में गिरी उसके कारणों में जाये बिना श्री मलिक राज्य में नई सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकते। इस सरकार के धराशायी होने के बाद महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी व भाजपा दोनों ही एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं।
वास्तव में इसका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि दोनों पार्टियों को सरकार बनाने से पहले ही मालूम था कि दोनों ही दो तरफ मुंह करके खड़ी हुई हैं। इनके ‘युग्म’ से जिस सरकार का गठन हुआ था वह भी विपरीत दिशाओं में एक-दूसरे को खींचने की कवायद ही साबित हुआ और सिद्ध कर गया कि विपरीत विचारधारा वाले दलों का गठबन्धन स्थायी नहीं हो सकता। शासन चलाने के लिए गठबन्धनों को बनाना संसदीय लोकतन्त्र की मजबूरी खंडित जनादेश के चलते हो सकती है मगर सरकार को तभी चलाया जा सकता है जब विपरीत विचारधारा के सहयोग से बनी एेसी सरकार स्वीकार्य सांझा कार्यक्रम के दायरे के भीतर ही कार्य करे और अपने-अपने राजनैतिक एजेंडे को ताक पर रख दे। दुर्भाग्य से यह कार्य महबूबा सरकार में नहीं हो सका जिसकी वजह से वहां राज्यपाल शासन लागू कर दिया गया। जाहिर है कि श्री मलिक के लिए यह चुनौतीपूर्ण कार्य है।
सबसे बड़ी चुनौती राज्य में कुछ अलगाववादियों द्वारा राष्ट्रविरोधी कार्यों पर लगाम लगाने की है मगर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सूबे में वह राजनैतिक माहौल बनाना है जिसमें सभी सियासी तंजीमों के लिए जगह हो। राज्य की विधानसभा फिलहाल स्थगित हालत में है और इसके लगभग तीन साल और शेष हैं। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर को भारत से जोड़ने वाले अनुच्छेद 35 (ए) का मसला भी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय पहले भी दो बार इस अनुच्छेद को संवैधानिक रूप से वैध बता चुका है परन्तु अब पुनः इस पर सुनवाई हो रही है। दरअसल इन उलझी हुई पेचीदा परिस्थितियों में ही श्री मलिक को अग्निपरीक्षा देनी होगी। इस मामले में उनका समाजवादी होना राज्य के लिए लाभ में अभिवृिद्ध कर सकता है बशर्ते वह डा. लोहिया के साथ-साथ स्व. जयप्रकाश नारायण के विचारों का भी ध्यान रखें। इस सन्दर्भ में इमरजेंसी के दौरान चंडीगढ़ जेल में बन्द स्व. जय प्रकाश नारायण का वह पत्र बहुत महत्वपूर्ण है जो उन्होंने 1974 दिसम्बर में ‘इंदिरा-शेख समझौता’ होने के बाद शेख अब्दुल्ला को लिखा था। इस पत्र में जेपी ने साफ कहा था कि कश्मीर की भौगोलिक व सामाजिक स्थिति को देखते हुए और इस राज्य में आपके नेतृत्व में प्रजातन्त्र के लिए चले लम्बे संघर्ष के मद्देनजर भारतीय संघ के दायरे में इसकी स्वायत्तता भारत की एकता के लिए बहुत जरूरी है।
हकीकत यह है कि पूर्व में कश्मीर एेसा राज्य रहा है जिसमें हिन्दू-मुस्लिम अन्तर धार्मिक विवाहों को पूरे समाज की मान्यता कश्मीरियत के भीतर समा जाती थी। राज्य के इस गौरवशाली समावेशी इतिहास को कालान्तर में धर्मान्धता फैलाने वालों ने जहर से भर दिया परन्तु मेरठ कालेज छात्र संघ के अध्यक्ष पद से अपनी राजनैतिक यात्रा शुरू करने वाले श्री मलिक के लिए ये अंजानी बातें नहीं हो सकतीं। जो लोग उन्हें करीब से जानते हैं उन्हें मालूम है कि जब 1970 के शुरू में कुछ कथित कश्मीरी गुमराह युवकों ने श्रीनगर हवाई अड्डे से भारतीय यात्री विमान का अपहरण करके उसे लाहौर ले जाकर फूंक डाला था और मेरठ कालेज से शुरू होकर छात्रों का जुलूस यह नारा लगाते हुए जा रहा था कि ‘उसने फूंका एक विमान-हम फूंकेंगे पाकिस्तान’ तो छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष के नाते उन्होंने युवाओं की सभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि हमें गुस्सा नहीं करना है बल्कि पूरे कश्मीर (पाक अधिकृत समेत) को हिन्द की चादर में समेटना है। काल के चक्र ने आज फिर से श्री मलिक को कश्मीर का ही राजप्रमुख बना दिया है। देखना यह है कि अब वह किस दूरदृष्टि से इस प्रदेश की समस्या का हल निकालते हैं।