नेपाल में वहां की राष्ट्रीय एसेम्बली (संसद) के चुनावों के बाद जो परिणाम निकल कर आये उसमें नेपाली कांग्रेस के नेता सेवा निवृत्त प्रधानमन्त्री शेर बहादर देउबा नेतृत्व मे गठित पांच दलों के गठबन्धन को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो सका जिसकी वजह से कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (युनीफाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट) के चेयरमैन पूर्व प्रधानमन्त्री श्री के.पी. शर्मा औली के नेतृत्व में गठित देश के छोटे दलों के साथ बने गठबन्धन को सत्ता की राजनीति में अपनी गोटी बिछाने का अवसर मिला और उन्होंने नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाले पांच दलीय गठबन्धन के सदस्य नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी ( माओवादी सेंटर) के अध्यक्ष श्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ को अपनी तरफ मिलाकर नई सरकार बनाने का दावा अपने बहुमत के बूते पर ठोक दिया। इसके परिणाम स्वरूप राष्ट्रपति श्रीमती विद्या देवी भंडारी ने प्रचंड को प्रधानमन्त्री नियुक्त करके उन्हें अपनी सरकार बनाने की दावत दे दी। नेपाल के संसदीय लोकतन्त्र का इसे संसदीय गणित कहा जायेगा जो बहुमत के आधार को ही मानता है। बेशक श्री प्रचंड की पार्टी ने श्री देउबा की नेपाली कांग्रेस के साथ मिल कर संसद के चुनाव लड़े थे मगर चुनावों के बाद वह अपनी पार्टी के सांसदों के साथ किसी अन्य दल को समर्थन देने के लिए स्वतन्त्र थे और उन्होंने ठीक ऐसा ही किया और श्री औली के साथ सत्ता का समीकरण इस प्रकार बैठाया कि अगले चुनावों तक आधे-आधे समय तक दोनों नेता प्रधानमन्त्री के पद पर रहें। इस समझौते में पहला अवसर श्री प्रचंड को मिला। नेपाल में भी भारत जैसी ही संसदीय व्यवस्था है और वहां भी बहुमत की सरकार का ही गठन होता है। अतः राष्ट्रपति श्रीमती भंडारी के पास सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प नहीं था कि वह श्री प्रचंड को प्रधानमन्त्री नियुक्त न करतीं। संसदीय परंपरा और अपने देश के संविधान के तहत उन्होंने जो कदम उठाया वह पूरी तरह उचित और वैध है। श्री प्रचंड ने 275 सदस्यीय संसद में 170 सांसदों के समर्थन का दावा पेश किया जिसके आधार पर वह प्रधानमन्त्री बनाये गये। राष्ट्रीय चुनावों में हालांकि नेपाली कांग्रेस को सबसे ज्यादा 89 सीटें मिली थी मगर उसके पास बहुमत का आंकड़ा नहीं जुट सका जबकि श्री औली की कम्युनिस्ट पार्टी को 78 और श्री प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी को 32 सीटें मिली। इन दोनों पार्टियों ने अन्य चार छोटे दलों के चुने गये सदस्यों की मदद से बहुमत का आंकड़ा पेश किया और आपस में आधे- आधे समय तक प्रधानमन्त्री बने रहने का समझौता किया। हालांकि श्री प्रचंड को जिन छोटे दलों का समर्थन प्राप्त है उनमें कोई सैद्धान्तिक या वैचारिक तालमेल नहीं है। इनमें नेपाल की राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी भी है और जनता समाजवादी पार्टी भी है और साथ ही राष्ट्रीय स्वतन्त्र पार्टी के अलावा क्षेत्रीय दल जनमत पार्टी व नागरिक उन्मुक्त पार्टी भी है। इस प्रकार से प्रचंड को प्रधानमन्त्री बनाने या कम्युनिस्टों को शासन का मुखिया बनाने के लिए यह पंचमेल मिश्रण तैयार हुआ है। यह नेपाल की राजनीति में कितना स्थायित्व ला पायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा मगर इतना निश्चित है कि 2008 में ही पूर्ण रुपेण संवैधानिक लोकतन्त्र बना नेपाल अब संसदीय राजनीति के गुरों में माहिर होता जा रहा है और इस प्रणाली के सत्ता के आंकड़ों के खेल को बखूबी समझता है। भारत के सन्दर्भ में देखें तो नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का रुख चीन के समर्थन में माना जाता है परन्तु नेपाल और भारत की जनता के बीच के धार्मिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक सम्बन्धों की उपेक्षा करना इनके बस की बात भी नहीं रही है। पूर्व में श्री प्रचंड दो बार व श्री औली भी प्रधानमन्त्री रह चुके हैं और इन्होंने देखा है कि दोनों देश की जनता आपस में एक-दूसरे को सहोदर भ्राता के रूप में ही देखती है। श्री प्रचंड ने जिस प्रजातन्त्र पार्टी के साथ गठबन्धन किया है वह तो नेपाल को पुनः ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित करने पर विश्वास रखती है। अतः श्री प्रचंड के लिए अपनी सत्ता की गाड़ी खींचने के लिए कई प्रकार के समझौते करने होंगे और वह कम्युनिस्ट नजरिया छोड़ना होगा जिसके वह 1996 से लेकर 2006 तक कायल रहे और हिंसक संघर्ष की पैरवी करते रहे। हालांकि इस सिद्धान्त से उन्होंने पूर्व में प्रधानमन्त्री बनने पर ही पल्ला झाड़ लिया था मगर इस बार चुनौतियां दूसरी भी हैं। नेपाल की नई सरकार को भारत के साथ अपने प्राचीन एेतिहासिक प्रगाढ़ सम्बन्धों की छत्रछाया में ही अपने विकास के वे रास्ते तय करने होंगे जिनमें नेपाली जनता की सुख-समृद्धि निहित हो। नेपाल का सर्वांगीण विकास करने में स्वतन्त्र भारत की सरकारों की भूमिका पं. नेहरू के जमाने से लेकर आज तक एेसे उत्प्रेरक की रही है जिसने मानवीयता व भाईचारे को अपना ध्येय बनाये रखा। यहां तक कि जब 2008 में नेपाल मे राजशाही के विरुद्ध भयंकर विद्रोह हो रहा था तो भारत ने यही उद्घोष किया था कि ‘नेपाल में वही होना चाहिए जो वहां की जनता चाहती है’। नेपाल का संसदीय प्रणाली में रूपान्तरण भी भारत के सहयोग से ही हुआ है। अतः एक स्वस्थ प्रजातन्त्र के रूप में नेपाल की नई प्रचंड सरकार को भी नेपाल की जनता की अपेक्षाओं पर ही खरा उतरने के लिए अपने देश के नीतिगत फैसले लेने होंगे। जाहिर है यह नीति भारत-नेपाल मधुर सम्बन्धों की परिधि में ही घूमती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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