सब जानते हैं कि लोकसभा चुनाव 2019 को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष में जबर्दस्त तैयारियां चल रही हैं। आरोप-प्रत्यारोपों के बीच लोकसभा का चुनाव जीतने के लिए कोई भी, किसी भी हद तक जाने को तैयार है। मौजूदा सत्तारूढ़ सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए के आवरण तले चल रही है, जबकि 2014 में प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह की सरपरस्ती और यूपीए के झंडे तले कांग्रेस ने सत्ता को गंवा दिया था। तब से हाशिए पर आई कांग्रेस ने खुद को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बावजूद इसके कि भाजपा के हर छोटे-बड़े नेता ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा तक दे डाला। इसका मतलब था कि राज्यों से भी कांग्रेस को चलता करो।
कांग्रेस ने हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल, गोवा और मणिपुर जैसे राज्य गंवाए लेकिन इसके बावजूद वह डटी रही। उसने पंजाब में सत्ता प्राप्त की तो वहीं कर्नाटक जैसे संपन्न राज्य में वापसी करके तहलका मचा दिया। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में वापसी करके कांग्रेस ने दिखा दिया कि उसका वजूद बरकरार है। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस ने आपस में कई दलों के साथ समझौते किए जो कि राजनीति की पहली और आखिरी शर्त रहती है। इसीलिए आज की तारीख में राजनीतिक समझौतों के तहत गठजोड़ किए जा रहे हैं। यूपीए और एनडीए दोनों ही गठजोड़ के दम पर आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन गठबंधन को लेकर राजनीतिक सौदेबाजी को लेकर दोनों के सहयोगी दलों की नाराजगी गांठों के रूप में उभर रही है, इसलिए कल क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। एनडीए के लिए उसके सहयोगी दल बराबर परेशानी का सबब बने हुए हैं।
शिवसेना रह-रहकर भाजपा की कार्यशैली को लेकर हमले कर रही है और अकेले चुनाव लड़ने की खुली धमकियां तक दी रही है। राम मंदिर निर्माण को लेकर तो एनडीए के सबसे बड़े सहयोगी दल शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने साफ कह दिया कि अगर आप मंदिर नहीं बना सकते तो कल को आपको कोई वोट नहीं देगा, ऐसे में हम आपके साथ कैसे चल सकते हैं। भाजपा कह सकती है कि उद्धव ठाकरे से बाद में बात कर ली जाएगी लेकिन चिंता वाली बात यह है कि बिहार में उपेंद्र कुशवाहा अपने सहयोगियों के साथ एनडीए से अलग होकर यूपीए में शामिल हो चुके हैं। इस चीज को यूपीए ने दिल्ली में विपक्ष के बड़े नेताओं को बुलाकर, एक प्लेटफार्म पर इकट्ठा करके खूब कैश किया, तो वहीं दूसरी ओर इसी बिहार से भाजपा के एक और पार्टनर रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने लोकसभा में सीटों को लेकर अपना हिस्सा बढ़ाने की मांग कर डाली। जिस बिहार में सीट शेयरिंग को लेकर कुशवाहा नाराज होकर एनडीए से अलग हुए अब वही मांग पासवान ने की तो एनडीए के लिए एक चुनौती खड़ी हो गई।
हालांकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने रामविलास पासवान और उनके पुत्र चिराग पासवान से बातचीत भी की, उन्हें मनाने की कोशिशें भी कीं लेकिन कल क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। कहने वाले कह रहे हैं कि जो कुछ हो रहा है वह एनडीए के लिए ठीक नहीं है और उसकी कीमत उसे लोकसभा चुनावों में चुकानी पड़ सकती है। राजनीतिक पंडित तो इसे लेकर बराबर भविष्यवाणियां कर रहे हैं, जाे सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है कि अब अच्छे दिन आने वाले हैं की बजाए अच्छे दिन जाने वाले हैं, वाली बातें लोग एक-दूसरे से जमकर शेयर करने लगे हैं। महागठबंधन को लेकर यूपीए में भी गांठें जमकर हैं। यूपी में बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के बीच जो राजनीतिक समझौता सीटों को लेकर हुआ है, उसमें छोटे चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल को भी शामिल किया गया है। चौंकाने वाली बात यह है कि इस गठबंधन में कांग्रेस को दरकिनार कर दिया गया है। यहां भी यही कहना होगा कि कल क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और सोनिया गांधी विपक्षी एकता के लिए सक्रिय हैं।
तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी भी एक बड़ी गांठ हैं, जो कि पीएम पद को लेकर ज्यादा गंभीर हैं। यही स्थिति मायावती की है। राजद के साथ कांग्रेस की बात बन चुकी है। लालू यादव के जेल जाने के बाद तेजस्वी मोर्चा संभाले हुए हैं और सब कुछ ठीकठाक चल रहा है तो वहीं एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार यद्यपि कांग्रेस के साथ हैं परंतु पीएम पद को लेकर जबर्दस्त गांठ बनी हुई है। उधर डीएमके तथा चंद्रबाबू नायडू के अलावा कर्नाटक में जनता दल-एस कांग्रेस के साथ है लेकिन पीएम को लेकर पेंच फंसा हुआ है। कुल मिलाकर यूपीए के साथ भी वही स्थिति है जो एनडीए को झेलनी पड़ रही है। दोनों ही दल राजनीतिक समझौतों को लेकर आगे की तैयारी कर रहे हैं। 2019 का चुनाव कांग्रेस के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में चार राज्य तो उसे सीधे-सीधे मिले हैं और वह मजबूत होकर उभरे हैं, तभी तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अब जोरदार हमले करने लगे हैं।
राजनीतिक पंडितों ने जो राय सोशल साइट्स पर दी है उसके अनुसार एनडीए बचाव पर है और उनकी तुलना में राहुल का आक्रमण सत्तापक्ष पर भारी पड़ रहा है लेकिन यह मानना पड़ेगा कि राजनीति और जंग के मैदान में कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। मोहब्बत और जंग के मैदान में सब कुछ जायज है। अब राजनीति में भी ऐसा ही होने लगा है। लोकतंत्र में जब सत्ता की बात चलती है तो सब वोटतंत्र के तराजू पर नफा-नुकसान तौलकर ही आगे बढ़ते हैं। यूपीए हो या एनडीए हो अगर ये लोग अपना राजनीतिक हिसाब-किताब तय कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ इनके छोटे और सहयोगी दल भी सीटों को लेकर अपना-अपना हिसाब-किताब बनाए बैठे हैं। लिहाजा 2019 का चुनाव न सिर्फ दिलचस्प बल्कि कांटेदार भी रहेगा। विशेषकर उन परिस्थितियों में जब एक-दूसरे की घेरेबंदी की जा रही हो, राजनीतिक चक्रव्यूह रचे जा रहे हों
तब एनडीए और यूपीए की असली परीक्षा होगी।