उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता

उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने की तैयारी हो गई है। समान नागरिक संहिता के संबंध में गठित कमेटी जल्द ही जनता से सुझाव मांगेगी

उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने की तैयारी हो गई है। समान नागरिक संहिता के संबंध में गठित कमेटी जल्द ही जनता से सुझाव मांगेगी। समाज नागरिक संहिता भारतीय जनता पार्टी का चुनावी मुद्दा रहा है। जिसकी ​िदशा में अभी काम ​िकया जाना बाकी है। भारतीय जनता पार्टी के दो चुनावी मुद्दे राम मंदिर निर्माण और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाना पूरा हो चुके हैं। यद्यपि गोवा में यूनीफार्म सिविल कोड पहले से ही लागू है, वहां स्वतंत्रता से पहले ही यह कानून बना था। अगर समान नागरिक संहिता उत्तराखंड में लागू होगी तो उत्तराखंड देश का पहला राज्य हो जाएगा। समान नागरिक संहिता को लेकर लम्बे समय से सियासत गर्माई हुई है। 
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने कहा है ​िक राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करना हमारा संकल्प है। यह केवल हमारा चुनावी मुद्दा नहीं था, हम अपने संकल्प को पूरा करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के समान नागरिक संहिता लागू करने के इरादे की घोषणा का देश के सभी राज्यों में स्वागत किया जाना चाहिए। इसे मजहब या साम्प्रदायिकता की राजनीति से ऊपर उठकर पूरे देश की सामाजिक समरसता के नजरिये से देखा जाना चाहिए। समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिए एक समान कानून बनाने  और लागू करने का आह्वान करती है। यह एक समान कानून विवाह, तलाक, सम्पत्ति के उत्तराधिकार, गोद लेने और ऐसे अन्य मामलों में सभी समुदायों पर लागू होगा।
समान नागरिक संहिता का भारतीय संविधान के भाग-4, अनुच्छेद 44 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद-44 में कहा गया है कि राज्य भारत के  पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा। भारत में समान नागरिक संहिता पर पहली याचिका 2019 में राष्ट्रीय एकता और लैंगिक न्याय समानता और महिलाओं की गरिमा को बढ़ावा देने के लिए कानून बनाने के लिए दायर की गई थी। भारत का संविधान बनाते समय समान नागरिक संहिता को स्वैच्छिक बना दिया गया था। आजादी के बाद जिस तरह मुस्लिम समुदाय के लोगों को उनके मजहब की पहचान पर ​उनके धार्मिक कानूनों को मान्यता देने का प्रावधान किया गया। वह देश की आंतरिक एकता एवं समरसता में व्यवधान पैदा करने वाला था। आजादी के अमृतकाल तक आते-आते भी यह मुद्दा ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहा।
वास्तव में इसके राजनीतिक कारण थे  जिसकी वजह से इस विषय पर बात तक करने से बचा गया और मुसलमानों को केवल मजहब की चारदीवारी के भीतर ही बंद रखने की कोशिश की गई, जिसकी वजह से उनकी पुरातनपंथी सोच ही उन पर प्रभावी रह सके और मुल्ला-मौलवियों के फरमानों से उनका सामाजिक जी​वन निर्देशित होता रहे। सबसे दुखद यह है कि 1947 में मजहब के आधार पर ही मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान बनाए जाने के बावजूद हमने अपनी राष्ट्रीय नीति में परिवर्तन नहीं किया और इसके उलट उन्हीं प्रवृत्तियों व मानसिकता को मुल्ला-मौलवियों व मुस्लिम उलेमाओं की मार्फत संरक्षण दिया गया, जिन्होंने भारत के बंटवारे तक में अहम भूमिका निभाई थी। बेशक देवबंद के उलेमाओं के एक गुट और जमीयत-ए-उलेमाए-हिन्द ने बंटवारे का विरोध ​िकया था और देश की आजादी की लड़ाई में कांग्रेस का साथ दिया था, मगर आजाद भारत में इन संगठनों ने भी कभी मुसलमानों को भारत की राष्ट्रीय धारा में मिलने की प्रेरणा नहीं दी और उनकी मजहबी पहचान को खास रुतबा दिए जाने के ही नुक्ते ही लम्बी हुकूमत में रहने वाली पार्टी कांग्रेस को सुझाए। जिसकी वजह से भारत में मुसलमानों की राजनीतिक पहचान एक वोट बैंक के रूप में बनती चली गई।  जिसकी वजह से ‘मुस्लिम ​तुष्टीकरण’ का अघोषित एजैंडा चल पड़ा। मगर मुल्ला-मौलवियों ने इसका जिस तरह जमकर लाभ उठाया उससे मुस्लिम समुदाय ही लगातार सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछडता चला गया। 
उत्तराखंड पूरे देश में ‘देवभूमि’ के नाम से जाना जाता है क्योंकि हिन्दुओं के ऐसे तीर्थ स्थल यहां पर हैं जिनका संबंध भारत की उस मूल पहचान से है, धर्म से ऊपर उठकर जो किसी भी व्यक्ति में ईश्वर की सर्व व्यापी निरंकार सत्ता का बोध कराती है और पेड़-पौधों से लेकर पर्वतों व नदियों और प्राकृतिक मनोरमता तक में प्रत्येक व्यक्ति उस सत्ता का बोध अनायास ही करने लगते हैं। ईश्वर की पृथ्वी पर इस निकटता को केवल सनातन या हिन्दू दर्शन अथवा इस धरती से उपजे अन्य धर्म दर्शन ही बताते हैं। अतः बहुत आवश्यक है ​िक इस देेवभूमि में सभी नागरिकों का आचरण एक समान ही हो और सभी के लिए सामाजिक नियम एक समान हों। वैसे गौर से देखा जाए तो 2000 में उत्तराखंड बनने से पहले और बाद में भी इसकी पर्वतीय जनसंख्या में खासा परिवर्तन आया है और पहाड़ों पर मुस्लिम जनसंख्या में खासा ​इजाफा हुआ है। बेशक इसकी वजह रोजी-रोटी की तलाश भी हो सकती है, जिसका हक प्रत्येक हिन्दुस्तानी को है। मगर यह हक किसी नागरिक को नहीं है कि वह किसी प्रदेश के सांस्कृतिक वातावरण को प्रदूषित करने का प्रयास केवल इस​िलए करे कि उसके मजहब की वे मान्यताएं नहीं हैं जो यहां सदियों से प्रचलित हैं, जो उनकी पहचान बनकर पूरे भारत को अपनी तरफ आकर्षित करती रही है। समान नागरिक संहिता लागू नहीं करने के पीछे  तुष्टिकरण की नीतियां भी जिम्मेदार रहीं और मुस्लिमों को महज एक वोट बैंक माना गया। मजहब के आधार पर मुस्लिम समुदाय को मुस्लिम पर्सनल लाॅ दिया गया जसे धर्मनिरपेक्ष भारत में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में उत्तराखंड सरकार के कदम की सराहना की जानी चा​िहए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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